Friday, June 6, 2025
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लेख/विचार

दिहाड़ीदार मजदूरों की दुर्दशा के लिए जिम्मेवार कौन ?’

बदलते दौर में विभिन्न आपदाओ के कारण सबसे बड़ा संकट दिहाड़ीदार मजदूरों के लिए हुआ है। जिनके बारे देश के अंदर बहुत ही कम चर्चा हुई और इनकी आर्थिक सहायता के लिए देश की सरकार ने कुछ नहीं सोचा। कोई संदेह नहीं कि देश का मजदूर वर्ग सबसे ज्यादा शोषण का शिकार है। दिहाड़ीदार मजदूर के लिए भरण-पोषण का संकट खड़ा हो गया है। शहरों में रोजी-रोटी की तलाश में आने वाले मजदूर भूख से मर रहें है दिहाड़ीदार मजदूरों के लिए जिम्मेवार कौन है ? देशभर में करोड़ों लोग दिहाड़ीदार श्रमिक हैं। एक मजदूर देश के निर्माण में बहुमूल्य भूमिका निभाता है।
किसी भी समाज, देश संस्था और उद्योग में काम करने वाले श्रमिकों की अहमियत किसी से भी कम नहीं आंकी जा सकती। इनके श्रम के बिना औद्योगिक ढांचे के खड़े होने की कल्पना नहीं की जा सकती। दिहाड़ीदार मजदूर की गतिविधियों या डेटा के संग्रह को किसी कानूनी प्रावधान के तहत संजोकर नहीं रखा जाता है मतलब ये की सरकार इनका खाता नहीं रखती है। इन दिहाड़ीदार मजदूरो/अनौपचारिक / असंगठित क्षेत्र का जीडीपी और रोजगार में योगदान के मामले में भारतीय अर्थव्यवस्था में प्रमुख स्थान है। देश के कुल श्रमिकों में से, शहरी क्षेत्रों में लगभग 72 प्रतिशत दिहाड़ीदार/अनौपचारिक क्षेत्र में लगे हुए हैं।
शहरी विकास में दिहाड़ीदार/अनौपचारिक क्षेत्र का महत्व बहुत ज्यादा है। भारत के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 500 मिलियन श्रमिकों के भारत के कुल कार्यबल का लगभग 90ः अनौपचारिक क्षेत्र में लगा हुआ है। यही नहीं प्रवासी दिहाड़ीदार मजदूर न केवल आधुनिक भारत, बल्कि आधुनिक सिंगापुर, आधुनिक दुबई और हर आधुनिक देश का निर्माता है जो आधुनिकता की ग्लैमर सूची में खुद को ढालता है। भारत में शहरी अर्थव्यवस्था विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के अनुरूप है, जो अनौपचारिक श्रमिकों दिहाड़ीदार मजदूरों और असंगठित क्षेत्र द्वारा लाइ गई है। देखे तो यही वो बैक-एंड इंडिया है जो आधुनिक अर्थव्यवस्था के पहियों को चालू रखने के लिए फ्रंट-एंड इंडिया को दैनिक जरूरत का समर्थन प्रदान करता है।

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आखिर क्यों धधक रही है पृथ्वी?

⇒विश्व पृथ्वी दिवस (22 अप्रैल) पर विशेष
न केवल भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर तापमान में लगातार हो रही बढ़ोतरी तथा मौसम का निरन्तर बिगड़ता मिजाज गंभीर चिंता का सबब बना है। हालांकि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए विगत वर्षों में दुनियाभर में दोहा, कोपेनहेगन, कानकुन इत्यादि बड़े-बड़े अंतर्राष्ट्रीय स्तर के सम्मेलन होते रहे हैं किन्तु उसके बावजूद इस दिशा में अभी तक ठोस कदम उठते नहीं देखे गए हैं। दरअसल वास्तविकता यही है कि राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर प्रकृति के बिगड़ते मिजाज को लेकर चर्चाएं और चिंताएं तो बहुत होती हैं, तरह-तरह के संकल्प भी दोहराये जाते हैं किन्तु सुख-संसाधनों की अंधी चाहत, सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि, अनियंत्रित औद्योगिक विकास और रोजगार के अधिकाधिक अवसर पैदा करने के दबाव के चलते इस तरह की चर्चाएं और चिंताएं अर्थहीन होकर रह जाती हैं।

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मकड़ी का वह जाला है कानून, जिसमें कीड़े-मकोड़े तो फंसते हैं लेकिन बड़े जानवर उसे फाड़ कर आगे निकल जाते हैं !

