नागाओं की एक अलग ही रहस्यमय दुनिया है। चाहे नागा बनने की प्रक्रिया हो या उनका रहन-सहन सब कुछ रहस्य मय है। नागा साधुओं को वस्त्र धारण करने की भी अनुमति नहीं होती। अगर वस्त्र धारण करने हो, तो सिर्फ गेरुआ रंग के वस्त्र ही नागा साधु पहन सकते हैं। वह भी सिर्फ एक वस्त्र, इससे अधिक गेरुआ वस्त्र नागा साधु धारण नहीं कर सकते।नागा साधुओं को शरीर पर सिर्फ भस्म लगाने की अनुमति होती है। नागाओं का यह श्रृंगार सिर्फ कुंभ के दौरान होने वाले स्नान के वक्त नजर आता है।मान्यता है कि सभी श्रृंगारों से युक्त नागा के दर्शन से कई जन्मों का पुण्य मिलता है।अखाड़ों से जुड़े नागा संतों का कहना है कि इस श्रृंगार की एक विधि है और यह सिर्फ खास अवसर पर किया जाता है। 17 श्रृंगार से सुसज्जित नागा अपने इष्ट यानी भगवान भोलेनाथ और भगवान विष्णु की पूजा करता है।
एक नागा श्रृंगार में लंगोट, भभूत, चंदन, पैरों में लोहे या चांदी का कड़ा, अंगूठी, पंचकेस, कमर में फूलों की माला, माथे पर रोली का लेप, कुंडल, हाथों में चिमटा, डमरू या कमंडल, गुथी हुई बताएं जटायें, तिलक, काजल, हाथों में कड़ा, बदन में विभूति का लेप, बाहों पर रुद्राक्ष की माला शामिल होती है। आमतौर पर एक सुहागिन महिला सोलह सिंगार करती है लेकिन यह नागा साधु अपने 17वें सिंगार के लिए जाने जाते हैं। 17वाँ सिंगार है “भस्म” जो कि नागा साधुओं का एकमात्र परिधान होता है। हर नागा अपने शरीर पर सफेद भस्म और रुद्राक्ष की मालाओं के अलावा कुछ नहीं पहनता। मान्यता है कि भगवान शंकर ऐसे ही 11000 रुद्राक्ष मालायें धारण करते थे।
लेख/विचार
ममता सरकार का सी बी आई पर सर्जिकल स्ट्राईक
बंगाल में पुलिस कमिश्नर को बचाने के चक्कर में ममता सरकार अब पूरी तरह तानाशाह की भूमिका मे आ गयी है। ममता बनर्जी जिस तरह बंगाल मे खुलेआम हिंसात्मक रवैये पर उतारू है उससे तो अब लग रहा की बंगाल की जनता को ममता का मोह छोड़ना पड़ सकता है। गत दिनों शारदा चिट फण्ड मामले मे कमिश्नर से पूछताछ करने गयी सी बी आई के छः अधिकारियों को पुलिस ने ममता के इसारे पर घेर कर गिरफ्तार कर लिया जो लोकतंत्र की खुलेआम हत्या है। नए सियासी ड्रामे में इस मामले को दबाने के लिए अब ममता अनसन पर बैठ गयी है जो इस बात का प्रतीक है कि ममता पूरे घोटाले से जनता का ध्यान हटाकर चुनाव को अपने पक्ष मे करना चाहती है। खैर ममता दीदी की सच्चाई अब धीरे धीरे जनता के बीच आ रही। पश्चिम बंगाल में हिन्दुओं की संख्या 50 लाख से 2 करोड़ के आसपास है लेकिन एक भी फ्री सस्ते इलाज वाले मल्टी सुपरटेलिटी हाॅस्पिटल नहीं है, या हैं भी तो सब फुल हैं और उनमें लूट चल रही है मैं ये बात इस लिए कह रहा हूँ कि बंगाल में अस्पतालों में पूर्वी उत्तर प्रदेश और सिलीगुड़ी जैसे बाहरी इलाकों से लोग इलाज के लिए आते हैं जिनमे सबसे अधिक संख्या हिन्दुओ की होती है और इन गरीब लोगों को बहुत मुश्किल से इलाज मिल पाता है क्योंकि बहुत भीड़ होती है यहाँ के अस्पतालों में।
