Friday, November 1, 2024
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विविधा

मंदी के दौर में हाथ से फिसलती नौकरियां, सदमे में भारतीय – अतुल मलिकराम

अब जब नींद खुलती है तो एक ही ख्याल आता है कि नौकरी कब तक चलेगी और सैलेरी कब मिलेगी। सैलेरी में देर-सवेर हो जाये, लेकिन नौकरी नहीं जानी चाहिए।
मंदी के दौर में हर व्यक्ति अपनी नौकरी बचाने में लगा हुआ है। आज न कोई इम्पलाॅयी ओवर टाईम काम करने के लिए मना करता है और न ही एक्सट्रा वर्क लोड मिलने पर न-नुकुर। ‘बाॅस हमेशा सही होता है,’ इस कथनी पर आर्थिक सुस्ती ने सब को अमल करना सीखा दिया है। हर इम्पलाॅयी हर हाल में बाॅस की गुड लिस्ट में शामिल होने का प्रयास में लगा हुआ है। वो अपने काम को बेहतर लगातार बेहतर बनाने का प्रयास कर रहा है ताकि मंदी के दौर में उसकी नौकरी हाथ से फिसलने से बच सके।
लेकिन ये क्या साम, दाम, दंड, भेद, मंदी के दौर में कुछ काम नही आ रहा। जो जितना अधिक एक्सपीरियंस है, उस पर खतरा उतना ही अधिक गहराया हुआ है। अरे जानाब! हाल ऐसा बना हुआ है कि इम्पलाॅयी सैलेरी में कटौती किए जाने पर भी रो-धोकर कर काम करने के लिए तैयार हो जा रहा है, उसे केवल नौकरी जाने का डर सता रहा है। हालांकि मंदी के इस दौर में फ्रेशर्स की बल्ले-बल्ले है। लागत बचाने के चक्कर में कंपनियां ज्यादा से ज्यादा फ्रेशर्स को नौकरियां दे रही हैं।

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“छूटता आंचल”

रोजाना की तरह सत्या अपनी ही धुन में थी तभी उसे ऐसा लगा जैसे बाहर काम करने वाली बाई जो उम्र में काफी बड़ी थी उसने आवाज़ लगाई ,”बिटिया, मा तुम्हे बुला रहीं हैं थोड़ा सुन लो “सत्या कोचिंग के लिए तैयार हो रही थी इसलिए जल्दी से जाकर मा के सिरहाने पर पूछा, “बोलो मा, कोई बात है, उन्होंने धीमी आवाज़ में कहा “स्वेटर पहन लो काफी ठंड है” सत्या ने हांथ की तरफ इशारा करते हुए दिखाया कि हांथ में लिया है पहन लूंगी, सत्या शायद अनभिज्ञ थी आने वाले संकट से जो उसकी जिंदगी से ऐसे आंचल को छीन लेने वाला था जिसकी तलाश में शायद सारा जीवन वो भटकेगी लेकिन उस आंचल की छांव का शतांश भी कहीं नहीं मिलेगा। मा की तबीयत पिछले कई महीनों से खराब चल रही थी और सत्या की बोर्ड परीक्षाएं भी गिनती के दिनों पर ही थी। सत्या को मा के चेहरे पर उस दिन एक अजीब सा दर्द दिख रहा था ऐसा लग रहा था कि बहुत कुछ कहना चाहती हो वो उससे और एक हताशा भी दिख रही थी कि किस तरह ये लापरवाह लड़की उसके बिना सब कुछ संभालेगी, 

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समाज से संघर्ष करते हुए अपने स्वप्न साकार करते ट्रांस जेण्डर -डॉ.दीपकुमार शुक्ल (स्वतन्त्र पत्रकार)

सामाजिक मान्यताएं जब किसी के लिए बिडम्बना बन जाती हैं, तब उस व्यक्ति के जीवन में संघर्ष कितने गुना बढ़ जाता है, सामान्य व्यक्ति इस बात का सिर्फ अनुमान ही लगा सकता है। जरा सोचिये जब किसी माँ-बाप का छोटा सा बच्चा उनकी आँखों के सामने से मात्र कुछ क्षण के लिए ओझल होता है, तब उनके ह्रदय पर कितना बड़ा आघात लगता है। लेकिन जब उन्हीं माँ-बाप का एक बच्चा ट्रांस जेण्डर के रूप में जन्म लेता है, तब वे उसे निराश्रित जीवन जीने के लिए आखिर क्यों छोड़ देते हैं? यह प्रश्न आज तक निरुत्तरित है। ऐसे बच्चों के घर छोड़ देने मात्र से क्या समाज का उनके प्रति नजरिया बदल जाता है? समाज की विकृत सोच और दृष्टिकोण से स्वयं को बचाने के लिए माता-पिता जब अपनी ट्रांस जेण्डर सन्तान को त्यागते हैं, तब उनका सन्तान के प्रति ममत्व आखिर कहाँ चला जाता है? एक प्रश्न यह भी है कि क्या कोई भी बच्चा स्वयं अपने लिंग का निर्धारण करता है?

