आंखों में सतरंगी सपने सजा कर जीवन रूपी बाग में कदम बढ़ा रहा व्यक्ति जीवनपथ पर आगे बढ़ने के बजाय मृत्यु रूपी खाई में समा जाए तो आश्चर्य की अपेक्षा आघात अधिक लगता है। आखिर अचानक कोई व्यक्ति मृत्यु को अपना कर जीवन का करुण अंत क्यों पसंद करता है?
भारतीय समाज में पुरुष जहां 64 प्रतिशत आत्महत्या करते हैं, वहीं महिलाएं 36 प्रतिशत आत्महत्या करती हैं। परंतु लेंसेट पब्लिक हेल्थ के 2017 के सर्वे के अनुसार दुनिया की जनसंख्या की गणना के अनुसार युवा और मघ्यमवर्गीय युवतियों की आत्महत्या के मामले में भारत तीसरे स्थन पर है। सोचने वाली आत यह है कि अगर भारतीय स्त्री सहनशीलता-सहिष्णुता और संघर्ष की मूर्ति कहलाती है, तब पराजय स्वीकार करके जिंदगी से स्वयं पलायन करने का कदम क्यों उठाती है?
शिक्षा और आधुनिकता के विकास के साथ महिलाओं को सपना देखने वाली आंखें मिलीं तो खुले आकाश में उड़ने के लिए पंख मिले, साथ ही आकाश भी मिला। पर उसके आजादी के साथ उड़ने वाले पंखों को काट कर बीच में तड़पने के लिए छोड़ने की सत्ता समाज ने पुरुषों के हाथों मे सौंन दी। यह भी कह सकते हैं कि पुरुषों ने अपने पास रखी। हमारा पुरुष प्रधान समाज, अनेक खामियों वाली विवाह व्यवस्था, गलत सामाजिक मूल्य, अधिक संवेदनशीलता और स्त्रियों की परतंत्रता के कारण पैदा होने वाली लाचारी एक हद तक असह्य बन जाती है। ऐसे में भयानक हताशा ही स्त्रियों केा आत्महत्या की ओर कदम बढ़ाने को मजबूर करती है।
थाॅम्सन फाडंडेशन और नेशनल क्राइम ब्यूरो के पिछले साल के आंकड़ों के अनुसार 15 से 49 साल की भरतीय महिलाओं में से 33-5 प्रतिशत घरेलू हिंसा, 8-5 प्रतिशत यौनशोषण, 2 प्रतिशत दहेज को लेकर महिलाओं ने आत्महत्या की है। भारत में संपत्ति के अधिकार से लेकर दुष्कर्म तक के कानून महिलाओें के हक में है, फिर भी देखा जाए तो महिलाओं को न्याय नहीं मिल रहा है। अध्ययन कहते हैं कि अगर अन्यायबोध हमेशा चलता रहा तो मन में घुटन सी होती रहती है। अगर यह घुटन बढ़ती रही और रही और अपनी हद पार कर गई तो महिला आत्महत्या का मार्ग अपनाती है। अन्यायबोध की शुरुआत डोमेस्टिक वायोलंस से देखने को मिलती है। ज्यादातर पुरुष आज भी महिलाओं को अपनी मिलकत समझते हैं। व्यवसाय में असफल होने वाला पति अपनी असफलता का दोष पत्नी को देता है। शराबी पति शराग पीकर पत्नी को मारने का जैसे अपना अबाधित अधिकार समता है। मैरिटल रेप के बारे में सर्वे की जो रिपोर्ट आई है, वह चैंकाने वाली है। अपनी पसंद के लड़के से शादी करने का सौभाग्य हर लड़की को नहीं प्राप्त होता। महिला की इज्जत को उसके शरीर के साथ जोड़ कर उसकी भूल और नादानी की सजा उसे आजीवन मिलती रहती है। आज भी अनेक पैरेंट्स दुखी और परेशान बेटी के लिए मायके का दरवाजा नहीं खोलते। ऐसी बेटियां मौत की ओर कदम बढ़ा देती हैं।
