दुनिया के सभी विषैले जंतुओं की अगर बात करें तो उनमें सबसे खतरनाक व जानलेवा दंश सर्प दंश का ही होता है। जिसमें व्यक्ति की मृत्यु कुछ ही मिनटों में हो जाती है। हालांकि सभी सांपों के दंश एक जैसे नहीं होतें, कुछ तंत्रिका तंत्र को, कुछ रुधिर को और कुछ रुधिर व तंत्रिका तंत्र दोनों को आक्रांत करते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में सर्प दंश से होने वाली मृत्यु के आंकड़ें बेहद ही चौकाने वाले हैं। भारत में पिछले बीस सालों के रिकार्ड पर अगर गौर करें तो यहाँ सर्प दंश से मरने वालों की संख्या तकरीबन 12 लाख के आस-पास हैं। जिनमें अगर सर्प दंश से मरने वाले व्यक्तियों के उम्र की बात करें तो तकरीबन उनमें आधे लोग 30 साल से लेकर 69 साल के करीब हैं, जबकि सर्प दंश से मरने वालों में बच्चों की संख्या लगभग एक चौथाई है। सर्प दंश से होने वाली अधिकतर मौतें रसेल्स वाइपर, करैत व नाग के काटने से हो रही हैं, जबकि 12 अन्य सांपों की प्रजातियां हैं, जिनसे बाकी की मौतें हो रही हैं।
लेख/विचार
घरेलू कामगारों की अहमियत कब समझेंगे हम?
इनकी असुरक्षा और हीनता की भावनाएँ किसी के लिए मानवीय दृष्टिकोण वाली क्यों नहीं है -प्रियंका सौरभ
घरेलू कामगारों की बात करते ही मन विचलित हो उठता है और सीने में दर्द भर जाता है कि वो बेचारे कैसे और तरह-तरह के के निम्न स्तर के काम पेट की आग बुझाने के लिए करते है। हर समय गाली-गलौज सहकर भी कम पैसों में ज्यादा कार्य करते रहते है। हमारे देश में घरेलू कामगारों की संख्या करोड़ों में है। एक सर्वे के अनुसार ‘भारत में 4.75 मिलियन घरेलू कामगार हैं, जिनमें से शहरी क्षेत्रों में तीन मिलियन महिलाएँ हैं। भारत में लगभग पाँच करोड़ से अधिक घरेलू कामगार हैं, जिनमें से अधिकांश महिलाएँ हैं। बड़े-बड़े और कस्बों में प्रायः हर पाँचवें घर में कामवाली ‘बाई’ बहुत ही सस्ते दरों में आपको काम करते हुए दिख जाएँगी।
हमारे रोज़मर्रे के जीवन में आस-पास एक ऐसी महिला ज़रूर होती है जो अदृश्य होती है जो हमारे घरों में सुबह-सुबह अचानक से आती हैं, झांड़ू-पोछा करती हैं, कपड़े धोती हैं, खाना बनाती हैं और दिन भर बच्चे-बूढ़ों को भी देखती हैं। मगर वो इतना सब करने के बावजूद हमारे जीवन में रोजमर्रा के कार्यों में होते हुए भी इस तरह से गायब रहती है कि हम उनके बारे में कुछ जानते ही नहीं। या हम उसको कोई खास स्थान नहीं देते? हम नहीं जानते कि वे शहरों में कहां से आई हैं, कहां रहती हैं, वे और कितने घरों में काम करती हैं, कितना कमाती हैं और कैसा जीवन जीती हैं?