अभी कुछ दिन पहले की बात है मैं एक राज्य सरकार के सरकारी अस्पताल में किसी के इलाज के लिए गया था वो बाहर से आए थे और वह अचानक बीमार हो गए थे उनके पास कोई भी रेफर डाॅक्यूमेंट या हेल्थ रिकाॅर्ड नहीं था तो उनका पर्चा नहीं बन रहा था तो मैंने वहाँ की डायरेक्टर की अस्सिस्टेंट से बात की पर्चा बन गया। जब मैं उनके वहाँ से निकल कर फ्लोर पर अपने मरीज के पास जा रहा था तभी मैंने देखा एक बच्ची और उसका परिवार सिलीगुड़ी से इलाज के लिए 12 बजे पहुँचे बच्ची के पेट में बहुत दर्द हो रहा था और वह सीढ़ी के कोने में लोट रही थी काफी टाइम से बच्ची तड़प रही थी उसका परिवार गरीब था इलाज कहाँ कराता, तो वह सीधा बस से 12 बजे बच्ची को लेकर यहाँ पहुँचे, न जाने कितनी तकलीफ से वह बच्ची यहाँ पहुँची होगी आप सोच भी नहीं सकते। हाॅस्पिटल में उनके पिता इधर उधर दौड़ रहे थे माँ बच्ची को पकड़ के बैठी थी 7 साल की मासूम को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है सभी डाॅक्टर सामने से निकल जा रहे थे माँ कह रही थी हमारी मदद करो कोई नहीं सुन रहा था मैं खड़ा देख रहा था अपने मरीज का पर्चा जमा कराने के बाद मैं 5 मिनट बाद लौटा और उनसे उनके बारे में बात की और फिर चीफ मेडिकल सुपरिटेंडेंट के रूम में पहुँचा जहाँ अपना पर्चा बनवाया था तो उनकी वार्डेन कहीं गयी हुई थी मैं 10 मिनट इंतेजार करने के बाद वापस उस बच्ची के पास गया उसे देखने वहाँ से 2 मिनट की दूरी पर वो बिल्डिंग थी जब पहुँचा तो वह बच्ची और उसका परिवार वहाँ मौजूद नहीं था मैंने जब उनको ढूँढना शुरू किया तो वह मुझे हाॅस्पिटल के बाहर आॅटो पर बैठकर जाते हुए दिखे। पता नहीं उस बच्ची का क्या हुआ होगा ऐसा हमारे बहुत से गरीब हिन्दू भाइयों बहनों के साथ रोजाना कहीं न कहीं होता है ये इतने अमीर नहीं हैं कि किसी पास के बड़े हाॅस्पिटल में इलाज करवा सके।
अबकी बार किसकी सरकार
2019 के आम चुनाव का बिगुल बस बजने ही वाला है| सभी महारथी अपनी-अपनी रणनीति बनाने में लगे हुए है| राजग को सत्ता से उखाड़ फेकने के लिए विपक्षी दल सारे बैर भाव भुलाकर गले मिल रहे हैं| सारी कवायद ठीक वैसी ही हो रही है जैसी सन 1989 में हुई थी| तब भाजपा समेत सभी विपक्षी दल कांग्रेस के विरुद्ध लामबंद हुए थे| बीते पच्चीस साल से नदी के दो पाट की तरह अडिग दिखने वाले एक दूसरे के धुर विरोधी मायावती और मुलायम सिंह एकता के सूत्र में बंध चुके हैं| प्रियंका गांधी के सक्रिय हो जाने के बाद कांग्रेस अब एकला चलो की नीति पर विचार कर रही है| अन्ना हज़ारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से जन्मी आम आदमी पार्टी भी सत्ता के लिए कुछ भी करने को तैयार है| उधर सत्ता में पुनः वापसी के लिए राजग ने तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हें नोट दूँगा की तर्ज पर जनता के लिए देश का खजाना खोल दिया है| अब निर्णय देश की जनता को करना है कि वह दिल्ली की गद्दी किसे सौंपती है| हालाकि चुनाव तक देश की राजनीतिक तश्वीर में अभी कितने और रंग भरे जाएंगे इसका अंदाजा किसी को भी नहीं है|
