Tuesday, July 2, 2024
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गरीब की रोटी

दो दिन से लगातार बारिश हो रही थी आज तीसरा दिन था चारों तरफ पानी ही पानी दिख रहा था। भोलूवा के बापू बारिश रूकने की राह देख रहे थे कि बारिश रूके तो कुछ सामान लाये वो। घर में जो था वो खत्म होने को आया था। आज अगर बारिश नहीं रूकी तो खाना क्या बनाऊंगी यही सोच सोच कर बधिया परेशान हो रही थी लेकिन बारिश थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। वैसे भी इतनी बारिश में बाहर सब्जी, किराने वाले की दुकान खुली होगी ये कहना मुश्किल है फिर भी बाहर तो जाना ही होगा नहीं तो बनाऊंगी क्या? कम से कम आटा और आलू प्याज तो लाना ही पड़ेगा। मुई इस बारिश में तो आलू प्याज भी बहुत महंगा हो गया है। क्या बचाएं क्या खाएं और कहां से जुगाड़ करें कुछ समझ में नहीं आता। यही सब बातें बधिया के दिमाग में घूम रही थी।
बधिया:- ” सुनो भोलूवा के बापू ! घर में राशन खत्म हो गया है। कम से कम आटा तो ले ही आओ। परसों लाये थे, अब राशन खत्म होने को आया।
मनोहर:- “काहे सब तो लाया था”। अभी कैसे खत्म हो गया?”
बधिया:- “नहीं…. सब खत्म हो गया”।
मनोहर:- “अच्छा… बरसात को जरा रुकने दो फिर देखत हईं। जाई के लई आइब”।
बधिया कुछ बोली नहीं। भोलूवा पास ही चारपाई पर बैठा सब देख सुन रहा था। सारी परिस्थितियों से वो अनजान नहीं था। उसे भूख लगी थी लेकिन गरीबी और विपत्ति छोटी उम्र में समझदार बना देती है। भोलूवा कुछ बोला नहीं उठ कर पानी पिया। पेट की जलन कुछ शांत हुई और लेट गया। बारिश थमने का नाम नहीं ले रही थी आखिरकार पूरा परिवार भूखा ही सो गया। चौथे दिन सुबह बारिश थमी चिड़ियों की आवाज से बधिया की नींद टूटी। शायद सुबह के पांच बज रहे होंगे बधिया मनोहर को उठाने लगी।
बधिया:- “ऐ सुनो! उठो ! बारिश रूक गई है। जाओ सामान लई आव”।
मनोहर:- “सोअन दे जरा। क्यों पीछे पड़ी है?”
बधिया:- “अरे पानी बरसना बंद हुई गा, जाओ बाहेर जाओ और सामान लई आव”।
मनोहर:- “पगला गई है का? इत्ती सुबह कौन दुकान खोले बैठा होगा?
बधिया बैठ गई और दिन निकलने की राह देखने लगी। घर में चारों ओर वो नजरें घुमाने लगी। लकड़ी गीली हो गई थी, बाहर पानी बहुत भर गया था और पीने का पानी भी खत्म हो चला था। रोना आ रहा था उसे अपनी बेबसी पर। ऐसे समय में काम धंधा सब बंद। पता नहीं ऐसे समय में मजदूरी भी मिलेगी कि नहीं।
कुछ देर बाद मनोहर उठा और बाहर जाने लगा। पांव पांव तक पानी भरा हुआ था। सड़कों पर गड्ढे अलग हो गए थे और जो दिखाई भी नहीं पड़ रहे थे। धीरे-धीरे संभलते हुए वह पंसारी की दुकान तक गया।
लाला:- “अरे मनोहर ! इतनी सुबह – सुबह ! का चाही?” मनोहर:- ” पांच किलो आटा दे दो लाला और साथ में एक किलो आलू भी दे दो”।
लाला:- “पहिले का बकाया बाकी है मनोहर! पहिले वह तो दे दो। पांच सौ से ऊपर हो गए हैं “।
मनोहर:- “(सौ रुपये पकड़ाते हुए) ई ले लो लाला बाकी बाद में देखा जायेगा और मनोहर सामान लेकर लौटने लगा। उसके पास सौ का आखिरी नोट था और वह सोच रहा था कि आगे का खर्चा कैसे चलायेगा? उसकी आंखों के सामने भोलूवा का चेहरा घूम रहा था।
प्रियंका वरमा माहेश्वरी गुजरात