मान्यता है कि बुरे काम का बुरा नतीजा। सरकार दमदार हो और पत्रकार के इरादे फौलाद हो तो अपराधियों का बचना मुश्किल हो जाता है लेकिन अगर अपराधियों का राजनीतिकरण ही हो जाये तो यही काम उतना मुश्किल हो जाता है क्योंकि सरकारें स्वतः अपने हाथ अनैतिक कारनामों से रंग चुकी होतीं हैं। आप आंख उठा कर देख लें, अनेक गुंडे आज सफेद चोला पहन कर सदन में बैठे हैं।
एक तरफ मामूली से माफिया को अंडरवर्ल्ड बनाकर प्लांट करते हुए मिट्टी में मिलाया जाएगा तो दूसरी ओर हिस्ट्रीशीटर नेता जिला कप्तान के साथ बैट-बल्ला खेलता भी दिखाई देगा यानी बिल्ली चूहे के साथ ही जाम लड़ा रही है। इस आचरण को भी नजरअंदाज नही किया जा सकता है।
जैसे एक उदाहरण के रूप में हार्डेंड क्रिमिनल की हरियाणा सरकार द्वारा घोषित परिभाषा देखिए। वहां हरियाणा सरकार का लिखा-पढ़ी में दिया गया तर्क है कि गुरमीत रामरहीम को वह इसलिये बार-बार पैरोल पर छोड़ रही है क्योंकि वह कोई हार्डेंड क्रिमिनल नहीं है, इसी समाचार में इस अपराधी का निम्नांकित आपराधिक इतिहासभी बताया गया है-

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साहित्य का बेड़ा गर्द कर रहे है साहित्यिक ग्रुप्स

आजकल फेसबुक पर साहित्यिक ग्रुपों की लाईन लगी है जो कि साहित्य और लेखन को बढ़ावा देने हेतु बहुत ही सराहनीय कार्य है। इन ग्रुपों में नियमित रुप से लेखकों के बीच प्रतियोगिता का आयोजन भी होता है और तीन से पाँच प्रतिभागियों को चुनकर विजेता घोषित करके प्रशस्ति पत्र से सम्मानित भी किया जाता है। कभी-कभी तो सारे मेम्बर्स को विजेता घोषित करके प्रशस्ति-पत्र बाँटे जाते है! पर, यहाँ देखा जाता है कि न रचना का स्तर देखा जाता है, न गलतियों पर गौर किया जाता है। या तो रचना लय में ही नहीं होती है या बीस लाईन की रचना में व्याकरण की 10 त्रुटियाँ होती है। जब ऐसी रचनाओं को विजेता घोषित किया जाता है, तब ऐसा लेख लिखने को मन बेचैन हो उठता है।
पता नहीं रचना के किस पहलू का मूल्यांकन करके निर्णय लिया जाता है, ताज्जुब होता है। साहित्य के स्तर को इतना गिरा हुआ देखकर दुःख भी होता है। वैसे संचालक मंडल भी क्या करें ? अब हर रोज़ तो कुछ एक अच्छा लिखने वालों को विजेता घोषित नहीं कर सकते! इसलिए सबको खुश रखने के चक्कर में फालतू से फालतू रचनाओं को विजेता घोषित करके ये साहित्यिक ग्रुपों वाले साहित्य का बेड़ा गर्द कर रहे है और सम्मान पाकर सामान्य और निम्न स्तरीय लिखने वाले लेखक भी खुद को महान समझते उसी ढंग से लिखना चालू रखते हैं।
अगर साहित्य को बढ़ावा ही देना है तो ग्रुप को एक स्कूल की तरह बनाईये। कमज़ोर रचनाकारों की गलतियों और व्याकरण त्रुटियों को नजर अंदाज़ करने की बजाय सुधारकर लिखने को बोलिए। लेखन की शैली, शब्दों का चयन, काफ़िये का मिलना, प्रास का जुड़ना ऐसे हर पहलू को जाँच कर परिणाम घोषित करना चाहिए। मेम्बर्स को जोड़े रखने की नीति और सारे लेखकों को खुश रखने की लालच साहित्य की धज्जियां उड़ा रही है।