बच्चों की रचनात्मकता में बाधक होमवर्क
आज बच्चों को होमवर्क देना विद्यालयों की दैनंदिन शिक्षा प्रक्रिया का एक जरूरी अंग बन गया है। शायद ही कोई ऐसा स्कूल हो जो बच्चों को विषयगत होमवर्क न देता हो। देखने में आता है कि होमवर्क बच्चों को बांधे रखने का जरिया बन चुका है। होमवर्क में विद्यालय में पढ़ाये गये विषय के प्रकरण और पाठों पर आधारित वही प्रश्न घर पर पुनः लिखने को दिये जाते हैं जो बच्चों में ‘रटना’ की गलत प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं। जबकि एनसीएफ-2005 की स्पष्ट अनुशंषा है कि बच्चों को कल्पना एवं मौलिक चिंतन मनन करने के अवसर दिये जायें, न कि रटने या नकल करने को बाध्य किया जाये। पर होमवर्क का बच्चों में ज्ञान निर्माण करने की बजाय सूचनाओं को रटवाने और नकल करने पर जोर है। क्योंकि आज की शिक्षा बच्चों को एक उत्पाद के रूप में तैयार कर रही है और इस प्रक्रिया में अभिभावक की भी स्वीकृति और भागीदारी है। तो यहां एक प्रश्न उभरता है कि बच्चों कों होमवर्क क्यों दिया जाये? क्या यह जरूरी है और बच्चों के लिए इसके क्या फायदे हैं?
होमवर्क में फंसे बच्चे के पास न तो प्रश्न हैं न ही जिज्ञासा। अगर कुछ है तो दबाव, होमवर्क पूरा करनें का दबाव और इस दबाव ने बच्चों से उनका बचपन छीन लिया है। उसके पास-पड़ोस और परिवेश में घट रही घटनाओं, प्राकृतिक बदलावों, सामाजिक तानाबाना, तीज-त्योहारों, को समझने-सहेजने, अवलोकन करने और कुछ नया खोजबीन करने का न तो समय है न ही स्वतंत्रता। होमवर्क बच्चो ंमें कुछ नया सीखने को प्रेरित नहीं कर रहा बल्कि लीक का फकीर बनने को बाध्य कर रहा है। जाॅन होल्ट के शब्दों में कहूं तो ‘‘वास्तव में बच्चा एक ऐसी जिंदगी जीने का आदी बन जाता है जिसमें उसे अपने आसपास की किसी चीज को ध्यान से देखने की जरूरत ही नहीं पड़ती। शायद यही एक कारण है कि बहुत से युवा लोग दुनिया के बारे में बचपन में मिली चेतना और उसमें मिली खुशी खो बैठते हैं।’ आखिर कैसी पीढ़ी तैयार की जा रही है जिसकी सांसों में अपनी माटी की न तो महक बसी है और न ही आंखों में सौन्दर्यबोध। न लोकजीवन के रसमय रचना संसार की अनुभूति है और न ही लोकसाहित्य के लयात्मक राग के प्रति संवेदना और अनुराग। सहनशीलता, सामूहिकता, सहिष्णुता, न्याय, प्रेम-सद्भाव एवं लोकतांत्रिकता के भावों का अंकुरण न होने के कारण उनकी सोच एवं कार्य व्यवहार में एक प्रकार का एकाकीपन दिखायी पड़ता है। उसमें अंदर से रचनात्मक रिक्तता है और रसिकता का अभाव भी।
आम आदमी को अच्छे दिनों का अहसास कराता बजट
विपक्ष भले ही वर्तमान सरकार के इस आखरी बजट को चुनावी बजट कहे और कार्यवाहक वित्तमंत्री पीयूष गोयल के बजट भाषण को चुनावी भाषण की संज्ञा दे, लेकिन सच तो यह है कि इस आम बजट ने अपने नाम के अनुरूप देश के आम आदमी के दिल को जीत लिया है। जैसा कि प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने कहा, यह सर्वव्यापी, सरस्पर्शी, सरसमवेशी, सर्वोतकर्ष को समर्पित एक ऐसा बजट है जो भारत के भविष्य को नई ऊंचाइयों पर ले जाने के सपने अवश्य जगाता है जो कितने पूर्ण होंगे यह तो समय ही बताएगा।
