खाने-पीने की चीजों से लेकर जिस तरह पेट्रोल, डीजल व रसोई गैस की कीमतों में बढ़ोत्तरी हो रही है, वह चिंता की एक बड़ी वजह है। इसके लिये कहीं न कहीं केंद्र और राज्य सरकारों का मुनाफाखोर आचरण पूरी तरह से जिम्मेदार है। पांच राज्यों में सम्पन्न हुए चुनावी दौरान पेट्रोल-डीजल की कीमतों में कोई बढ़ोत्तरी ना करने के पीछे मतदाताओं की नाराजगी से बचने हेतु एक मजबूरी थी और जैसे ही नतीजे आ गये, मतलब निकला तो मंशा उजागर हुई और परिणामतः पेट्रोलियम पदार्थाे में लगभग हर रोज बढ़ोत्तरी जारी है।
इसमें कतई दो राय नहीं कि पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ने का सीधा असर महंगाई पर पड़ता है और गरीब तबके व हाशिये पर मौजूद तबके के लिए ज्यादा मुश्किलें बढ़ती जातीं हैं। वर्तमान में देश में पेट्रोल, डीजल की कीमतें रोजाना बदलना व बढ़ना शुरू हो गई हैं। जो निरन्तर जारी रहने की उम्मीद है। वहीं पिछले वर्षाे की बात करें तो पूरी दुनियाँ में कोविड-19 महामारी के चलते क्रूड की कीमतें नीचे आई थीं लेकिन भारत में ईंधन के दाम कम नहीं किये गये थे।
केन्द्र सरकार एक तरफ तो बड़े उद्योगों व नौकरीपेशा के हित के लिए समय-समय पर राहत के पैकेज घोषित किया करती है लेकिन जिस पेट्रोल और डीजल की कीमतों की बढ़ोत्तरी के चलते समूची अर्थव्यवस्था प्राथमिक स्तर से ही प्रभावित होना शुरू हो जाती हैं उनके बारे में वह बेहद असंवेदनशीलता का परिचय दे रही है। इस असंवेदनशीलता का शिकार हर वर्ग हो रहा है लेकिन मध्यमवर्गीय तबका सबसे ज्यादा हुआ है और हो रहा है ?वास्तव में सरकारों के लिए पेट्रोल, डीजल कमाई का सबसे बढिय़ा जरिया हैं। जिसका फायदा उठाने से वह कतई संकोच नहीं कर रही है, किसी भी मौके पर छोड़ना भी नहीं चाहती है।
विचारणीय यह है कि कोरोना महामारी के दौरान क्रूड के दाम नीचे आए थे ऐसे में इसी हिसाब से पेट्रोल व डीजल के दाम भी गिरने चाहिए थे, लेकिन केन्द्र सरकार ने ऐसा नहीं होने दिया था। इसके पीछे का कारण यह भी कह सकते हैं कि भय का माहौल रहा और आम जन किसी धरना प्रदर्शन से दूर रहने में ही अपनी भलाई समझता है।
बताते चलें कि पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में 10 फीसदी की बढ़ोत्तरी से खुदरा महंगाई दर में 20 आधार अंक यानी 0+2 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो सकती है। आंकड़ों पर नजर डाली जाए तो महंगाई दर बढ़ती ही जा रही है और सम्भावना यह है कि आने वाले महीनों में यह और बढ़ेगी। जिसके देश की जनता को पूरी तरह से तैयार रहना होगा।
रसोई गैस, कामर्सियल गैस, सीएनजी, पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों से उत्पादन की लागत बढ़ जाना सामान्य बात है। उत्पाद की बढ़ी हुई कीमतें सीधे तौर पर प्रतिस्पर्धा की क्षमता को प्रभावित करती हैं। देश का 70 प्रतिशत से ज्यादा ट्रांसपोर्ट उद्योग पेट्रोलियम पदार्थों पर ही निर्भर करता है और पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों से हर क्षेत्र में असर पड़ता है। छोटे उद्यमियों की मानें तो पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतें आने वाले समय में उनके लिए कई मुसीबतें एक साथ लाने वाली हैं। लेकिन सरकारों से भय के चलते वो खुलकर बोलने से बचते हैं।
