Tuesday, April 22, 2025
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लेख/विचार

डाॅ0 आशा त्रिपाठी द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘‘रामायण में राजनीति’’ का हुआ लोकार्पण

कोलकाता, जन सामना ब्यूरो। विगत दिनों कोलकाता में श्री बड़ा बाजार कुमारसभा पुस्तकालय, कोलकोता द्वारा आयोजित डा0 हेडगेवार प्रज्ञा सम्मान समारोह में महामहिम  राज्यपाल प0बं0 केसरीनाथ त्रिपाठी के करकमलों से डा0 आशा त्रिपाठी, पूर्व प्राचार्या महिला महाविद्यालय द्वारा सम्पादित और सोशल रिसर्च फाउण्डेशन, कानपुर, उ0प्र0 द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘‘रामायण में राजनीति’’ का भव्य लोकार्पण किया गया। बहुत ही सुखद अनुभव रहा कि वहाँ पर लोगों ने जिज्ञासापूर्ण जानकारी के साथ पुस्तक को हाथों हाथ लिया।

रामायण में राजनीति: पुस्तक वाल्मीकि कृत ‘‘रामायण’’ पर आधारित है न कि तुलसीदास कृत ‘‘रामचरित मानस’’ पर। रामायण विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ है। धार्मिक दृष्टि से तो हिन्दुओं के लिए ‘‘रामायण’’ एक अनुपम ग्रन्थ है, परन्तु धार्मिक भावनाओं के अलावा भी उसमें बहुत कुछ है। जो लोग भगवान रामचन्द्र को ईश्वर मानने के लिए तैयार नहीं उनके मनन करने योग्य भी उसमें बहुत कुछ सामग्री है। राजनीतिक दृष्टिकोंण से देखने पर रामायण में धर्म आच्छादित राजनीतिक दाँव पेंच के दर्शन होते हैं। यद्यपि धर्म और राजनीति के दायरे अलग-अलग हैं पर दोनों की जड़े एक हैं। धर्म दीर्घकालीन राजनीति है तो राजनीति अल्पकालीन धर्म है।

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इच्छामृत्यु के फैसले से और बढ़ेंगे अपराध