यह पहली बार नहीं है जब किसी सरकार ने चुनावी साल में बजट प्रस्तुत किया हो। लेकिन हाँ, यह पहली बार है जब भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली में जहाँ अब तक लगभग हर सरकार चुनावी साल के बजट में केवल आगामी लोकसभा चुनावों को ही ध्यान में रखकर बजट प्रस्तुत करती थीं, वहां इस सरकार ने आगामी दस सालों को ध्यान में रखकर बजट प्रस्तुत किया है।
यही मोदी की शैली है। खुद उनके शब्दों में जब मैं काम करता हूँ तो राजनीति नहीं करता और यही उनकी खासियत है कि उनके काम उनके विरोधियों को राजनीति करने लायक छोड़ते नहीं। अब देखिए ना चुनाव जीतते ही साढ़े चार साल उन्होंने सख्त प्रशासन और नोटबन्दी, जी एस टी जैसे कठोर फैसले लिए। और अब चुनाव से पहले जी एस टी में छूट, सवर्ण आरक्षण जैसे कदमों के बाद अब बजट में किसानों और असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों समेत मध्यम वर्ग के लिए सौगातों की बौछार लगा कर अपनी धारदार राजनीति से विपक्ष के वोटबैंक को धराशाही भी कर दिया। जिस मध्यम वर्ग से उन्होंने अपनी सरकार के पहले बजट में कहा था कि उसे अपना ध्यान खुद ही रखना होगा, उस मध्यम वर्ग को चुनावी साल में एक झटके में साध लिया। साथ ही वित्तमंत्री ने यह कहकर कि इस देश के संसाधनों पर पहला हक गरीबों का है ना सिर्फ गरीबों को साधा बल्कि कांग्रेस पर भी प्रहार किया जिनकी सरकार में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि इस देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है।
लेकिन मोदी सरकार के इस बजट में समाज के हर वर्ग के लिए कुछ न कुछ है
प्रियंका बनाम….दूसरी इंदिरा….??
राजनीतिक पटल पर अब एक नई चुनौती के रूप में उभर कर आ रही प्रियंका वाड्रा को भाजपा पचा नहीं पा रही है। आप उसे चाहे तो महिला सशक्तिकरण का नाम दे लें या कांग्रेस को मजबूती प्रदान करने का स्तंभ मान लें। कारण जो भी हो लेकिन राजनीति में प्रियंका वाड्रा के कदम अब मजबूती से पड़ चुके हैं। हालांकि पहले से ही उनके लिए पथरीली राहें मौजूद है। वो चाहे कांग्रेस का बीता हुआ इतिहास हो या फिर वर्तमान में जब कांग्रेस अपना अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद कर रही है।
प्रियंका कांग्रेस की एक नई ताकत बनकर उभर रही है और उनकी तुलना दूसरी इंदिरा गांधी के तौर पर की जा रही है। ध्यान दें कि इंदिरा गांधी को अटल जी ने ‘दुर्गा’ कहकर संबोधित किया था और यह तब कहा था जब भारत ने पाकिस्तान पर 1971 की लड़ाई में बड़ी कामयाबी हासिल करते हुए उसके दो टुकड़े कर एक नया देश बांग्लादेश बनवा दिया था । जिस तरह से उनकी तुलना इंदिरा गांधी से की जा रही है तो क्या इंदिरा गांधी जैसी संकल्पबद्धता और मजबूत इरादे की झलक फिर से देखने को मिलेगी ? क्या कांग्रेस फिर से एक बड़ी मजबूत पार्टी के रूप में उभर पाएगी? यह सवाल सभी के मन में उठ रहा है।
अस्थिरता से भरी राजनीति….!
