आंकड़े सिर्फ आहट की दस्तक नहीं देते, बल्कि सच्चाई से रूबरू कराते हैं। देश में लिंग-अनुपात के लगातार कम होने के जो आंकड़े हमारे सामने आ रहे हैं, वे न सिर्फ हमारी मानसिकता बताते हैं। यहां तक हमारे समाज के दो- अर्थी व्यहवार को भी व्यक्त करते हैं। साथ- साथ यह भी पता चलता है, कि कन्याभ्रूण हत्या रोकने और अन्य स्तर पर लड़कियों को सुरक्षा देने के सरकारी और गैर-सरकारी प्रयास निरर्थक ही साबित हो रहें हैं। मध्यप्रदेश प्रदेश सरकार भले ही प्रदेश के हर घर की लाड़ली को लक्ष्मी बनाने का अथक प्रयास कर रही हो, लेकिन जमीनी हकीकत में लड़कियां 28 दिन भी साँसें नहीं ले पाती । मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार जहां सूबे में लड़के की मृत्यु दर में 14.6 प्रतिशत की दर से गिरावट आ रही है, वहीं घर की लाड़ली बन रहीं लड़कियों की मृत्युदर में मात्र 1.6 फीसदी की मामूली गिरावट यह दर्शाता है, कि नीति-निर्धारक कितने भी कानून का एलान कर दे, लेकिन लैंगिक भेदभाव समाज से दूर किए बिना लड़कियों की संख्या सूबे क्या पूरे देश में लड़कों के बराबरी पर नहीं आ सकती।
बात चाहें मध्यप्रदेश की हो, या पूरे देश की। पुरुष प्रधान सोच देश से अभी निकल नही पाई है। भले ही देश ने केंद्रीय सत्ता में महिला को प्राश्रय 50 वर्ष पूर्व ही दे चुकी हो, लेकिन महिला सशक्तिकरण के मामले में देश विकसित देशों के मामले में काफी पीछे है, और देश के भीतर मध्यप्रदेश राज्य। एक कहावत है, हाथ कंगन को आरसी क्या, और पढ़े-लिखे को फारसी क्या। ऐसे में सूबे की महिलाओं की स्थिति क्या स्थिति है, वह बताने की शायद आवश्यकता नहीं। फिर भी आंकड़ों के सागर में अगर गोता लगाते हैं, तो पता चलता है, कि देश में महिला सशक्तिकरण की दिशा में मध्यप्रदेश राज्य आज के वक्त भी काफी पिछड़ा हुआ है। तभी तो महिलाओं को शिक्षा, स्वास्थ्य, और सुरक्षा प्रदान करने के मामले में मध्यप्रदेश देश के अन्य राज्यों से काफी दूर मामूल पड़ता है। उससे भी दुःखद बात यह है, कि केंद्र की जो भाजपा सरकार सत्ता में ही बहुत हुआ महिलाओं पर अत्याचार, अबकी बार मोदी सरकार के नारे पर आई । उसी पार्टी के शासित राज्य में महिलाओं की अस्मिता के साथ सबसे ज्यादा खिलवाड़ होता आ रहा है। अभी बीते दिनों की घटना है, जब प्रदेश अपने स्थापना दिवस की रंगीनियों में धूमिल था, तभी राजधानी में एक लड़की दरिंदगी का शिकार हो जाती है। फिर सूबे में महिलाओं की क्या सामाजिक स्थिति है, उसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
वैसे एक कहावत है, प्रत्यक्षम किं प्रमाणं। यानी प्रत्यक्ष को प्रमाण की जरुरत नहीं। फिर सुबे की महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक स्थिति का जायजा पेश करना जरूरी हो जाता है। एक ओर जहां महिलाओं की शिक्षा के क्षेत्र में राज्य पिछडा है, वही महिलाओं के खिलाफ अपराध में सूबे का नाम शुरुआती फेहरिस्त में आता है। 2011 के आंकड़े के मुताबिक जहां राज्य में महिलाओं की साक्षरता दर लगभग राष्ट्रीय आंकड़े से 5 फीसद से अधिक कम है, वहीं 2015 की एनसीआरबी रिपोर्ट कहती है, कि सूबें में देश के मुकाबले सबसे अधिक दुष्कर्म की घटनाएं घटित हुई। यह घटना जहां सूबे की सामाजिक परिस्थिति को घात पहुंचा रही है। वही दूसरी ओर यह जगजाहिर भी करती है, कि सूबे में अपराधिक छवि वाले सड़कछापों में पुलिस महकमें का कोई ड़र नहीं रहा है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरों 2015 के मुताबिक मध्यप्रदेश सूबा महिलाओं की सुरक्षा के मामलें में सबसे दयनीय और लचर स्थिति में है। सूबे में रेप जैसी सामाजिक बुराईयां घर करती दिख रही हैं। महिलाओं और बालिका हितैषी कार्ययोजनाओं के संचालित होने के बावजूद अगर सूबे में माॅ-बहनों की आबरू सुरक्षित नहीं है, तो यह सभ्य समाज की दृष्टि से भी उचित नहीं है। महिलाओं और बहनों को भयमुक्त वातावरण प्रदान करने की दिशा में सरकार को सकारात्मक कदम उठाने होंगें? एनसीआरबी की रिपोर्ट 2014-15 के अनुसार मध्यप्रदेश में दुष्कर्म की लगभग 4400 घटनाएं दर्ज हुई। इन आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं, तो पता चलता है, कि इस दौरान सूबे में प्रतिदिन 12 युवतियों के साथ ज्यादती हुई। वैश्विक लैंगिक असमानता रिपोर्ट के तहत स्वास्थ्य, शिक्षा, अर्थव्यवस्था और राजनीति के क्षेत्र में महिला और पुरुष के बीच भेदभाव मिटाने में मिली सफलता का आकलन किया जाता है। जिसमें अगर देश 100वें स्थान पर है, तो यह चिंता का विषय है, और इसके साथ हाल में आई, महिला व बाल विकास मंत्रालय की रिपोर्ट देश के बड़े और अहम राज्यों में महिलाओं की हालत को लेकर उनके प्रदर्शन पर सवाल खड़ा करती हैं? और बीमारु राज्य की श्रेणी में आने वाले मध्य प्रदेश को इस सर्वे की रिपोर्ट में 10 असुरक्षित राज्यों में 0.463 अंक के साथ पांचवें स्थान पर रखा गया है, यानी महिलाओं की दशा सूबे में सुरक्षित और आजाद नहीं है। जिसमें सुधार के लिए सूबे की राजनीति को सोचना चाहिए।