इच्छामृत्यु के फैसले से बुजुर्गों का जीवन खतरे में 
हम बचपन से बड़े-बुजुर्गों और पूर्वजों से सुनते आये हैं कि जीवन और मृत्यु एक सिक्के के दो पहलू हैं और दोनों ही अटल सत्य हैं। प्रत्येक धर्म यही कहता है कि जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु भी निश्चित है और प्रत्येक धर्म यह भी कहता है कि किसी का जीवन बचाना ही सबसे बड़ा धर्म है। यह सब बातें अगर सत्य हैं तो असाध्य रोग से पीड़ितों को इच्छामृत्यु के नाम पर अकाल मार देना कहां का न्याय होगा। सच तो यह है कि ‘‘इच्छामृत्यु की आड़ में और बढ़ेगा अन्याय तथा वृद्ध पीड़ितों के जीवन से होगा भयावह खिलवाड़ ।’’ कुछ 1 प्रतिशत असाध्य रोगों से पीड़ित यातनाग्रस्त जीवन जीने को मजबूर अतिपीड़ितों की सेवा न हो पाने पर हजारों दलीलों के एवज में सुप्रीम कोर्ट ने पैसिव यूथनेसिया पर फैसला सुना दिया और कहा कि खास परिस्थितियों के मद्देनजर लिविंग विल यानी इच्छा मृत्यु को कानूनी मान्यता भी मिल गई है। देश की शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि विशेष परिस्थिति में सम्मानजनक मौत को व्यक्ति का व्यक्तिगत अधिकार माना जाना चाहिए। कुछ विशेष लोगों के लिए भले ही यह फैसला राहत देने वाला रहा हो पर विचारने वाली बात यह है कि आखिर! इसके दूसरे स्याह पहलू को क्यों नजरअंदाज किया जा रहा कि भविष्य में इसके कितने भयावह दुष्परिणाम होंगे? इच्छामृत्यु का यह फैसला, हो सकता है कुछ विशेष लोगों के लिये यह राहतभरा अंतिम मजबूर फैसला हो पर आज के अर्थ युग में कुछ लालची और अपराधी मानसिकता के लोगों के लिये यह फैसला चैन की श्वांस और निर्भय हो जाने वाला है। यह गाज उन प्रोपर्टी वाले, सरकारी नौकरी करने वाले माता-पिता पर उनके ही अपनों द्वारा कभी भी गिर सकती है कि इच्छामृत्यु के बहाने उनका जीवन छीन लो और उनकी नौकरी जबरन मृतक आश्रित बनके हासिल कर लो। भविष्य में इस इच्छामृत्यु के फैसले के परिणाम बहुत ही घातक सिद्ध होंगे कि पहले तो अराजकतत्वी निजस्वार्थी लोग बुजुर्गों को वृद्धाश्रम छोड़ आते थे। जिससे कम से कम हमारे देश के सीनियर सिटीजन कम से कम, कहीं न कहीं जीवित तो रहते थे और बाकी की जिंदगी अपने तरीके से सुकून से तो बिताते थे पर सुप्रीम कोर्ट के लिविंग विल यानि इच्छा मृत्यु को कानूनी मान्यता मिलने के इस एकपक्षी फैसले से हमारे देश के बुजुर्गों का जीवन ही खतरे में आ गया हैं। जो हमें कतई मान्य नहीं है। आपने तो एक पक्ष की मर्मस्पर्शी दलीलें सुनकर फैसला तो सुना दिया पर कृपया इसका दूसरा पक्ष भी तो देखिये कि जो बेटा आज अपनी वृद्ध माँ को छत से धक्का दे सकता है तो इस फैसले के बाद समाज और देश में हमारे बुजुर्गों के ऊपर कितनी अराजकता और अन्याय बढ़ेगा। यहां तो बीमारी से जूझ रहे गरीब और बीमारी से जूझ रहे प्राॅपर्टी वाले बुजुर्गों दोनों का ही जीवन, इच्छामृत्यु के फैसले की भेंट चढ़ जायेगा। आखिर! कौन जिम्मेदारी लेगा और किसकी जवाबदेही होगी और कौन तय करेगा कि किस पर इच्छामृत्यु का यह कठोर फैसला तीर की तरह चलाया जाये। इसका एक पक्ष भले ही पुरातन उदाहरणों जैसे- महाभारत काल में भीष्म पितामह, माता सीता, भगवान श्री राम और लक्ष्मण, आचार्य विनोबा भावे द्वारा इच्छा मृत्यु का वरण किया था, को देकर मजबूत कर लें पर दूसरे पक्ष पर मंथन बेहद जरूरी है कि वो युग और था, आज स्वार्थ युग चल रहा है जिसमें रिश्तों पर स्वार्थ हावी हो चुका है और इस बात को भी दरकिनार नही किया जा सकता। इच्क्षामृत्यु का यह मुद्दा तब प्रकाश में आया जब फरवरी 2014 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका लगाई गई थी, जिसमें एक गंभीर बीमारी से ग्रसित व्यक्ति जो कि डाॅक्टर्स के मुताबिक अब कभी ठीक नहीं हो सकता, उसके लिए इच्छामृत्यु या दया मृत्यु की अपील की गई थी। कोर्ट में याचिका लगाने वाली एनजीओ ने दलीली दी कि ‘गरिमा के साथ मरने का अधिकार’ ‘यानी राइट टू डाय विथ डिग्निटी’ भी होनी चाहिए। फिर देश में इच्छामृत्यु पर एक लम्बी बहस तब चालू हो गयी थी जब यौन उत्पीड़न की यातना झेल चुकी जिन्दा लाश बनी अरुणा शानबाग मुम्बई के किंग एडवर्ड मैमोरियल अस्पताल के कमरे में बर्षों पड़ी रही तथा आर्थिक, मानसिक, शारीरिक रूप से निष्क्रिय अरुणा शानबाग के लिए इच्छा मृत्यु की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट की ओर से दिए गए ऐतिहासिक फैसले में न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ने दुनियाभर की कानूनी अवधारणाओं के साथ प्राचीन धर्मग्रंथों का उल्लेख करते हुये अपना फैसला सुरक्षित किया। सुप्रीम कोर्ट ने अरुणा शानबाग की इच्छा मृत्यु की याचिका तो ठुकरा दी थी परन्तु चुनिंदा मामले में कोर्ट ने पैसिव यूथनेसिया (कानूनी तौर पर लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाए जाने) की इजाजत दी थी।