अस्थिरता से भरी राजनीति में आज साफ सुथरी सरकार का गठन होना एक सपने जैसी बात हो गई है। आज राजनीति में विचार,नीति नियम के कोई मायने नहीं रह गए हैं, यह बात पिछले कुछ सालों से दिखाई दे रही है। स्तरहीन राजनीति आज सिर्फ सत्ता के लिए राजनीति करती दिखाई देती है और अवसरवादी नेताओं ने इस का माहौल और भी खराब कर दिया है। अस्थिरता से भरे दौर में लोकसभा चुनाव करीब आते जा रहे हैं और धीरे-धीरे चुनावी सरगर्मियां भी बढ़ती जा रही हैं। अभी एक बात जो जाहिर है वह यह कि अभी भी इनके मुद्दों में किसानों की समस्या, रोजगार,शिक्षा और स्वास्थ्य आदि नहीं है। अभी भी राम मंदिर, जीएसटी,आरक्षण जैसे मुद्दों को हवा देकर वोट हासिल करने की फिराक में है।
राजनीतिक अस्थिरता के माहौल में सरकार बनाने के लिए राजनीतिक दलों को गठबंधन का सहारा लेना पड़ रहा है या फिर विरोधी दलों को एकजुट होना पड़ रहा है। आगामी चुनावों को मद्देनजर रखते हुए सपा+बसपा का गठबंधन अपनी मजबूती का एहसास करा रहा है। देश में दो ही दल दिखाई देते हैं, कांग्रेस और भाजपा। कांग्रेस के विकल्प के तौर पर सपा+बसपा का गठबंधन एक चुनौती के रूप में सामने आया है।
भारतीय गणतंत्र के निर्माण में महिलाओं की भूमिका
गणतंत्र भारत के निवासी होने के कारण हमें कर्म और अभिव्यक्ति की आजादी प्राप्त है। पर इस आजादी के लिए हमारे पुरखों ने मूल्य चुकाया है। अंग्रेजों के विरुद्ध आजादी की लड़ाई में पुरुषों के साथ ही महिलाओं ने भी सक्रिय भाग लिया और स्वतंत्रता की बलिवेदी पर अपने प्राणों की आहुति दी थी। यह उनके देश प्रेम का परिचायक तो था ही साथ ही उनकी सामाजिक-राजनीतिक चेतना का प्रखर स्वर भी था। भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास के गगन में अनेक महिलाओं के नाम देदीप्यमान हैं। आजाद हिन्द फौज की महिला पल्टन की सशस्त्र वीरांगनाएं हों, क्रान्किारियों की सतत् सहायता करने वाली वीर बालाएँ हों या फिर राजनीति के माध्यम से समाज जागरण का शंखनाद करने का महत्वपूर्ण काम, वह हर कहीं सफल रही है और अपनी छाप छोड़ी है। अपने शौर्य, मेधा, कर्मठता और चातुर्य से भारतीय गणतंत्र के निर्माण में महिलाओं का योगदान वरेण्य है।
‘मैं कित्तूर नहीं दूँगी‘ का उद्घोष करने वाली कित्तूर की रानी चेन्नम्मा का नाम बड़े आदर और सम्मान से लिया जाता है। कर्नाटक के कित्तूर में सन् 1778 ई. में जन्मी चेन्नम्मा ने बचपन से युद्ध संचालन सीखा था। संस्कृत, मराठी और कन्नड में पारंगत चेन्नम्मा का विवाह दक्षिण भारत के समृद्ध राज्य कित्तूर के राजा मल्लसर्ज के साथ हुआ। राजा निःसंतान स्वर्ग सिधार गये। अंग्रेजों ने राज्य को हड़पने के लिए रानी को राज्य छोड़कर जाने का आदेश दिया। रानी नहीं मानीं। फलतः सितम्बर 1824 ई. में धारवाड़ के कलेक्टर थैकरे ने 500 सिपाहियों के साथ किले को घेर लिया। भयंकर युद्ध में रानी पकड़ी गईं और जेल में डाल भीषण यातनाएं दी गईं और वहीं 21 फरवरी को 1825 ई. को रानी के प्राण-पखेरू उड़ गये। 