Sunday, June 8, 2025
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“आराध्य अंतर के भीतर है”

पूरी तरह हम खुद को कहाँ पहचान पाते है, हम क्या है? दिल में कुछ और जुबाँ पर कुछ और। तन के आईने को चेहरे के नकली भावों से चमकाए रहते है। झूठ, छल, फरेब की रोशनी से भीतर के भग्नावशेष को नज़रअंदाज़ करके कितनी आसानी से छलते है हम अंदर बैठे ईश को।जब खुद ही दोहरे चरित्र में जीते है ईश को क्या पहचान पाएँगे, कहाँ लायक है हम। ईश्वर की बात करने के लिए खुद खाली होना पड़ता है, याचना और मांग को परे रखकर करुणा भाव जगा कर, साँसों से शंख फूँक कर अनुराग को बाहर उडेल कर विरक्त होना आसान नहीं। सांसारिक मोह माया के तानों बानों में लिपटा इंसान लोभ लालच में मोहाँध सा ईश्वर को भी छल लेता है। हम इंसानों के गढ़े शास्त्रों को दोहराते रहते है बासी पुराने, उसमें जो लिखा उसे पत्थर की लकीर मानकर। भीतर की भागीरथी में तरोताज़ा सतत प्रवाहित उर्जा को नज़रअंदाज़ करके। कण-कण में वो है फिर भी शिद्दत से हम बाहरी इंट पत्थर के मंदिरों में वक्त और ऊर्जा बर्बाद करते तलाशते है। बिना डरे चोरी छिपे हर गलतियाँ दोहराते रहते है ये सोचकर की वो कहाँ देखता है हमें। हम इसीलिए स्वीकारने से डरते है की ईश हमारे भीतर है।

साक्षी भाव की कमी है कैसे पहचान पाएँगे। जो हमारे पल-पल का हिसाब हमारे अंदर बैठा वो रखता है। कौन चैतन्य भरता है सोचा है कभी ?
खाना पचाकर लहू में परिवर्तित कौन करता है ? नींद दिमाग की आंशिक मृत्यु का ही एक भाग है। शिथिल शरीर ओर बंद दिमागी अवस्था में भी साँसों का चलना, धड़कन का बजना साबित करता है की ईश हमारे भीतर है। जिसे नज़रअंदाज़ करके ढोंग का, छल का, कपट का चोला पहना देते है हम। जब भी कोई आपदा आती है तो हम बेकल होते घबरा कर ईश्वर की शरण में खुद को नखशिख ये कहकर समर्पित कर लेते है कि, हे ईश्वर सब ठीक कर दो आगे से सत्य और धर्म के रास्ते पर ही चलूँगा, पर जैसे ही सब सही हो जाता है दुन्यवी परिवेश में आकर जैसे थे बन जाते है। हमारी लीला से प्रभु बखूबी परिचित है तभी हर कुछ समय बाद हमें ज्ञात करवाते है की तुम्हारा बाप बैठा है अभी खुद बाप बनने की कोशिश मत करो।  अगर ईश्वर को पाना है तो पहले समझ लो क्यूँकि “मधुशाला की तलाश में निकलने से पहले  घूंटभर शराब चखना जरूरी है” ईश्वर की लीला अपरंपार है। समझ ली तो फिर मंदिरों की ख़ाक़ क्यूँ छाननी। पर आज खुद ईश्वर नि:सहाय है हम इंसान की दोहरी शख़्सीयत को समझने में। ना वो अब मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों में नहीं बसता दूर बहुत दूर है हम इंसानी बस्ती से इंसान के खुराफ़ाती दिमाग का मारा।
भावना ठाकर ‘भावु’ (बेंगुलूरु,कर्नाटक)