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उपचुनावों के आधार पर लोकसभा चुनाव आंकना भूल होगी  

19 मार्च को योगी आदित्यनाथ, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल का एक वर्ष पूर्ण कर रहे है। भारी बहुमत, जनता की अपेक्षाओं और आशीर्वाद के बीच यूपी के मुख्यमंत्री बनने के ठीक एक साल बाद अपने प्रदेश के दो लोकसभा क्षेत्रों के उपचुनाव में इस प्रकार के नतीजों की कल्पना तो योगी आदित्यनाथ और भाजपा तो छोड़िये देश ने भी नहीं की होगी। वो भी तब जब अपने इस एक साल के कार्यकाल में उन्होंने तमाम विरोधों के बावजूद यूपी के गुंडा राज को खत्म करने और वहाँ की बदहाल कानून व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए एन्काउन्टर पर एन्काउन्टर जारी रखे। यहाँ तक कि एक रिपोर्ट के अनुसार एक बार 48 घंटों में 15 एन्काउन्टर तक किए गए। वादे के अनुरूप सत्ता में आते ही अवैध बूचड़खाने बन्द कराए। अपनी पहली कैबिनेट मीटिंग में किसानों के ॠण माफी की घोषणा की। लड़कियों और महिलाओं की सुरक्षा के लिए ऐन्टी रोमियो स्कवैड का गठन किया। अपनी सरकार में वीआईपी कल्चर खत्म करने की दिशा में कदम उठाए । यूपी के पेट्रोल पंपों पर चलने वाले रैकेट का भंडाफोड़ किया। प्रदेश को बिजली की बदहाल स्थिति से काफी हद तक राहत दिलाई। परीक्षाओं में नकल रुकवाने के लिए वो ठोस कदम उठाए कि लगभग दस लाख परीक्षार्थी परीक्षा देने ही नहीं आए। लेकिन इस सब के बावजूद जब उनके अपने ही संसदीय क्षेत्र में उपचुनाव के परिणाम विपरीत आते हैं तो न सिर्फ यह देश भर में चर्चा का विषय बन जाते हैं बल्कि सम्पूर्ण विपक्ष में एक नई ऊर्जा का संचार भी कर देते हैं। शायद इसी ऊर्जा ने चन्द्र बाबू नायडू को राजग से अलग हो कर मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने के लिए प्रेरित किया। खास बात यह है कि भाजपा की इस हार ने हर विपक्षी दल को भाजपा से जीतने की कुंजी दिखा दी, “उनकी एकता की कुंजी”।
भाजपा के लिए समय का चक्र बहुत तेजी से घूम रहा है। जहाँ अभी कुछ दिनों पहले ही  वाम के गढ़ पूर्वोत्तर के नतीजे भाजपा के लिए खुश होने का मौका लेकर आए, वहीं उत्तरप्रदेश और ख़ास तौर पर गोरखपुर के ताजा नतीजों के अगले कुछ पल उसकी खुशी में  कड़वाहट घोल गए।  इससे पहले भी भाजपा अपने ही गढ़ राजस्थान और मध्यप्रदेश के उपचुनावों में भी हार का सामना कर चुकी है। सोचने वाली बात यह है कि इस प्रकार के नतीजे क्या संकेत दे रहे हैं?

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विरोध की कमजोर नींव पर खड़ी विपक्षी एकता

