हमारे देश की संस्कृति, आस्था और विश्वास से बनी है ,लेकिन इससे भी इंकार नही किया जा सकता है कि यही आस्था जब विश्वास से अंधविश्वास में बदल जाती है तो बड़ी मुसीबत भी लेकर आती है। कई बार इसका नुकसान बड़ा हो जाता है। अब कोरोना को लेकर ग्रामीण क्षेत्रों में जो अंधविश्वास फैला है वो किसी बड़ी मुसीबत का मार्ग प्रसस्त कर रहा।
गाँव में अक्सर कुछ ना कुछ नया होता रहता है, पर ऐसा कुछ होगा ये हमारे लिए आश्चर्यजनक ही है, हाँ सच में जब मुझे पता चला कि ग्रामीण महिलाएं कोरोना माता की कथा करवा रही हैं तो मुझे समझ आया हमारा देश कितनी तरक्की पर है। इस दुखद परिस्थिति में जब बड़ी बड़ी महाशक्तियाँ हार मान रही है तब हमारे देश में सब कुछ नया हो रहा है एक से बढ़कर एक वैद्य है, पुजारी है, फिर भारतीयों को डर किस बात का। कल एक बाबाजी से कहा कि बाबा मुँह पर गमछा बाँध कर चलिए! कोरोना के विषय में तो आप जानते ही हैं! उन्होंने मेरी तरफ घूर कर देखा “का करिहे करोना ”
हाँ क्या ही कर सकता है कोरोना दद्दू का, हम मन ही मन सोच रहे थे कि उन्होंने कहा -“करोना जहां क होये तहां होय, इहाँ कुछ न कई पाई”
अब इसे विश्वास कहे या अंधविश्वास मगर महिलाओं ने कोरोना माता की पूजा अर्चना शुरू कर दी है।
लेख/विचार
मरुस्थलीकरण और सूखा : दुनिया के समक्ष बड़ी चुनौती -प्रियंका सौरभ
मरुस्थलीकरण जमीन के खराब होकर अनुपजाऊ हो जाने की ऐसी प्रक्रिया होती है, जिसमें जलवायु परिवर्तन तथा मानवीय गतिविधियों समेत अन्य कई कारणों से शुष्क, अर्द्ध-शुष्क और निर्जल अर्द्ध-नम इलाकों की जमीन रेगिस्तान में बदल जाती है। अतः जमीन की उत्पादन क्षमता में कमी और ह्रास होता है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेश ने ‘विश्व मरुस्थलीकरण रोकथाम दिवस’ पर अपने वीडियो संदेश में सचेत किया है कि दुनिया हर साल 24 अरब टन उपजाऊ भूमि खो देती है। उन्होंने कहा कि भूमि की गुणवत्ता ख़राब होने से राष्ट्रीय घरेलू उत्पाद में हर साल आठ प्रतिशत तक की गिरावट आ सकती है. भूमि क्षरण और उसके दुष्प्रभावों से मानवता पर मंडराते जलवायु संकट के और गहराने की आशंका है।
मरुस्थलीकरण की चुनौती-
भुखमरी के कगार पर हैं मिट्टी का बर्तन बनाकर पेट पालने वाले कुम्हार
कोरोना के चलते हुए लॉकडाउन ने मिट्टी बर्तन बनाने वाले कारीगरों के सपनों को भी चकनाचूर कर दिया है। इन्होने मिट्टी बर्तन बनाकर रखे लेकिन बिक्री न होने की वजह से खाने के भी लाले पड़ गए हैं। लेकिन अब न तो चाक चल रहा है और न ही दुकानें खुल रही हैं। घर व चाक पर बिक्री के लिए पड़े मिट्टी के बर्तनों की रखवाली और करनी पड़ रही है। देश भर में प्रजापति समाज के लोग मिट्टी के बर्तन बनाने का काम करते हैं।