19.11.1835 को जन्मी मनु को एक दिन इतिहास रानी लक्ष्मीबाई के रूप में याद रखेगा, कौन जानता था। झाँसी के राजा गंगाधर राव से विवाह हुआ पर वह लक्ष्मीबाई को निःसंतान अकेला छोडकर चल बसे। 1854 ई. को अंगेे्रज अधिकारियों के रानी को झाँसी छोड़ देने का हुक्म के जवाब में रानी ने दृढता से कहा, ‘‘मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।’’ अंग्रेजों को तो बहाना चाहिए था। युद्ध प्रारम्भ हुआ। रानी बड़ी वीरता से लड़ रहीं थीं। लेकिन एक सैनिक द्वारा लालचवश किले का द्वार खोल देने के कारण रानी को किला छोड़ना पड़ा। अंग्रेजी सेना ने रानी का पीछा किया। कालपी और ग्वालियर में आमने-सामने भयंकर युद्ध हुआ। घायल रानी अपने दत्तक पुत्र को पीठ पर बाँधे, घोड़े की लगाम मुँह में पकड़े, दोनों हाथों से तलवार चलाती अंगे्रज सैनिकों को मारती-चीरती रास्ता बनाती आगे बढ़ती जा रही थीं। घायल अवस्था में बाबा गंगादास की कुटी में आश्रय लिया और वहीं प्राण निकल गये। वह कुटी रानी की अन्त्येष्टि की समिधा बन जलकर देशप्रेमियों के लिए पावन हो गई। रानी लक्ष्मीबाई की हमशक्ल 1830 ई. को जन्मी झलकारी का विवाह रानी लक्ष्मीबाई के तोपची पूरन सिंह के साथ हुआ था। प्रारम्भिक जीवन जंगल में बीता, इस कारण धीरता, वीरता और चपलता के गुण उसे प्रकृति के सान्निध्य में ही मिल गये थे।
विद्यालय में अभिव्यक्ति के मायने
जनवरी 2015 की एक सुबह, सूरज अपनी आग को शनैः-शनैः धधकाने कोशिश में था। सूरज का ताप ओढ़े हुए मैं अपनी बीआरसी नरैनी अन्तर्गत पू0मा0वि0 बरेहण्डा गया। प्रार्थना सत्र पूरा हो चुका था और बच्चे कमरों में बैठें या बाहर, शिक्षक और बच्चे यह तय कर रहे थे। यहां पहले भी जाना होता रहा है तो बच्चे खूब परिचित थे। पहुँचते ही बच्चों ने घेर लिया। सबकी चाह थी कि पहले मैं उनकी कक्षा में चलूँ। कोई हाथ पकडे था तो कोई बैग। मैंने सभी कक्षाओं में आने की बात कही लेकिन असल लड़ाई तो बस यही थी कि मैं पहले किनकी कक्षा में चलूँगा। खैर, मेरी काफी मान-मनौव्वल के बाद कक्षा 8 से मेरी यात्रा प्रारम्भ हुई। बाहर धूप में ही बच्चे बैठे थे। बातचीत शुरु ही हुई थी कि कक्षा 7 के बच्चे भी वहीं आ डटे। त्योहार और शीत लहर के कारण लगभग एक पखवारे की लम्बी छुट्टियों के बाद हम लोग मिल रहे थे। पिछले एक-डेढ़ महीने के अपने अनुभव बच्चों ने साझा किए। परस्पर खेले गये विभिन्न प्रकार के खेलों की चर्चा, घर में बने पकवानों की चर्चा, खेत-खलिहान की बातें, मकर संक्रान्ति पर पड़ोस के गाँव ‘बल्लान’ में लगने वाले ‘चम्भू बाबा का मेला‘ की खटमिट्ठी बातें। गुड़ की जलेबी, नमकीन और मीठे सेव, गन्ना (ऊख), झूला मे