देश के वर्तमान राजनैतिक पटल पर लगातार तेजी से बदलते घटनाक्रमों के अनर्तगत ताजा घटना आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने के मुद्दे पर वित्तमंत्री अरुण जेटली के बयान को आधार बनाकर तेलुगु देशम पार्टी के दो केंद्रीय मंत्रियों का एनडीए सरकार से उनका इस्तीफा है। एक आर्थिक मामले को किस प्रकार राजनैतिक रंग देकर फायदा उठाया जा सकता है यह चन्द्रबाबू नायडू ने अपने इस कदम से इसका एक बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत किया है। क्योंकि जब केन्द्र सरकार आन्ध्रप्रदेश को विशेष पैकेज के तहत हर संभव मदद और धनराशि दे रही थी तो ष्विशेष राज्यष् के दर्जे की जिद राजनैतिक स्वार्थ के अतिरिक्त कुछ और क्या हो सकती है।
कहना गलत नहीं होगा कि पूर्वोत्तर की जीत के साथ देश के 21 राज्यों में फैलते जा रहे भगवा रंग की चकाचैंध के आगे बाकी सभी रंगों की फीकी पड़ती चमक से देश के लगभग सभी राजनैतिक दलों को अपने वजूद पर संकट के बादल मंडराते नजर आने लगे हैं। मोदी नाम की तूफानी बारिश ने जहाँ एक तरफ पतझड़ में भी केसरिया की बहार खिला दी वहीं दूसरी तरफ काँग्रेस जैसे बरगद की जड़ें भी हिला दीं।
आज की स्थिति यह है कि जहाँ तमाम क्षेत्रीय पार्टियां अपने आस्तित्व को बनाए रखने के लिए एक दूसरे में सहारा ढूंढ रही हैं तो कांग्रेस जैसा राष्ट्रीय राजनैतिक दल भी इसी का जवाब ढूंढने की जद्दोजहद में लगा है।
जो उम्मीद की किरण उसे और समूचे विपक्ष को मध्यप्रदेश और राजस्थान के उपचुनावों के परिणामों में दिखाई दी थी वो पूर्वोत्तर के नतीजों की आँधी में कब की बुझ गई।
यही कारण है कि तेलंगाना के मुख्यमंत्री चन्दशेखर राव ने हाल ही में कहा कि देश में एक गैर भाजपा और गैर कँग्रेस मोर्चे की जरूरत है और उनके इस बयान को तुरंत ही बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी, झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और ओवैसी जैसे नेताओं का समर्थन मिला गया। शिवसेना पहले ही भाजपा से अलग होने का एलान कर चुकी है।
इससे पहले, इसी साल के आरंभ में शरद पवार भी तीसरे मोर्चे के गठन की ऐसी ही एक नाकाम कोशिश कर चुके हैं। उधर मायावती ने भी उत्तर प्रदेश के दोनों उपचुनावों में समाजवादी पार्टी को समर्थन देने की घोषणा करके अपनी राजनैतिक असुरक्षा की भावना से उपजी बेचैनी जाहिर कर दी है।
राज्य दर राज्य भाजपा की जीत से हताश विपक्ष साम दाम दंड भेद से उसके विजय रथ को रोकने की रणनीति पर कार्य करने के लिए विवश है।
लेकिन कटु सत्य यह है कि दुर्भाग्य से भाजपा का मुकाबला करने के लिए इन सभी गैर भाजपा राजनैतिक दलों की एकमात्र ताकत इनका वो वोटबैंक है जो इनकी उन नीतियों के कारण बना जो आज तक इनके द्वारा केवल अपने राजनैतिक हितों को ध्यान में रखकर बनाई जाती रही हैं न कि राष्ट्र हित को।
हालांकि इसमें कोई दोराय नहीं है कि पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक वोट बैंक वाली ये सभी पार्टियां यदि मिल जाएं तो भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी कर सकती हैं। लेकिन एक सत्य यह भी कि जाति आधारित राजनैतिक जमीन पर खड़े होकर अपने वोट बैंक को राजनैतिक सत्ता में परिवर्तित करने के लिए, जनता को अपनी ओर आकर्षित करना पड़ता है जिसके लिए इनके पास देश के विकास का कोई ठोस प्रोपोजल या आकर्षण नहीं है।

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एक के बाद एक कम्युनिस्टों के ढहते दुर्ग