कोरोना की वजह से हुए लॉकडाउन ने इनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। उनके बर्तनों की बिक्री नहीं हाे रही है। महीनों की मेहनत घर के बाहर रखी है। इन हालात में परिवार का गुजारा करना भी मुश्किल हो गया है। गर्मी के सीजन को देखते हुए बर्तन बनाने वालों ने बड़ी संख्या में मटके बनाए। डिजाइनर टोंटी लगे मटकों के साथ छोटी मटकी और गुल्लक, गमले भी तैयार किए। दरअसल आज भी ऐसे लोग हैं जो मटके के पानी को प्राथमिकता देते हैं। मगर इस बार तो इनको घाटा हो गया। परिवार कैसे चलेगा। कोई भी मटके खरीदने नहीं आ रहा है। धंधे से जुड़े लोगों ने ठेले पर रखकर मटके बेचने भी बंद कर दिए हैं।
नसलवाद एक मानसिकता
प्रकृति मां जब इंसान को अपना खज़ाना लुटाने के वक्त रंग और नस्ल में भेदभाव नहीं करती- जैसे सूरज की किरने रोशनी देती हैं वायु शुद्ध हवा देती हैं नदियां शीतल जल देती हैं सब सामान दृष्टि रखते हैं। पुरातन समय से विचित्र मानवीय कथाएं जातीय भेदभाव व अलगाव और अत्याचार प्रकाश में आ रहे हैं, जिससे चिंगारी भड़की और वेदनाओ व भावनाओं का सैलाब उमड़ पड़ा। अमेरिका में अफ्रीकी मूल के अमेरिकी नागरिक 46 वर्षीय जॉर्ज फ्लोएड को 25 मई 2020 को एक सफ़ेद मूल के पुलिस वाले व उसके सहकर्मियों ने निष्ठुर, निर्दई व निर्मम हत्या की। जो यह प्रदर्शित करता है कि यह वर्ष मार्टिन लूथर की 50वीं पुण्यतिथि, का समय है परंतु आज भी हम उसी वक्त में रुके हुए हैं। इस वाक्य ने अमेरिकी नागरिकों, को जो पहले से कोविड-19 की महामारी झेल रहे हैं, इस पर विरोध करने पर मजबूर हो गए हैं और मानो समुद्र की भांति पूरे देश की सड़कों से लेकर प्रेसिडेंट हाउस तक जाम कर रखा है। तथापि, कई लोगों का ये भी मानना है कि ये पुलिस की बर्बरता व नृशंसता तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वर्षों से दिमाग की अनुकूलता व प्रवृत्ति है जो फ्लोएड के आखरी शब्दों का प्रतीकात्मक रोष है “लेट मी ब्रीथ” क्योंकि काले मूल के अस्तित्व का दमन हुआ है।
Read More »बाल श्रम से कैसे बच पायेगा भविष्य- डॉo सत्यवान सौरभ
संयुक्त राष्ट्र बाल श्रम को ऐसे काम के रूप में परिभाषित करता है, जो बच्चों को उनके बचपन, उनकी गरिमा और क्षमता से वंचित करता है, जो उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। बच्चों के स्कूली जीवन में हस्तक्षेप करता है। बाल श्रम आज दुनिया में एक खतरे के रूप में मौजूद है। आज के बच्चे कल के भविष्य हैं। देश की प्रगति और विकास उन पर निर्भर है। लेकिन बाल श्रम उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर चोट करता है। कार्य करने की स्थिति, और दुर्व्यवहार, समय से पहले उम्र बढ़ने, कुपोषण, अवसाद, नशीली दवाओं पर निर्भरता, शारीरिक और यौन हिंसा, आदि जैसी समस्याओं के कारण ये बच्चे समाज की मुख्य धारा से अलग हो जाते है। यह उनके अधिकारों का उल्लंघन है। यह उन्हें उनके सही अवसर से वंचित करता है जो अन्य सामाजिक समस्याओं को ट्रिगर कर सकता है।