सालों से चली आ रही इन समस्याओं के हल के लिए पहले तो पुरुषों के हृदय में महिलाओं के लिए सम्मान और आदर का बीज रोपना जरूरी है। पुरुषों को इस बात का ख्याल दिलााना जरूरी है कि महिला का भी एक स्वतंत्र व्यक्तित्व होता है। वह एक पत्नी के रूप में पति और परिवार के लिए ही फर्ज अदा कर रही है, जो अति प्रशंसनीय काम है। महिलाएं यह काम स्वेच्छा से कर रही हैं, जिसके लिए पति और परिवार को महिला का आभारी होना चाहिए। महिलाओं को भी पुरुषों के बराबर ही हक और अधिकार है, इसके लिए पुरुष और महिला, दोनों को जाग्रत करने की जरूरत है। पुरुष को भी समझना चाहिए कि महिला मात्र एक शरीर नहीं, जीती-जागती संवेदनशील व्यक्ति है। उसकी भी अपनी इच्छाएं, अरमान, पसंद और अपना मत व्यथ्त करने की आजादी है। वह भी व्यक्ति है, कठपुतली नहीं। ऐसा होने पर सचमुच समाज में स्वर्णयुग की शुरुआत होगी। यह बात समाज, परिवार और पुरुष वर्ग को स्वीकार करनी पड़ेगी।
आज जो स्थिति है, उसमें महिलाओं को हिंसा और अत्याचार सहने को मजबूर होना पड़ रहा है। आर्थिक मजबूरी और इज्जत का डर, दोनों ही इस बात को बढ़ावा देते हैं। अन्याय-शोषण का विरोध करने से, उनके आवाज उठाने से यह संभव न हो तो बोझिल संबंध तोड़ने से खुद की या मां-बाप की इज्जत खराब नहीं होती।
अपने यहां महिलाएं अब कैरियर के पंख से उड रही है, परंतु बाहर की दुनिया के दांवपेंच बहुत ही खतरनाक हैं। उन्हें वास्तविकता और सकारात्मक शिक्षा भी मिलनी चाहिए। यहां मनुष्य को कुचल कर, पीठ पीछे घाव करके ऊपर से नीचे गिराने वालों की कमी नहीं है। महत्वाकांक्षा के घोड़े पर सवार होकर आने वाली महिलाएं यहां फिट न्हीं होतीं। महिलाओं के स्वाभिमान, चाहत, मूल्य और आकांक्षाएं हमेशा प्रतिद्वंद्विता की आग में जलती रहती हैं। यहां ये हारते हैं, पीछे जाते हैं, टूटते है, घायल होते हैं और विखरते हैं। उनका हाथ थाम कर सही रास्ता बताने वाला कोई नहीं होता। परिणामस्वरूप कमजोर पलों में वे जीवन को खत्म कर देती हैं।
यह समय कभी न कभी बीत ही जाएगा और बदलाव होकर रहेगा यह उम्मीद आत्महत्या से बचा सकती है। आगे बढ़ने, टिके रहने और हर हाल में सफलता प्राप्त करने, घर और काम में बैलेंस बनाने, बच्चोे को श्रेठ बनाने और दुनिया की सभी सुख-सुविधाएं प्र्राप्त करने की चाह तनाव पैदा करती है। चाह नहीं पूरी होती तो हताशा आती है और फिर मरने का विचार होता है।
जिंदगी में हर आदमी को सभी सुख नहीं मिलते। जो नहीं मिला उसके लिए रोने के बजाय जो मिला है, उसका आनंद उठाना ज्यादा बेहतर है और जीवन में मात्र जीतना ही महत्वपूर्ण नहीं है। हारना, बारबार हारना, हार का उससे बोधपाठ प्राप्त कर, जीना और टिके रहना भी महत्वपूर्ण है। ग्लैमर वर्ल्ड या कार्पोरेट फील्ड में काम करने वाली लड़कियों की आत्महत्या अनलिमिटेड एम्बिशन का परिणाम है। बिना क्षमता की आकांक्षा गलत रास्ते पर ले जाती है।
इसके अलावा रिलेशनशिप में चिटिंग, बॉडी शेमिंग, असफलता, एक्स्ट्रा मैरीटल अफेयर, मनपसंद लड़के के साथ शादी के लिए परिवार का विरोध और सहनशक्ति का अभाव भी महिलाओं को आत्महतया के लिए प्रेरित करता है। यहां महिला को समझना चाहिए कि ये सभी समस्याएं काम चलाऊ हैं। थोडा सहनशील बनो। एक न एक दिन सभी समस्याओं का अंत हो जाएगा। समस्याओं का अंत आने दो। तब तक इंतजार करो। उसके पहले जीवन समाप्त करने का क्या मतलब? अगर जीवन का अंत आना ही है तो समस्याओं से लड़ते हुए आने दो। जिससे कुछ तो सुधाार होगा। इस सुधार के लिए आने वाली पीढ़ी आपको याद करेगी।
-वीरेन्द्र बहादुर सिंह, नोएडा, उप्र।