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पेंशन…. जायज मांग

पुरानी पेंशन बहाली की जंग हिमांचल से लेकर कर्नाटक तक फैली हुई है लेकिन कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं है। लोग नई पेंशन योजना के बजाय पुरानी पेंशन योजना को ही लागू करने की मांग कर रहे हैं। पुरानी पेंशन योजना के मसले पर सरकार की चुप्पी की क्या वजह हो सकती है? परिवार का एक मुख्य व्यक्ति जिसकी आय से पूरा घर परिवार का खर्च चलता है और बुढ़ापे में आय का स्त्रोत बंद हो जाने पर उसके गुजर-बसर की समस्या उत्पन्न होने पर वो क्या करे? दूसरे बुढ़ापे में काम ना कर पाने की लाचारी के चलते आर्थिक विषमता का भी सामना करना पड़ता है। बुजुर्गों को पेंशन देना सरकार का फर्ज है ताकि बुढ़ापे में बुजुर्ग अपने खर्च वहन कर सके और वो आर्थिक रूप से मजबूत बनी रहे।
केंद्र सरकार का यह कहना कि पेंशन देने से राजस्व पर भार पड़ता है तो यह बिल्कुल बेमानी बात है, इससे ज्यादा खर्च तो चुनाव प्रचार में हो जाता है जिसका कोई हिसाब किताब नहीं होता है। दूसरे सांसदों और विधायकों को जो पेंशन मिलती है उसमें कटौती क्यों नहीं की जाती? विधायकों और सांसदों को दी जाने वाली सुविधाओं में भी कटौती क्यों नहीं की जाती?

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नाज़ है वतन को

वतन पर कुर्बान होने वाले तनय मेरे है ज़िंदाबाद तू, सरहद की सीमाओं को सदियों तक रहेगा याद तू, नाज़ है वतन को तुझ पर है माँ भारत की प्यारी औलाद तू।
मैं उस औलाद का पिता हूँ जिसने मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने आप को कुर्बान कर दिया, सीने पर गोली खाकर दुश्मनों को मात दी और जग में मेरा नाम रोशन किया। आज बेटे के शहीद होने पर खुद को भाग्यशाली समझने वाला मैं कितना डरता था बेटे को फौज में भेजने से, सच में स्वार्थी था मैं। पर कौनसा बाप जीते जी अपने बेटे को मौत की कगार पर भेज दे, जहाँ पर ज़िंदगी का कोई भरोसा नहीं होता, कभी भी मौत बिना दस्तक दिए आ धमकती है। मानवीय मूल्यों में मोह अग्रसर होता है, मुझे भी अपने बेटे राहुल के प्रति बेतहाशा लगाव और मोह था।
एक बार उसकी स्कूल में फैशन ड्रेस प्रतियोगिता थी, राहुल ने कहा पापा में फौजी बनूँगा एक रायफल और वर्दी खरीद कर दीजिए न, सारे दुश्मनों को यूँ मार दूँगा। उस पर राहुल को मैंने एक थप्पड़ लगाते कहा था खबरदार फौजी बनने का ख़याल भी मन में लाया तो, बनने के लिए और बहुत सारे किरदार है समझे। उस वक्त तो राहुल चुप हो गया पर कहते है न पुत्र के लक्षण पालने में ही दिख जाते है। राहुल के मन ने बचपन से जैसे ठान लिया था एक सिपाही बनना। ग्रेजुएट ख़त्म होते ही मैंने कहा और, आगे कौनसी लाईन लेना चाहता है मेरा बेटा? राहुल बोला पापा मैं आर्मी ज्वाइन करना चाहता हूँ। सुन कर ही मेरा खून जम गया। आज तो मैं हाथ भी नहीं उठा सकता था बेटा जवान जो हो गया था। दिल एक धड़क चूक गया, बेटे को खोने के डर से तन पसीज गया। मैंने कहा बेटा और कोई भी क्षेत्र चुन लो मैं तुम्हें फौज में नहीं जाने दूँगा, तू मेरा इकलौता बेटा है कल को तुझे कुछ हो गया तो मैं क्या करूँगा? तुम्हारी माँ भी नहीं रही मैं तो बिलकुल अकेला रह जाऊँगा, नहीं-नहीं मैं तुम्हें सरहद पर मरने नहीं भेज सकता।

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क्या है हिन्दू फोबिया का कारण ?