रेलवे का निजीकरण रक्त शिराओं को बेचने जैसा होगा
छोटे से फायदे के लिए हम आधी से ज्यादा आबादी का रोजमर्रा का नुकसान नहीं कर सकते -डॉo सत्यवान सौरभ
हादसों की वजह से चर्चा में रहने वाली भारतीय रेल अब कोरोना से उपजे वित्तीय संकट की जद में है। दुनिया के चौथे सबसे बड़े रेल नेटवर्क को पटरी पर लाने के लिए सरकार उसके स्वरूप में बदलाव की तैयारी कर रही है। इसके तहत हजारों पदों में कटौती करने के अलावा नई नियुक्तियों पर रोक लगाने और देश के कई रूट पर ट्रेनों को निजी हाथों में सौंपने जैसे कदम उठाए जा रहे हैं।
देश की ज्यादातर आबादी के लिए भारतीय रेल जीवनरेखा की भूमिका निभाती रही है। निजी हाथों में जाने के बाद सुविधाओं की तुलना में किराए में असामान्य बढ़ोतरी तय मानी जा रही है। रेल देश में सबसे ज्यादा लोगों को नौकरी देने वाला संस्थान है। फिलहाल, इसमें 12 लाख से ज्यादा कर्मचारी काम करते हैं।
देश की अर्थव्यवस्था से लेकर आम जन-जीवन को यह कैसे प्रभावित करेगा यह समझना ज़रूरी है। देश के लिए यह निजीकरण कितना अच्छा है या कितना बुरा है इसपर विचार करना आवश्यक है। भारत की पहली प्राइवेट ट्रेन तेजस एक्सप्रेस के संचालन के बाद अब भारतीय रेलवे ने 151 नई ट्रेनों के माध्यम से निजी कंपनियों को अपने नेटवर्क पर यात्री ट्रेनों के संचालन की अनुमति देने की प्रक्रिया शुरू की है। यह सभी यात्री ट्रेनें संपूर्ण रेलवे नेटवर्क का एक छोटा हिस्सा हैं, सरकार द्वारा प्रारंभ की गई निजीकरण की प्रक्रिया यात्री ट्रेन संचालन में निजी क्षेत्र की भागीदारी की शुरुआत का प्रतीक है।
असली चेहरा तो नक़ाब में ही रह गया, सांप भी मर गया, लाठी भी नहीं टूटी
सोची समझी योजना सफल, भ्रष्ट राजनेता और पुलिस वाले बने नायक -प्रियंका सौरभ
अंततः विकास दुबे कानपुर वाला कानपुर में पुलिस के हाथों मारा गया। वैसे भी हर अपराधी को उसके अपराध का उचित दण्ड अवश्य मिलना चाहिए। लेकिन ये दंड देश में संविधान द्वारा स्थापित कानून व्यवस्था के तहत ही मिलना चाहिए। यदि वर्तमान कानून व्यवस्था में कोई त्रुटियां हैं तो उनमें सुधार करना चाहिए, कानून को हाथ में लेने का अधिकार किसी को भी नहीं है।
आज विकास दुबे के विवादास्पद एनकाउंटर पर ये हज़ारों प्रश्न उठ खड़े हुए है, किसकी नाकामी है ये? अगर ऐसा ही चलता रहा और ऐसे एनकाउंटर्स को ठीक समझा जाने लगा तो, कहीं ऐसा ना हो कि लोग अपना-अपना न्याय अपने ही हाथों से सड़कों पर ना करनें लग जाएं।
गैंगस्टर विकास दुबे की गिरफ्तारी और उसके कुछ साथियों के एनकाउंटर पुलिस की कामयाबी नहीं है। बल्कि पुलिस और राजनीति का बहुत बड़ा गठजोड़ है, जिसको समझने लायक छोड़ा नहीं गया मगर ये पब्लिक है जनाब सब समझ लेती है। अपराधी पकड़े जाते हैं और छूट भी जाते हैं।
विश्व जनसंख्या समस्या पर वैश्विक चेतना 2020
साल दर साल विश्व जनसंख्या विस्फोट की स्थिति में हो रही वृद्धि के मद्देनजर, इस स्थिति से अनभिज्ञ हो चुकी समस्त मानव जाति को एक मंच पर लाकर उन्हें बढ़ती हुई जनसंख्या के प्रति सचेत करने की एक पहल विश्व जनसंख्या दिवस (11 जुलाई) के रूप में आयोजित की जाती है। जिसमें दुनिया के लगभग सभी देश मिलकर जनसंख्या विस्फोट से उत्पन्न हो रही समस्त समस्याओं पर आपसी विचार-विमर्श करते हुए इन समस्याओं से निजात पाने हेतु कई वैश्विक सुझावों पर सहमति जाहिर करते हैं। हालांकि इस वर्ष जनसंख्या दिवस का विषय ‘ परिवार योजना एक मानव अधिकार है’ के अंतर्गत स्वस्थ व सुदृढ़ परिवार की स्थापना में समस्त मानव जाति की भागीदारी को सुनिश्चित करना, मगर फिर भी हर वर्ष जनसंख्या दिवस की भाँति इस बार भी बढ़ती जनसंख्या को केंद्र में रखकर, समस्त मानव जाति को जनसंख्या के महत्व को समझाया जाएगा।