झूलने की साहस और डर भरी बातों के साथ साथ नाते-रिश्तेदारों की बातें, दादी और नानी की किस्सा-कहानी की बातें, गोरसी में कण्डे की आग में मीठी शकरकन्द भूनकर खाने की स्वाद भरी बातें और न जाने क्या क्या, हां, थोडा बहुत पढ़ने की बातें भी। बातें पूरी हो चुकने के बाद (हालांकि बच्चों की बातें कभी पूरी होती नहीं) ‘‘चकमक‘‘ के दिसम्बर अंक में विद्यालय के कक्षा 8 के बच्चों के छपे गुब्बारे वाले प्रयोग पर विचार-विमर्श हुआ। आगामी मार्च अंक के ज्यामितीय प्रयोग पर अभ्यास हुआ। ‘‘खोजें और जानें‘‘ के पिछले अंक में कवर पर छपे यहाँ की ‘बाल संसद‘ के चित्र पर भी बच्चों ने अपने और अपने माता पिता के अनुभव बताये। स्कूल की दीवार पत्रिका के आगामी अंक के कलेवर पर संपादक मण्डल के साथ बातें करके मुद्दे तय हुए। यह भी निर्णय हुआ कि अब हर अंक पर एक साक्षात्कार अवश्य छापा जायेगा। मनोज और केशकली मिलकर अपने गांव के मिट्टी के बर्तन बनाने वाले का साक्षात्कार लेंगे। साक्षात्कार क्या है और क्यों? साक्षात्कार कैसे लें, क्या और कैसे बातें करें किन मुद्दों पर किस-किस तरह से प्रश्न किया जा सकता है। मिल रहे उत्तर से प्रश्न कैसे पकड़ें आदि बिन्दुओं पर थोड़ी बातें हुईं। थोड़ी ही देर में वे दोनों बच्चे 10-12 प्रश्नों की एक प्रश्नावली तैयार कर लाये। वास्तव में प्रश्न चुटीले थे और उनसे कुम्हारगीरी का पूरा चित्र उभरने वाला था। मुझे बेहद खुशी हुई। कौन कहता कि सरकारी विद्यालयों में प्रतिभाएं नहीं है, कोई सोच नही है। उन्हें ऐसे बच्चों से मिलना चाहिए। अभ्यास के तौर पर कक्षा में ही दोनों बच्चों ने मेरा साक्षात्कार लिया।
Read More »सामाजिक न्याय की तरफ एक ठोस कदम
भारत की राजनीति का वो दुर्लभ दिन जब विपक्ष अपनी विपक्ष की भूमिका चाहते हुए भी नहीं नहीं निभा पाया और न चाहते हुए भी वह सरकार का समर्थन करने के लिए मजबूर हो गया, इसे क्या कहा जाए? कांग्रेस यह कह कर क्रेडिट लेने की असफल कोशिश कर रही है कि बिना उसके समर्थन के भाजपा इस बिल को पास नहीं करा सकती थी लेकिन सच्चाई यह है कि बाज़ी तो मोदी ही जीतकर ले गए है।
“आरक्षण”, देश के राजनैतिक पटल पर वो शब्द,जो पहले एक सोच बना फिर उसकी सिफारिश की गई जिसे,एक संविधान संशोधन बिल के रूप में प्रस्तुत किया गया, और अन्ततः एक कानून बनाकर देश भर में लागू कर दिया गया।
आजाद भारत के राजनैतिक इतिहास में 1990 और 2019 ये दोनों ही साल बेहद अहम माने जाएंगे। क्योंकि जब 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वी पी सिंह ने देश भर में भारी विरोध के बावजूद मंडल आयोग की रिपोर्ट के आधार पर “जातिगत आरक्षण” को लागू किया था तो उनका यह कदम देश में एक नई राजनैतिक परंपरा की नींव बन कर उभरा था। समाज के बंटवारे पर आधारित जातीगत विभाजित वोट बैंक की राजनीति की नींव।