हिन्दू धर्म या सनातन संस्कृति जिसकी जड़ें संस्कारों के रूप में, परम्पराओं के रूप में भारत की आत्मा में अनादि काल से बसी हुई हैं।
ये भारत में ही होता है जहाँ एक अनपढ़ व्यक्ति भी परम्परा रूप से नदियों को माता मानता आया है और पेड़ों की पूजा करता आया है
आज जहां एक तरफ देश में हिन्दू राष्ट्र चर्चा का विषय बना हुआ है। तो दूसरी तरफ देश के कई हिस्सों में रामनवमी के जुलूस के दौरान भारी हिंसक उत्पात की खबरें आती हैं। एक तरफ हमारे देश में देश में धार्मिक असहिष्णुता या फिर हिन्दुफोबिया का माहौल बनाने की कोशिशें की जाती हैं तो दूसरी तरफ अमेरिका की जॉर्जिया असेंबली में ‘हिंदूफोबिया’ (हिंदू धर्म के प्रति पूर्वाग्रह) की निंदा करने वाला एक प्रस्ताव पारित किया जाता है। इस प्रस्ताव में कहा जाता है कि ‘हिंदू धर्म दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे पुराना धर्म है और दुनिया के 100 से ज्यादा देशों में 1.2 अरब लोग इस धर्म को मानते हैं। यह धर्म स्वीकार्यता, आपसी सम्मान और शांति के मूल्यों के साथ विविध परंपराओं और आस्था प्रणालियों को सम्मिलित करता है। हिन्दू धर्म के योग, आयुर्वेद, ध्यान, भोजन, संगीत और कला जैसे प्राचीन ज्ञान को अमेरिकी समाज के लाखों लोगों ने व्यापक रूप से अपना कर अपने जीवन को सुधारा है।’ एक रिपोर्ट के अनुसार 3.6 करोड़ अमरीकी योग करते हैं और 1.8 करोड़ ध्यान लगाते हैं।

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विशेष लेख: अंतरिक्ष में इसरो के बढ़ते कदम

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) अंतरिक्ष की दुनिया में निरन्तर नए-नए इतिहास रच रहा है। पिछले कुछ वर्षों में इसरो के वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष में कई बड़े मुकाम हासिल किए हैं और अब इसरो ने पिछले दिनों कुल 5805 किलोग्राम वजनी 36 उपग्रह एक साथ लांच कर एक बार फिर नया इतिहास रच दिया। इसरो के बाहुबली कहे जाने वाले सबसे भारी भरकम प्रक्षेपण यान ‘एलएमवी3’ (लांच व्हीकल मार्क-3) ने ब्रिटिश कम्पनी के इन उपग्रहों को लेकर आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा में सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र से उड़ान भरी और इन उपग्रहों को लो अर्थ ऑर्बिट (एलईओ) पर लांच कर दिया। इसरो द्वारा इस रॉकेट मिशन कोड का नाम एलएमवी3-एम3/वनवेब इंडिया-2 मिशन रखा गया था। रॉकेट लांच होने के 19 मिनट बाद ही उपग्रहों के अलग होने की प्रक्रिया शुरू हो गई थी और सभी 36 उपग्रह अलग-अलग चरणों में पृथक हो गए। लो अर्थ ऑर्बिट पृथ्वी की सबसे निचली कक्षा होती है और ब्रिटेन (यूके) स्थित नेटवर्क एक्सेस एसोसिएटेड लिमिटेड (वनवेब) के 36 उपग्रहों को अंतरिक्ष में स्थापित करने के बाद अब पृथ्वी की निचली कक्षा में उपग्रहों के समूह की पहली पीढ़ी पूरी हो गई है। इस सफल अभियान से दुनिया के प्रत्येक हिस्से में स्पेस आधार ब्रॉडबैंड इंटरनेट योजना में मदद मिलेगी। इस वर्ष फरवरी माह में एसएसएलवी-डी2/ईओएस07 मिशन के सफल लांच के बाद इसरो का यह दूसरा सफल लांच था।