देश भर में झोलाछाप डॉक्टरों के कारण मरीजों की जान सासत में -प्रियंका सौरभ
कोरोना काल में पूरी दुनिया में डॉक्टर भगवान् के रूप में लोगों को नज़र आये है और ऐसा हो भी क्यों न?अपनी जान को दांव पर लगाकर दूसरों को निस्वार्थ भाव से जिंदगी उपहार देने वाले भगवान ही तो है। मगर सरकारी आँकड़ों के अनुसार भारत के 1.3 बिलियन लोगों के लिये देश में सिर्फ 10 लाख पंजीकृत डॉक्टर हैं। इस हिसाब अगर देखा जाये तो भारत में प्रत्येक 13000 नागरिकों पर मात्र 1 डॉक्टर मौजूद है। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस संदर्भ में 1:1000 अनुपात को जायज़ और जरूरी मानता है, यानी हमारे देश में प्रत्येक 1000 नागरिकों पर 1 डॉक्टर होना अनिवार्य है। लेकिन ऐसा करने के लिए भारत को वर्तमान में मौजूदा डॉक्टरों की संख्या को कई गुना करना होगा।
जहाँ एक ओर शहरी क्षेत्रों में 58 प्रतिशत योग्य चिकित्सक है, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में यह आँकड़ा 19 प्रतिशत से भी कम है। योग्य चिकित्सकों के अभाव में देश में में झोलाछाप डाक्टरों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।
पाश्चात्य वाद व हिंसात्मकता को बढ़ावा देने में सहायक सिद्ध होती वेब सीरीज प्रस्तुतियां
किशोरावस्था मिट्टी का वह कच्चा घड़ा है कि एक झटका भी उसके फूटने के लिए काफी है। जिस तरह आज इस आधुनिकता के दौर का युवा वर्ग वेब सीरीज का दीवाना बनता जा रहा है, उसे देखकर यह कहना बिल्कुल भी गलत न होगा कि जब भविष्य के कर्णधारों का ही भविष्य अंधकारमय होगा तो राष्ट्र के उज्ज्वल भविष्य की कल्पना करना महज एक दिलासा देना होगा। यह जग-जाहिर है कि अगर ऊर्जा को सही जगह का भान न कराया जाए तो अनियंत्रित ऊर्जा विध्वंसकारी हो जाती है। इस सत्यता को झुठलाया नहीं जा सकता है कि परमाणु ऊर्जा विध्वंसक की श्रेणी में प्रथम है, मगर जिस प्रकार परमाणु ऊर्जा से विद्युत आपूर्ति की कल्याणकारी योजनाओं का संचालन किया जा रहा है, वह एक नियंत्रित पहल है। आज-कल यह वेब सीरीज भी उसी अनियंत्रित ऊर्जा को बढ़ावा देने में मुख्य भूमिका अदा कर रहा है, जो भविष्य की आने वाली पीढ़ियों को भी पाश्चात्य व हिंसा के दलदल में ढकेलने का काम कर रही हैं।
किशोरावस्था अर्थात् जब शारीरिक बदलाव का दौर जारी हो, ऐसे में वेब सीरीज की लत, धुम्रपान की लत से भी ज्यादा खतरनाक होती है। वेब सीरीज में दिखाए गए कार्यों को यह युवा वर्ग अपनी असल जिंदगी में भी शामिल करने लगता है। एक शोध के अनुसार, वेब सीरीज में दिलचस्पी दिखाने वाले युवा वर्ग के आचार-विचार में काफी परिवर्तन देखा गया है, यथा चिड़चिड़ापन, क्रोध व अवसाद जो युवा वर्ग में हिंसात्मक रवैये का मूल साक्ष्य है।
हैरान करती है तिब्बत की स्वतंत्रता पर वैश्विक चुप्पी
ईराक ने 1990 में जब कुवैत को अपना बताकर उस पर अधिकार जमाया था। तब अमेरिका ने आनन-फानन में ईराक पर कार्रवाई करते हुए न केवल कुवैत को मुक्त करा लिया था बल्कि एक समय अन्तराल के बाद परमाणु हथियार रखने का इल्जाम लगाकर ईराक का तख्ता पलट करते हुए उसे नेस्तनाबूद करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी। वहीँ दूसरी ओर चीन द्वारा तिब्बत पर अधिकार जमाए हुए 70 वर्ष बीत गये हैं। परन्तु अमेरिका सहित विश्व का कोई भी सक्षम देश इस बारे में कुछ भी बोलने का साहस नहीं जुटा पा रहा है। शायद इसी कारण चीन के हौसले बढ़े हुए हैं और वह खुलेआम परमाणु परीक्षण करके पूरे विश्व को चुनौती दे रहा है। गौरतलब है कि 40 के दशक में तिब्बत पूर्ण स्वतन्त्र राष्ट्र था। अक्टूबर 1950 में चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी तिब्बत में दाखिल हुई और बर्बरतापूर्वक पूरे तिब्बत को अपने अधिकार में ले लिया। उसके बाद एक देश का विश्व से स्वतन्त्र अस्तित्व समाप्त हो गया। 