हमीरपुर, सुमित साहू। लॉकडाउन को ध्यान में रखकर सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए वर्णिता संस्था के तत्वावधान में विमर्श विविधा के अंतर्गत जरा याद करो कुर्बानी के तहत संघर्ष और संकल्प शक्ति के साक्षी बाघा जतीन की पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि अर्पित किए। वहीं संस्था के अध्यक्ष डॉ0 भवानीदीन ने कहा कि बाघा जतीन के बारे में यही कहा जा सकता है कि बड़ी मुश्किल से होता है, चमन में दीदावर पैदा अर्थात ज्योतिंद्र नाथ मुखर्जी जैसे युवा क्रांतिकारी देशभक्त बहुत मुश्किल से पैदा होते हैं। जतीन का जन्म 7 दिसंबर 1879 को कुष्टिया, बंगाल
म हुआ था। उनके पिता का नाम उमेश चंद्र मुखर्जी और मां का नाम सरस्वती देवी था। जतीन का वास्तविक नाम ज्योतीन्द्र नाथ मुखर्जी था। जतीन ने कृष्ण नगर के वर्नाक्यूलर स्कूल से 1898 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। तत्पश्चात उनकी स्वामी विवेकानंद से भेंट हुई। स्वामी जी से संवाद होने के बाद उसे जीवन का लक्ष्य प्राप्त हो गया। जतीन बचपन से ही शरीर से बहुत मजबूत थे। दो या तीन घटनाओं से जतीन के शारीरिक बल, सूझबूझ और उसके देश के प्रति सोच की पुष्टि होती है। एक बुढ़िया की मदद करना, कम उम्र में ही एक बिदके हुए घोड़े को वश में करना, सफर में दो गोरो को धुनना जैसी घटनाओं ने उसे चर्चित बना दिया था। उसके बाद उसकी अपने मामा के रहते हुए एक दिन जंगल में एक खूंखार शेर से भिड़ंत हो गई, उसे अपने हसिये से मार दिया, तबसे उसका नाम बाघा जतीन हो गया। जतीन कोलकाता के युगान्तर जैसे क्रांतिकारी दल से जुड़े ही नहीं अपितु आगे चलकर उसके प्रमुख मुखिया हो गए। सरकार ने जब बंगाल का विभाजन कर दिया तो सारे देश में बंग-भंग के विरोध में आंदोलन चला, जिसमें जतीन ने खुलकर भाग लिया। जतीन ने कई जगह नौकरी भी की। जतीन की अरविंद घोष जैसे क्रांतिकारी से कोलकाता में भेट हुई। जतीन महिलाओं का बहुत सम्मान करते थे। वे मल्ल युद्ध में माहिर थे। अरविंद घोष और स्वामी विवेकानंद के भाई भूपेंद्र दत्त से भी जतीन के अच्छे सम्बन्ध हो गये थे। वे अनुशीलन समिति से जुड़ गये थे। गोरों से लडने के लिये क्रांतिकारियों को शस्त्र सन्ग्रह और बम निर्माण की आवश्यकता पड़ती थी। हथियारों की खरीद के लिये देशभक्त डकैती डालते थे। गार्डन रीच जैसी डकैती में जतीन का प्रमुख हाथ था। क्रांतिकारी पुलिस ऑफिसर नंदलाल बनर्जी, पुलिस प्रासी क्यूटर आशुतोष विश्वास को मार चुके थे। अब देश वीरों का शत्रु शम्सुल आलम की बारी थी, जिस को मारने के लिए जतीन ने वीरेंद्र दत्त गुप्ता का चयन किया था। इस तरह से कई हत्या और डकैती में पुलिस को बाघा जतीन की तलाश थी। 9 सितंबर 1915 को पुलिस और बाघा जतीन के साथियों के साथ मुठभेड़ हुई जिसमें जतीन बुरी तरह से घायल हो गए और 10 सितंबर 1915 को वीरगति को प्राप्त हो गए। उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। कार्यक्रम में अवधेश कुमार गुप्त एडवोकेट, राजकुमार सोनी सरार्फ, कल्लू चौरसिया, राधारमण गुप्त, आशीष गुप्ता, लल्लन गुप्ता, अरविंद, दिलीप अवस्थी, वृंदावनलाल गुप्ता, गौरी शंकर, प्रान्शू सोनी आदि मौजूद रहे।
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