“हाय – हाय यह मजबूरी,
यह दिवाली सफाई और मजदूरी”
त्योहारों का आगमन हम महिलाओं के लिए ढेर सारा काम ले आता है। अब कामचोर औरतों की बात अलग है। वो तो सब बाजार से ले आती हैं पर उन लोगों का क्या किया जाए जिनको सब घर में ही बनाने की आदत है और सबसे बड़ा भ्रष्टाचार तो घर में ही होता है। तारीफ का पुलिंदा बांधकर मस्त चूना लगाते हैं हमें। अरी भाग्यवान! तेरे हाथों में तो अन्नपूर्णा का वास है तुमसे खराब बनता ही कहां है? बच्चे भी चाशनी टपका देते हैं। “यू आर ग्रेट मां! यू कुक वेरी वेल” और फिर गुब्बारे से भरी मैं हवा में उछलते दोगुने जोश से व्यंजनों की कतारें लगाने में व्यस्त हो जाती हूं।सबसे बड़ी आफत तो सफाई प्रतियोगिता से होती है अरे मतलब ऐसी कोई प्रतियोगिता रखी नहीं जाती लेकिन अगर मिसेज वर्मा के घर की सफाई जरा जल्दी हो गई तो मिसेज शर्मा जो अंदर ही अंदर कुढ़ती रहेंगी लेकिन सामने यही कहेंगी कि, “अरे यार मैंने तो अभी तक सफाई शुरू भी नहीं की। कामवाली मान ही नहीं रही। तुम्हारी नजर में कोई हो तो बताओ। चार दिन तो लग ही जाएंगे सफाई में… ठीक है बताना कोई हो तो और फिर बाय बाय कर के अपने पति पर बरस पड़ती हैं, “देखो जी! मिसेज वर्मा के घर की सफाई तो हो भी गई और एक आप हो जरा सा काम में हाथ नहीं बंटाते हो। दिनभर अकेली मैं ही खटते रहूं” और आपको पता है कि क्या होता है… सरकार सुनते हैं, मुस्कुराते हैं और ऑफिस का थैला लटकाते हैं और बड़ी मासूमियत से कहते हैं कि ऑफिस में बहुत काम है और… और…. है ना…. ये रफूचक्कर जाते हैं।
मेरी परेशानी यहीं पर खत्म नहीं होती। सबसे ज्यादा हैरान परेशान तो ये कामवालियां करती हैं मुझे। इनके तो नखरे पूछो ही मत। मैं तो इन पर पीएचडी करके बैठी हूं। वैसे मेरा भाग्य इन्हीं कामवालियों के आगमन से उदय और अस्त होता है। कमबख्तमारियां दिवाली तो पूरी तरह वसूल लेंगी लेकिन काम के लिए सौ बहाने बनायेंगी। आखिरकार मैं इनको पुचकार कर, बहला कर और चार बीमारियां खुद की गिना कर काम निकलवाती हूं। सफाई से लेकर खानपान की तैयारियों तक इस त्यौहार की दौड़ में मैं सबसे आगे निकल जाना चाहती हूं मगर सोचा हुआ कहां पूरा होता है। वह ऐसे कि कामवाली बीच में ही छुट्टी मार देती है। क्या करें और क्या ना करें यही सोचते हुए मेरा जी हलक में अटका रहता है। दिमाग में भी यही चलते रहता है कि अगर यह कमीनी दिवाली में छुट्टी नहीं मारती तो कम से कम सफाई का काम तो पूरा हो जाता।
वैसे सबसे अच्छा काम मेरे लिए शॉपिंग का रहता है। सुबह से शाम हो जाए मगर पैर में जरा भी दर्द नहीं उठेगा लेकिन पता नहीं क्यों पतिदेव का मुंह सूखा हुआ दिखता है खरीदी के नाम पर। फिर भी मैं और मेरी पलटन… अरे मेरे बच्चे अपनी मनोकामना पूर्ण करवा ही लेते हैं पतिदेव से। डीजल, पेट्रोल और गैस के बढ़ते दामों का और महंगाई का हवाला देते मेरे पतिदेव भरसक कोशिश करते हैं कि उनका दिवाला ना निकले मगर हमारा दल जीत ही जाता है और विपक्ष की तरह पतिदेव कुछ ना कर पाते हैं। फिर हरी झंडी मिलने पर मैं फिर से दोगना उत्साह से काम करने लग जाती हूं।पतिदेव अपनी जगह सही थे…मैं और बच्चे अपनी जगह। मैं इसी सोच में डूबी हुई थी कि इस दिवाली पर मैं अपने कपड़े और गहने से किसे जलाऊंगी। स्वच्छता, रोशनी और खुशियों का त्योहार दिवाली क्या वाकई में महंगाई की मार झेलता हुआ खुशियों के दीपक जला पाएगा?
प्रियंका वरमा माहेश्वरी
गुजरात