गौरतलब हो कि कोरोना की वजह से उत्पादन का मुनाफा पहले से ही दबाव में है। यह दबाव और बढऩे पर हर क्षेत्र के उत्पादक वस्तुओं की कीमतें बढ़ाएंगे, जिससे महंगाई और बढ़ेगी। इस कारण से अन्य वस्तुओं की मांग में कमी आएगी, जो रिकवरी के इस दौर में अच्छी बात नहीं है। महंगाई बढऩे से मैन्युफैक्चरिंग में तेजी लाने के प्रयास भी प्रभावित होंगे। पेट्रोल-डीजल की कीमतों में बढ़ोत्तरी का सिलसिला अगर ऐसे ही चलता रहा तो खतरनाक चक्र पैदा हो सकता है। इसके चौतरफा नकारात्मक असर को थामना किसी के लिये भी बहुत आसान नहीं होगा। इसके लिये केन्द्र सरकार पूरी तरह से जिम्मेदार है जो दूरगार्मी नजरिये से सिर्फ बड़े उद्योगपतियों के लिये फायदे मन्द साबित हो रही है। वहीं तत्काल में भले ही फ्री का राशन पाकर हासिये पर खड़े लोग खुश हो लें, लेकिन भविष्य के लिये ये एक शुभ संकेत नहीं माना जा सकता है। देर सबेर केन्द्र सरकार की नीतियों का खामियाजा उन्हें भी भुगतना पड़ेगा।
भले ही केन्द्र सरकार यह दावा करती है कि पेट्रोल-डीजल की कीमतें अंतर्राष्ट्रीय उतार-चढ़ाव पर निर्भर करती हैं लेकिन भारत में केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा पैट्रोलियम पदार्थों पर जितना कर (टैक्स) लगाया जाता हैै वह विकसित देशों को तो छोड़ दें, भारत से आकार में और आर्थिक दृष्टि से कमजोर छोटे-छोटे देशों तक की तुलना में बहुत ज्यादा है जिसके आंकड़े किसी से छिपे नहीं हैं। नतीजा सामने है कि ईंधन की कीमतें देश के हर राज्य में अलग-अलग हैं। ये राज्य की वैट दर या स्थानीय करों पर निर्भर करती हैं। इसके अलावा इसमें केंद्र सरकार के टैक्स भी शामिल होते हैं। दूसरी ओर क्रूड आयल की कीमतों और फोरैक्स रेट्स का असर भी इन पर होता है। वहीं सरकारी करों की विसंगति का प्रमाण ही है कि विभिन्न राज्यों में पेट्रोल-डीजल के दाम अलग-अलग हैं।
हालांकि पेट्रोल-डीजल की बढ़ी कीमतों के लिए आम तौर पर केंद्र सरकार को जिम्मेदार बताया जाता है जबकि जमीनी सच्चाई यह भी है कि राज्य सरकारें भी इस बारे में कम कसूरवार नहीं हैं।
अब जबकि पेट्रोल-डीजल के दाम सौ रुपए का आंकड़ा पार कर चुके हैं। कहीं कहीं एक सौ दस-बारह रुपये प्रति लीटर है। ऐसे में केंद्र सरकार ने अपना पल्ला झाड़कर मामला पैट्रोलियम कंपनियों पर छोड़ दिया है जोकि पूरी तरह से गैरजिम्मेदाराना व असंवेदनशीलता का परिचायक है। वहीं यह विश्लेषण होना चाहिए कि लम्बे लॉकडाऊन के बाद भी पेट्रोलियम कम्पनियों ने आखिर जबरदस्त मुनाफा कमाया है और जब कमा लिया है तब अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौटने के साथ ही उन्हें भी दाम घटाकर देश की आम जनता को राहत देने की उदारता दिखानी चाहिए अर्थात निश्चित तौर पर सरकार के पास पेट्रोलियम उत्पादों के दाम घटाने के विकल्प हैं। इनमें कीमतों को डी-रैगुलेट करने और इन पर टैक्स घटाने के विकल्प शामिल हैं। लेकिन केन्द्र सरकार मदमस्त है और उद्योगपतियों के हितार्थ सुनियोजित तरीके से फैसले ले रही है। वहीं केन्द्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारें भी आम जनता को चारो तरफ से चूसने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहीं।
लेखक-श्याम सिंह पंवार