10 मार्च 1959 को तिब्बत में चीन के खिलाफ जबरदस्त विद्रोह हुआ। परन्तु चीन ने उस विद्रोह को सख्ती से कुचल दिया था। तब से लेकर आज तक तिब्बत की स्वतन्त्रता को लेकर किये गये प्रत्येक आन्दोलन को चीन बर्बरतापूर्वक कुचलता चला आ रहा है। परन्तु हैरान करने वाली बात यह है कि मानव अधिकारों की बात करने वाले विश्व के बड़े-बड़े देश चीन द्वारा तिब्बती नागरिकों पर किये जा रहे अमानवीय अत्याचार के मूक दर्शक बने हुए हैं। तिब्बत के नाम पर संयुक्त राष्ट्र की चुप्पी भी समझ से परे है।
बेकाबू हो चली आग की लपटों में तेल की आहुति बनाम आत्मनिर्भरता
आज के इस आपातकाल दौर में जब आम जनता खुद के पेट की तपिश को ही मिटाने में अक्षम है, तो देश तो दूर की बात है साहेब, उससे उसी की आत्मनिर्भरता के बारें में बात करना बेमानी होगी। जहाँ आम जनता एक तरफ भौतिक तत्वों की मारी है तो दूसरी तरफ अभौतिक तत्व उसे तिल-तिल कर मरने को मजबूर कर रहे हैं , ऐसे में वह निर्भर बने भी तो कैसे ? कुदरत की माया देखें कहावत है कि आग लगते ही हवा का तीव्र हो जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया ही है। जहाँ एक तरफ सब पर भारी कोरोना महामारी ने आम जनता की तीन मुख्य जरूरतें रोटी, कपड़ा और मकान को प्रतिबंधित करने में कामयाब रही, तो वहीं दूसरी तरफ प्रकृति ने ओलों, तूफानों, चक्रवातों व भूकम्पों के द्वारा आम जनता को खूब सताया। इन बेकाबू हो चली आग की लपटों में तेल की आहुति ने आम जनता के वर्तमान को भी निगल लिया ऐसे में भविष्य का निर्माण भला यह करे भी तो कैसे ? पेट्रोल व डीजल तेल की कीमतों में लगातार हो रही तीव्र वृद्धि ने भी आगे आकर आम जनता की मूल वृद्धि में भी आखिरी कील ठोक दी । देश में पिछले एक माह से पेट्रोल और डीजल के दाम जिस रफ्तार से अग्रसर हैं कि आम जनता के उपयोग से मीलों दूर निकल चुकी है। इस तीव्र वृद्धि ने अब तक के सारे रिकार्डों को बौना साबित करते हुए आपातकाल की इस धधकती ज्वाला में तेल की आहुति देने का काम किया है।
महिलाओं के काम पर पड़े हैं बहुत नकारात्मक प्रभाव -डॉo सत्यवान सौरभ
कोरोनावायरस महामारी का महिलाओं के काम पर बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। खासकर अकेली महिलाओं, विधवाओं, दैनिक मजदूरी करने या असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को सामाजिक सुरक्षा कानूनों के तहत कोई सुरक्षा नहीं मिली है। उनके सामने कामकाज के दोहरे बोझ के साथ ही वित्तीय संकट भी आ खड़ा हुआ है। सबसे दुखदायी बात ये कि उन्हें दूर-दूर तक आशा की कोई किरण भी नज़र नहीं आ रही।
इस पुरुषवादी दुनिया में आम तौर पर घर की साफ-सफाई, चूल्हा-चौका, बच्चों की देख-रेख और कपड़े धोने के साथ रसोई का काम महिलाओं के जिम्मे होता है। हालांकि अब कामकाजी दंपतियों के मामले में यह सोच बदल रही है। लेकिन फिर भी ज्यादातर परिवारों में यही मानसिकता काम करती है। नतीजतन इस लंबे लॉकडाउन में ज्यादातर महिलाएं कामकाज के बोझ तले पिसने पर मजबूर हैं। भारतीय महिलाएं दूसरे देशों के मुकाबले रोजाना औसतन छह घंटे ज्यादा ऐसे काम करती हैं जिनके एवज में उनको पैसे भी नहीं मिलते। जबकि भारतीय पुरुष ऐसे कामों में एक घंटे से भी कम समय खर्च करते हैं और ज्यादा रुतबा रखते हैं।