Read More »राष्ट्रहित में सहभागिता के बजाय चुटकियां लेने में व्यस्त : विपक्ष
आज जहाँ सम्पूर्ण विश्व कोरोना जैसी खतरनाक व जानलेवा महामारी के कारण पूर्णतः आहत है । कोरोना महामारी का डर इस कदर लोगों के जेहन में घर कर गया है कि लोग महानगरों से पलायन कर रहे हैं। वहीं वैश्विक अर्थव्यवस्था की गाड़ी लगभग पटरी छोड़ चुकी है। देश के देश जनहित व स्वास्थ्य सुरक्षा के मद्देनजर नजर लॉकडाउन की स्थिति से गुजर रहे हैं। गौरतलब है कि भारत भी इससे अछूता नहीं रहा है इस लॉकडाउन की स्थिति ने भारतीय अर्थव्यवस्था को भी पूर्णतः प्रभावित किया। छोटे-बड़े सभी उद्योग धंधे इस लॉकडाउन के चलते बंद पड़ गए जिन्दगीं की तेज रफ्तार पर एकाएक ब्रेक सा लग गया। इस विषम परिस्थितियों में देश के केन्द्र व राज्य सरकारों की अपनी तरफ से हर संभव प्रयास करते हुए स्थिति को संभालने की भरपूर कोशिशें वाकई में काबिले तारीफ रही हैं। वहीं दूसरी तरफ विपक्ष पार्टियों के राजनेता इस वैश्विक संकट काल में भी राजनीति करने में पीछे नहीं हट रहे हैं जिस समय जनता उनकी सख्त जरूरत है उस समय वह चुटकियां लेने में मशगूल हैं वो शायद यह भूल गए हैं कि यही जनता आगामी चुनावों में उनके भाग्य का निर्धारण करेगी।
Read More »अन्धविश्वास से उपजी कोरोना महामाई -प्रियंका सौरभ
कोरोना वायरस से पूरी दुनिया लड़ रही है। कोरोना से छुटकारा पाने के लिए कई देश इसकी वैक्सीन बनाने पर रिसर्च कर रहे हैं लेकिन अभी तक कोरोना की वैक्सीन तैयार नहीं हो पाई हैं। ऐसे में कोरोना को लेकर तमाम तरह की अफवाहें, अंधविश्वास और भ्रम भी फैलाए जा रहे हैं।कोविड-19 महामारी का कारण बने कोरोनावायरस ने देश में धीरे-धीरे भगवान का रूप ले लिया है. अंधविश्वास में लोग इसे ‘कोरोना माई’ बुला रहे हैं. वायरस को ये नया नाम देने वाले, देवी मानकर देश के कई हिस्सों में इसकी पूजा कर रहे हैं. पूजा के दौरान ‘कोरोना माई’ को लौंग, लड्डू और फ़ूल चढ़ाए जा रहे हैं. महिलाएं कोरोना को माई मानकर पूजा कर रहीं हैं। जिसकी पूजा करने से उसका प्रकोप खत्म हो जाएगा।
Read More »योगी सरकार के योग्य शिक्षक चयन प्रक्रिया में सुप्रीम कोर्ट का एक पक्षीय फैसला चिंतनशील मुद्दा
कोरोना से उत्पन्न हुई इस महा आपदा संकट काल में जहाँ दुनिया खुद को संभालने की कोशिश में लगी है दो वक्त की रोटी की जुगत में गरीब असहाय बेरोजगार दर-दर भटक रहे हैं। दुनिया के लगभग हर देश आर्थिक संकट से उबरने में लगे हुए हैं इन सबसे बड़ी और कठिन चुनौती कोरोना से संक्रमित हुए लोगों को उपचार व बचाव संसाधन मुहैया कराने में पूर्णतः व्यस्त हैं ऐसे में उत्तर प्रदेश की योगी सरकार वह हर कार्य कर रही है जो इस संकट काल के दौरान जरूरी है। इसी परिपेक्ष में कोरोना बचाव लॉकडाउन ने भारी संख्या में लोगों को बेरोजगार बना दिया लोगों का भरण-पोषण करने का आधार उनसे छिन गया। राज्य और देश दोनों स्तर पर बेरोजगारी में इजाफा देखा जा सकता है इन सबके बीच योगी सरकार की कार्यशैली व क्रियान्वयन काबिले तारीफ है।