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बदलाव जरूरी है

सालभर देश में कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं और चुनावी सरगर्मियां तेज करने के लिए कोई न कोई घटनाएं घटती रहती हैं। घटती हुई घटनाएं और बदलते हुए परिप्रेक्ष्य 2024 की आहट देते महसूस हो रहे हैं।
देश में घटनाएं कितनी तेजी से घट रही हैं साथ ही घटनाओं पर प्रतिक्रियाएं भी। कोई भी घटना स्थिर नहीं रह पाती है। उस पर विवाद, टिप्पणियां चलती रहती हैं और जैसे ही नियम कानून के फैसले की बात आती है तब तक एक दूसरी घटना घट चुकी होती है। लोग पुरानी घटना को भुलाकर नई घटना पर अपना ध्यान केंद्रित कर लेते हैं। नोटबंदी, काला धन, बैंक घोटाले, नेताओं की मनमर्जियां, अभद्र टिप्पणियां, चुनावी हमले, अभद्र बयानबाजी, धर्मांधता, संसद में हंगामा, अडाणी मामला इन पर लगातार घटनाएं घट रही हैं और प्रतिक्रिया स्वरुप अन्य घटना घट जा रही है। एक घटना पर फैसला लंबित रहता है कि दूसरी अचंभित कर देती है। इन सारे मुद्दों में अभी तक कोई हल नहीं निकला है बस दबा दी गई है जैसे सरकारी दफ्तरों में फाइलें एक टेबल से दूसरे टेबल पर सरकती रहती है और धूल खाती रहती है और मीडिया भी सवाल पूछने से ज्यादा मामले को ढकने में ज्यादा दिलचस्पी दिखाती है।
और यदि आज के मौजूदा हालात पर नजर डालें तो विपक्ष ने जो सवाल पूछा वो गलत नहीं था और सवाल पूछने का हक तो सांसद के साथ-साथ जनता को भी है लेकिन सवाल पूछने का खामियाजा संसद की सदस्यता समाप्ति और पंद्रह हजार जुर्माना मिला।

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2025 तक भारत में जलसंकट बहुत बढ़ जाएगा ?

संयुक्त राष्ट्र की संस्‍था यूनेस्को की रिपोर्ट के अनुसार, 2025 तक भारत में जलसंकट बहुत बढ़ जाएगा। अनुमान है कि ऐसे संकट से भारत सबसे ज्यादा प्रभावित होगा। आशंका जताई गई है कि यहां पर ग्लेशियर पिघलने के कारण सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी प्रमुख हिमालयी नदियों का प्रवाह कम हो जाएगा। न्छम्ैब्व् के डायरेक्‍टर आंड्रे एजोले ने कहा कि वैश्विक जल संकट से बाहर निकलने से पहले अंतर्राष्ट्रीय स्‍तर पर तत्काल एक व्यवस्था करने की जरुरत है।
अब सवाल इस बात का है कि जल संकट के इस तरह के डरवाने रिपोर्ट को पढ़ने और देखने के बाद भी भारतीयों को चिंता क्यों नही हो रही है। क्या भारत के प्रत्येक नागरिक को यह विश्वास है कि देश में पानी की कमी नही होगा या फिर यह जानते हुए कि आने वाले दिनों में भारत के कई क्षेत्रों में पानी के लिए त्राहिमाम मचेगा उसके बाद भी लोग अभी से नही चेत रहे हैं।
इस समय भारत की कई छोटी-छोटी नदियां सूख गई हैं, वहीं गोदावरी, कृष्णा एवं कावेरी जैसी बड़ी नदियों के जल संग्रहण में भारी कमी आई है एवं बड़ी-बड़ी नदियों में पानी का प्रवाह धीमा होता जा रहा है। इसके अलावा जिन कुओं से पीने एवं सिंचाई के लिए पानी मिलता था आज वह भी लुप्त हो रहे हैं जिसका परिणाम है कि आज से ही पानी के लिए देश में संकट दिखाई देने लगा है।

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