Monday, November 25, 2024
Breaking News
Home » सम्पादकीय » कोई खुश तो कोई मायूस

कोई खुश तो कोई मायूस

सूबे में नगर निकायों/नगर निगमों की चुनावी सरगर्मी की बयार में कुछ खुश तो कुछ मायूस चेहरे देखने को मिल रहे हैं। वहीं लगभग सभी दलों में देखने को मिल रहा है कि पार्टी के लिए वफादारी करने वाले कार्यकर्ताओं को कहीं तो तवज्जो मिली तो कहीं मौका परस्तों का बोलबाला दिख रहा है। इसके अलावा यह भी चर्चा आम है कि इस माहौल में ‘बाप बड़ा ना भैया…सबसे बड़ा रुपइया…।’
नगर निगम या निकाय चुनावों में प्रत्याशिता का दावा करने वाले जिन कार्यकर्ताओं को मौका नहीं दिया गया वो खुलकर बोल रहे है कि दावेदारी में काम नहीं बल्कि रुपया बोला है। इसके साथ ही मायूसी भरे चेहरे में अपनी खीज मिटाते हुए बोले कि भाई अब तो लगभग सभी दल एक जैसे ही दिख रहे हैं। क्योंकि टिकट तो उन्हीं को मिला है जो या तो जोड़तोड़ यानी कि ‘साम-दाम-दण्ड-भेद’ से काम करने में कामयाब रहे या फिर ‘प्रत्याशिता की बोली’ बोलने में।
हालांकि उनकी बात सच भी दिख रही है क्योंकि जो कार्यकर्ता ‘दावेदारी’ की लालसा में पार्टी के लिए दिनरात एक किए रहे उन्हें ऐन वक्त पर ‘दूध में गिरी मक्खी’ की तरह फेंक दिया गया और ऐसा लगभग सभी दलों में देखने को मिल रहा है। वहीं सुनहरा मौका उन्हें मिल गया जो पार्टी के कार्यक्रमों में कभी दिखे ही नहीं। साथ ही यह भी देखने को मिल रहा है कि जो लोग अपनी शराफत को लिए घूमते रहे उन्हें नजरअन्दाज कर दिया गया और जो दबंगता की आड़ ले ‘मनीराम’ का झोला थमाने में आगे रहे उन्हें ही प्रत्याशी बना दिया गया। तमाम लोग ऐसे भी दिखे जिनके नाम मतदाता सूची से गायब पाये गए तो उन्होंने विरोधियों पर आरोप लगाया कि ‘उनका’ नाम कटवा गया क्योंकि विरोधी जानते थे कि ‘फलाने’ ही जीत सकता है। मतदाता सूची में नाम गायब होने के चलते जो लोग दावेदारी नहीं कर सके उनका चेहरा भी देखने लायक ही था।
अब बेचारे क्या करते पार्टी भक्त…? तो उन्होंने निर्दलीय ही चुनाव लड़ने का दम भर दिया। हालांकि हर चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी तो देखने को मिलते हैं। साथ ही तमाम निर्दलियों को जनता अपना प्रतिनिधि भी बना लेती है।
इसके बाद तमाम ऐसे नजारे भी देखने को मिलते हैं कि जब निर्दलीय के नाम पर जीत पाकर वो ‘कुछ’ के चक्कर में दलीय राजनीति का दामन थाम लेते हैं और जनता भावनाओं की अनदेखी कर देते हैं क्यों कि अगर उस क्षेत्र की जनता किसी दल को अच्छा मान रही होती तो दलीय प्रत्याशी को क्यों नहीं जिताया, निर्दलीय को ही क्यों जिताया? वहीं क्षेत्र की जनता को भी स्थानीय चुनावों में यह ध्यान देना चाहिए कि वो जिसे अपना वोट दे रहे हैं, उसे क्यों दे रहे हैं।