साम्यवाद का काबा माना जाने वाला सोवियत संघ जब भरभराकर ढ़ह गया, तब यह कहा गया कि विश्व की पूंजीवादी शक्तियों ने पूरी ताकत के साथ समाजवाद का अंत कर दिया। लेकिन उन विपरीत हवाओं में भी भारत में कई राज्य ऐसे थे जहाँ कम्युनिस्ट पार्टी का शासन कायम हुआ और बरकरार रहा। धीरे-धीरे यहाँ भी कम्युनिस्ट संगठन और उनकी सरकारें दरकने लगीं। पहले संसद में उपस्थिति कम हुई, फिर राज्यों के विधान मंडल में कमजोर हुए और बाद में पश्चिम बंगाल हाथ से गया। अब 2018 विधानसभा चुनावों के परिणाम आ जाने के बाद 25 साल पुराना त्रिपुरा की सरकार भी कम्युनिस्टों के हाथ से चली गयी। अब इसे सत्ता विरोधी लहर कहें या विरोधी ताकतों की अभेद रणनीति, सच्चाई यही है कि तकनिकी रूप से त्रिपुरा रंग लाल से भगवा हो चुका है। 25 साल की कम्युनिस्ट हुकूमत में 20 साल तक त्रिपुरा के मुख्घ्यमंत्री रहने के बावजूद माणिक सरकार आखिर लाल झंडे की बुलंदियों को बचा क्यूँ नहीं पाए, इस पर विचार होना चाहिए।
त्रिपुरा चुनाव परिणाम के बहाने आईये जानते हैं कि वे 10 बड़े कारण क्या हैं, जिनकी वजह से त्रिपुरा के साथ-साथ पूरे भारत से एक-एक कर कम्युनिस्ट पार्टियों के दुर्ग भरभराकर ढह रहे हैं :
दूरगामी कारण
1. घिसी-पिटी कार्यशैलीः एक जमाने में कम्युनिस्ट होने का अर्थ आधुनिक होना माना जाता था। नवीनतम तकनीक के इस्तेमाल, चुस्त-दुरुस्त कार्यशैली और आधुनिक सोच-समझ की वजह से कम्युनिस्ट लोग सबसे अलग दिखते थे। किताबें पढ़ने की आदत और किताबों के प्रकाशन व प्रसार में कम्युनिस्टों का कोई मुकाबला नहीं था। जब लोग मुश्किल से टाइपराइटर का इस्तेमाल कर पाते थे, तब कम्युनिस्ट पार्टी ले दफ्तरों में आधुनिकतम टाइपिंग और साइक्लोस्टाइल मशीनें, छापेखाने और प्रकाशन हुआ करते थे। समय के साथ कम्युनिस्टों ने अपने तंत्र को अपडेट नहीं किया। नतीजा यह हुआ कि बेहतरीन माना जाने वाला कम्युनिस्टों का संगठन निर्माण कौशल धीरे-धीरे परम्परापरस्त और अप्रसांगिक हो चला है, जबकि उसके मुकाबले खड़े खेमों में आधुनिक तकनीक पर आधारित सांगठनिक ढांचे पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। सूचना क्रांति के इस दौर में सोशल मीडिया पर कम्युनिस्ट नेताओं की मौजूदगी और फैन फॉलोविंग बहुत कम है। दूसरी पार्टियों के नेतागण जहाँ जनता से संवाद कायम करने के लिए सूचना माध्यमों का आक्रामकता से इस्तेमाल कर रहे हैं, उनके मुकाबले कम्युनिस्ट लीडर इस रेस में बहुत पीछे हैं।

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क्यों ना इस महिला दिवस पुरुषों की बात हो ?