इस बेरोजगारी को दूर करने हेतु व शिक्षा के क्षेत्र में योग्य शिक्षक मुहैया कराने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार आज करीब दो सालों से अधर में लटकी ६९००० शिक्षक भर्ती को जल्द से जल्द पूर्ण करने में लगी थी जिससे इस बेरोजगारी में कुछ तो कमी आ सके। इससे तमाम घरों के चूल्हे फिर से जलने लगते। करीब ६९००० परिवारों का भरण-पोषण संभव हो जाता जो कि एक उत्कृष्ट कार्य होता जिसकी चर्चा भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में की जाती यह कहकर कि जब दुनिया बचाव में व्यस्त थी तो उत्तर प्रदेश की सरकार बचाव के साथ-साथ रोजगार भी मुहैया करा रही थी।
कलाकारों पर कहर, कलाएं गई ठहर -डॉo सत्यवान सौरभ
आधुनिक परिवेश में सांस्कृतिक मूल्यों को सहेजने का यदि कोई कार्य कर रहा है तो वह कलाकार ही हैं। मनुष्य को मनुष्यता का पाठ पढ़ाने वाली शिक्षा, जिसमें त्याग, बलिदान और अनुशासन के आदर्श निहित हैं, यदि कहीं संरक्षित है तो वह मात्र लोक कलाओं में ही है। लेकिन कोरोना महामारी के कारण देश भर में कला क्षेत्र के लोग रोजी रोटी के लिए तरस गए है, इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है कि दुनिया भर के लोगो को अपनी कलाओं और हुनर से जगरूक करने वाले लोग अपने अधिकारों के लिए आगे नहीं आये।
उन्होंने अपने आप ही सब कुछ ठीक होने में संतुष्टि समझी लेकिन उनको क्या पता था कि ये दौर बहुत लम्बा चलेगा और मंच, नुक्कड़ व् सिनेमा उनसे कोसों दूर हो जायेगा परिणामस्वरूप आज उनके पास काम नहीं है बड़े कलाकार तो जमा पूँजी पर गुजरा कर लेंगे लेकिन परदे के पीछे के कलाकारों का आज बुरा हाल है उनके लिए तो मजदूरों और प्रवासी लोगो जैसे सुर्खिया, खबरें, योजनाएं लॉक डाउन में ही कैद होकर रह गई है।
हल्के भूकम्पों की अनदेखी कहीं भारी न पड़ जाए
दिल्ली में लगातार बीते दो महीनों में 14 बार भूकम्पीय झटके लगे हालांकि इन झटकों से किसी भी प्रकार के जान-माल का खतरा नहीं हुआ है क्योंकि यह भूकम्पीय झटके रिक्टर पैमाने पर बहुत हल्के तौर पर अंकित किए गए। नेशनल सेंटर फॉर सिस्मोलाजी ने बताया सोमवार को दोपहर एक बजे के लगभग दिल्ली एनसीआर में फिर से भूकम्पीय झटके महसूस किए गए हालांकि इसकी तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 2.1 आंकी गई जो कि बहुत हल्की तीव्रता थी। इस भूकम्प का केंद्र दिल्ली-गुरुग्राम बार्डर था इसकी गहराई 18 किलोमीटर बताई गई है। गौरतलब है कि दिल्ली एनसीआर में अप्रैल माह से अब तक लगभग दर्जनों मध्यम व निम्न तीव्रता वाले भूकम्प के झटके महसूस किए गए हैं हालांकि इससे किसी के भी हताहत होने की कोई सूचना नहीं मिली है।
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