‘हम लोगों के लिए स्त्री केवल गृहस्थी के यज्ञ की अग्नि की देवी नहीं अपितु हमारी आत्मा की लौ है, रबीन्द्र नाथ टैगोर।’
8 मार्च को जब सम्पूर्ण विश्व के साथ भारत में भी ‘महिला दिवस’ पूरे जोर शोर से मनाया जाता है और खासतौर पर जब 2018 में यह आयोजन अपने 100 वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है तो इसकी प्रासंगिकता पर विशेष तौर पर विचार करना आवश्यक हो जाता है।
जब आधुनिक विश्व के इतिहास में सर्वप्रथम 1908 में 15000 महिलाओं ने न्यूयॉर्क शहर में एक विशाल जुलूस निकाल कर अपने काम करने के घंटों को कम करने, बेहतर तनख्वाह और वोट डालने जैसे अपने अधिकारों के लिए अपनी लड़ाई शुरू की थी तो, इस आंदोलन से तत्कालीन सभ्य समाज में महिलाओं की स्थिति की हकीकत सामने आई थी।
उससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि अगर वोट देने के अधिकार को छोड़ दिया जाए तो पुरुषों के मुकाबले महिलाओं के वेतन और समानता के विषय में भारत समेत सम्पूर्ण विश्व में महिलाओं की स्थिति आज भी चिंतनीय है।
विश्व में महिलाओं की वर्तमान सामाजिक स्थिती से सम्बन्धित एक रिपोर्ट के अनुसार, अगर भारत की बात की जाए, तो 2017 में लैंगिक असमानता के मामले में भारत दुनिया के 144 देशों की सूची में 108 वें स्थान पर है जबकि पिछले साल यह 87 वें स्थान पर था। किन्तु केवल भारत में ही महिलाएँ असमानता की शिकार हों ऐसा भी नहीं है इसी रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई है कि ब्रिटेन जैसे विकसित देश की कई बड़ी कंपनियों में भी महिलाओं को उसी काम के लिए पुरुषों के मुकाबले कम वेतन दिया जाता है। वेतन से परे अगर उस काम की बात की जाए जिसका कोई वेतन नहीं होता, जैसा कि हाल ही में अपने उत्तर से विश्व सुन्दरी का खिताब जीतने वाली भारत की मानुषी छिल्लर ने कहा था, और जिसे एक मैनेजिंग कंसल्ट कम्पनी की रिपोर्ट ने काफी हद तक सिद्ध भी किया। इसके मुताबिक, यदि भारतीय महिलाओं को उनके अनपेड वर्क अर्थात वो काम जो वो एक गृहणी, एक माँ, एक पत्नी के रूप में करती हैं, उस के पैसे अगर दिए जाएं तो यह भारतीय अर्थव्यवस्था में 300 बिलियन अमेरिकी डॉलर का योगदान होगा। और इस मामले में अगर पूरी दुनिया की महिलाओं की बात की जाए तो यूनाइटेड नेशन की रिपोर्ट के अनुसार उन्हें 10 ट्रिलियन अमेरिकी डालर अर्थात पूरी दुनिया की जीडीपी का 13 प्रतिशत हिस्सा देना होगा।

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सोशल और डिजिटिल मीडिया यही तय करेंगे ‘बाजार का ट्रेंड’ और ‘राजनीति’ की धारा!

बदलते समय के साथ विज्ञापन, मार्केटिंग और ब्रांडिंग को लेकर कई नए ट्रेंड सामने आए हैं जो आने वाले दिनों में नई उम्मीद जगाते हैं। खास बात ये कि इसकी नीव रखी है डिजिटिल मीडिया, सोशल मीडिया और इंफ्लुएंसर मार्केटिंग (एआर) ने! विज्ञापन बाजार पर नए ट्रेंड का बढता महत्व और टेक्नोलॉजी का विज्ञापन पर बढ़ता प्रभाव सबसे महत्वपूर्ण है।अब सिर्फ अखबारों में या टीवी पर विज्ञापन देना काफी नहीं है। नया ट्रेंड सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया पर अपने प्रोडक्ट को विज्ञापित करना है। आंकड़े बताते हैं कि प्रिंट मीडिया का बाजार 8 प्रतिशत, टीवी 12 प्रतिशत और डिजिटल / सोशल मीडिया का 24 प्रतिशत प्रति साल की दर से बढ़ रहा है। आने वाले सालों में डिजिटल और सोशल मीडिया का बाजार और ज्यादा तेजी से बढ़ेगा! इसका सीधा सा कारण है कि विज्ञापन एजेंसियों को जहाँ उपभोक्ता दिखेगा, वहीं वे उसे प्रभावित करने की कोशिश करेंगी। ऐसे में तय है कि 2018 में सबसे ज्यादा प्रभावशाली क्षेत्र यही होगा।
2018 में विज्ञापन जगत के हॉट ट्रेंड के ब्रांड का फोकस डिजिटिल और सोशल मीडिया होगा। सबसे ज्यादा विस्तार होने वाला क्षेत्र डिजिटल मीडिया ही होगा। जो माहौल 2017 में दिखाई दिया, उसके मुताबिक डिजिटल, सोशल और इंफ्लुएंसर मार्केटिंग हर मामले में हावी रहेगा। 2018 में ‘एआरटी’ यानी ‘ऑगमेंटेड रियलिटी टेक्नोलॉजी‘ का ही विज्ञापन बाजार पर असर बढ़ता दिखेगा। आने वाले सालों में विज्ञापन जगत में वीडियो का भी दखल बढ़ेगा, जिसका चलन सोशल मीडिया में शुरू भी हो गया है। इससे ब्रांड और उपभोक्ता के बीच की दूरी घट रही है। इसके अलावा अब रीजनल प्लेयर्स भी इस मैदान में दिखाई देंगे। लेकिन, हर ब्रांड का फोकस डिजिटल मीडिया पर ही होगा। स्मार्टफोन ने ब्रांड-कंज्यूमर की दूरी को कम कर दिया है। अनुमान कि 2018 में डिजिटल मार्केटिंग 25-30 फीसदी बढ़ेगी। इसलिए कि ब्रांड की उपभोक्ता तक पहुंच आसान हुई है।
देश में अनुमानतरू तकरीबन 12 से 15 करोड़ से अधिक ऐसे लोग हैं जो इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं। इनमें से तीन करोड़ से ज्यादा लोग रोज ऑनलाइन होते हैं। इसके अलावा देश में सोशल नेटवर्क का इस्तेमाल करने वाले करीब 5 से 6 करोड़ लोग हैं। इनमें ज्यादातर लोग फेसबुक और लिंक्डइन पर हैं। इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले सभी लोगों में करीब 70 फीसदी लोग वहां रियलिटी शो, फिल्म के ट्रेलर, विज्ञापन आदि से जुड़े वीडियो भी देखते हैं। देश में 10 हजार से ज्यादा इंटरनेट कैफे हैं। इसके अलावा देश में करीब 20 करोड़ मोबाइल फोन कनेक्शन हैं, जिनमें से करीबन 15 प्रतिशत स्मार्ट फोन हैं, जिनपर इंटरनेट सुविधा उपलब्ध है। ये आंकड़े अपने आप में बहुत व्यापक नजर आते हैं। लेकिन, जब 1.2 अरब की आबादी के नजरिए से देखा जाए तो ये उतने व्यापक नजर नहीं आते। इसलिए जब डिजिटल मीडिया को एक सहायक माध्यम के तौर पर देखा जाता है, तो आश्चर्य नहीं होता है। हालांकि, यह बात सोचने की है कि क्या हमारे पास इस विस्तार को मापने का सही पैमाना है और क्या पहुंच के मामले में डिजिटल मीडिया बहुत जल्द बड़ा स्वरूप ग्रहण कर लेगा?

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सफेद गाजर की कृषि को भी कृषक जाने

सफेद गाजर की कृषि को भी कृषक जाने, कृषि विविधिकरण की जनपद में असीम सम्भावनायें
सफेद गाजर में पाया जाने वाला अल्फा और बीटा केटोरीन शरीर को रोगों से राहत दिलाने में बहुत मदद करता है
कानपुर देहात, जन सामना ब्यूरो। सफेद गाजर की कृषि को भी कृषक जाने तथा जनपद में कृषि विविधिकरण की असीम सम्भावनायें है। जनपद में सफेद गाजर सहित कई कृषि विविधिकरण से संबंधित कृषि को किया जाना है जिसकी जनपद में असीम संभावनायें है। सफेद गाजर में पाया जाने वाला अल्फा और बीटा केटोरीन शरीर को रोगों से राहत दिलाने में बहुत मदद करता है, मुबारकपुर आजमगढ़ जाकर प्रगतिशील कृषि सफेद गाजर की ले जानकारी, मुबारकपुर सफेद गाजर का हलुवा विश्व प्रसिद्ध, जो मांग व रिश्तेदारों भेटस्वरूप दुबई अन्य खाड़ी देशों में भी जाता है।

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केवल वयस्कों के लिएः होली आ रही है

एक महोदय ने कहा होली आ रही है कुछ लिखिए। चलो भाई निराश नहीं करता लिखे देता हूं । लेख लिखने से पहले एक खुलासा करना जरूरी है। मेरे सिर के लम्बे बाल, लम्बी दाढ़ी-मूंछ देखकर कहीं आप इस भ्रम में न पड़ जायें कि मैं सन्त हूॅं , महन्थ हूॅं। मैं सोलहों आने या यों कहें कि सौ टन्च (शुद्ध) गृहस्थ हूॅं-वशिष्ठ की तरह, अत्रि जी की तरह, गौतम ऋषि की तरह। मैं यकीन भी इसी में करता हूॅं -सन्त, महन्थ का जीवन जिया जाये किन्तु जीवन संगिनी को साथ रखकर। मैं महन्थ की गद्दी सम्हाल और चिकनी-चिकनी शिष्याओं को परदे के पीछे बुलाऊं यह मेरे वश में नहीं। मैं गृहस्थ सन्त हूॅं ,महन्थ हूॅं। नाती-पोतों-परपोतों से हरे भरे परिवार वाला सन्त-महन्थ हूॅं। मेरा यह लेख इसी टाइप के गृहस्थ द्वारा लिखा गया लेख है।
मेरे इस लेख पर लेखक संघ का यह निर्णय कि यह लेख केवल वयस्कों के लिए है, कोई मायने नहीं रखता। फिल्म में अवयस्क ताक-झांक करते हैं इस लेख में भी ताक-झांक करेंगे, तो फिर ‘‘केवल वयस्कों के लिए’’ प्रमाणपत्र जारी करने की फार्मेलिटी वृथा है। अब तो इन्टरनेट का जमाना है, सबके लिए सब उपलब्ध है। यहां तक कि पे्रक्टिकल भी। बढ़ती आयु के साथ जो मीठा-मीठा दर्द आटोमेटिक बढ़ता था, सब कुछ आटोमेटिक होता था। कुछ पढ़ने पढ़ाने की आवश्यकता नहीं थी, उस स्व-उत्पन्न सेक्स को अब पाठ्यक्रमी कर दिया गया है। अब स्कूलों में सेक्स शिक्षा के बिना शिक्षा अधूरी है, ऐसा उन्नतिशील चिन्तक मानते हैं। ये उन्नतिशील चिन्तक, चिन्तक कम राजनेता अधिक हैं ,उस पर भी पाश्चात्य संस्कृति से सराबोर। मतलब करेला उस पर भी नीम चढ़ा। भला हो हमारे पूर्वजों का जिन्होंने बिना सेक्स शिक्षा के आटोमेटिक उत्पन्न मीठे मीठे दर्द के साथ स्वस्थ रहे-सण्ड मुसण्ड रहे और स्वस्थ सण्ड मुसण्ड सन्तानें पैदा की। अब शायद सरकार-सरकारें ऐसा नहीं मानती। उन्हें लगता है कि बिना पढ़ाई लिखाई के आटोमेटिक उपजने वाला मीठा दर्द बिना प्रेक्टिकल शिक्षा के किसी काम का नहीं। अब तो सरकार-सरकारें सभी प्रकार के सेक्स जायज करने पर तुली हैं जिसमें समलैंगिकता को मान्यता देना भी एक है।

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2019 का ‘संग-राम’ इसी साल!

लखनऊ मुल्क के वजीर-ए-खजाना जिस समय संसद में 2018-19 का बजट भाषण पढ़ रहे थे ठीक उसी समय राजस्थान और पश्चिम बंगाल में उपचुनाव की 5 सीटों के नतीजों की गिनती हो रही थी। इधर वित्त मंत्री ने गांव, गरीब, किसान पर सरकारी खजाना लुटाकर अपना भाषण खत्म किया, उधर पाँचों सीटों के नतीजों का एलान हुआ। पूरी पांचों सीटें भाजपा बुरी तरह से हार गई। कांग्रेस के प्रवक्ता ने प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि आज राजस्थान कल पूरा हिंदुस्तान। कुछ ऐसा ही आमार बंगाल में भी सुनने को मिला। यहां यह बताना जरूरी है कि इन उपचुनावों में भाजपा के ‘पोस्टर ब्वाय/स्टार प्रचारक’ नरेंद्र मोदी प्रचार करने नहीं गये थे।

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