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छठ पर्व : संपूर्ण समर्पण और त्याग का एक पर्व

पुराण में छठ पूजा के पीछे की कहानी राजा प्रियंवद को लेकर है। कहते हैं राजा प्रियंवद को कोई संतान नहीं थी तब महर्षि कश्यप ने पुत्र की प्राप्ति के लिए यज्ञ कराकर प्रियंवद की पत्नी मालिनी को आहुति के लिए बनाई गई खीर दी। इससे उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई लेकिन वो पुत्र मरा हुआ पैदा हुआ। प्रियंवद पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे। उसी वक्त भगवान की मानस पुत्री देवसेना प्रकट हुईं और उन्होंने राजा से कहा कि क्योंकि वो सृष्टि की मूल प्रवृति के छठे अंश से उत्पन्न हुई हैं, इसी कारण वो षष्ठी कहलातीं हैं। उन्होंने राजा को उनकी पूजा करने और दूसरों को पूजा के लिए प्रेरित करने को कहा।
राजा प्रियंवद ने पुत्र इच्छा के कारण देवी षष्ठी की व्रत किया और उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। कहते हैं ये पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी और तभी से छठ पूजा होती है। इस कथा के अलावा एक कथा राम-सीता जी से भी जुड़ी हुई है। पौराणिक कथाओं के मुताबिक जब राम-सीता 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे तो रावण वध के पाप से मुक्त होने के लिए उन्होंने ऋषि-मुनियों के आदेश पर राजसूर्य यज्ञ करने का फैसला लिया। पूजा के लिए उन्होंने मुग्दल ऋषि को आमंत्रित किया । मुग्दल ऋषि ने मां सीता पर गंगा जल छिड़क कर पवित्र किया और कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सूर्यदेव की उपासना करने का आदेश दिया। जिसे सीता जी ने मुग्दल ऋषि के आश्रम में रहकर छह दिनों तक सूर्यदेव भगवान की पूजा की थी।

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“सही निर्णय”

रमा की उस गांव के स्कूल में नई नई पोस्टिंग हुई थी। गांव के बच्चे नई मास्टरनी के आने की खुशी में बड़े खुश थे। रमा की एक तरफ प्राचार्य महोदय द्वारा नियुक्ति करवाई जा रही थी, दूसरी तरफ बच्चे दरवाजे की ओट से नई मैडम को देख देख कर एक दूसरे से कुछ कह रहे थे। ये सब रमा स्टाफ से बात करते करते देख रही थी और मन ही मन उन बच्चों की मासूमियत उसे उनकी तरफ खीचें जा रही थी। प्राइवेट स्कूल में जहां उसने ऐसे बच्चों के साथ समय गुजारा था जहां के बच्चे अत्यंत अनुशासित थे ऐसा जैसे ऊपर से नीचे तक नियम और कानून की किताब हों वहीं गांव के स्कूल के बच्चे नियमों को तोड़ने वाली किताब की एक श्रृंखला हों। रमा को समझ में आ रहा था कि इस परिवेश को उस परिवेश में ढालने में उसे काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। दूसरे दिन रमा का इंतजार बच्चे ऐसे कर रहे थे जैसे मानो उन्हें कोई नई शिक्षिका नहीं नया साथी मिलने वाला हो। रमा के लिए ये अनुभूति दो तरह के भाव उत्पन्न कर रही थी, एक ये  की प्राइवेट स्कूल में बहुत मेहनत कर लिया अब सरकारी स्कूल में खाना पूर्ति करना है दूसरी ये की इन बच्चों की आंखों में दिखती आशाओं पर खरा उतरना।

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‘’मैं तुमसे हीं बोल रही हूँ ‘’

भीड़ भरी सूनी नगरी में,
निपट अकेली डोल रही हूँ
पास नहीं तुम मेरे फिर भी,
मैं तुमसे हीं बोल रही हूँ।
रिश्तों की पहचान नजर को
और अभी तड़पाएगा,
पतझड़ का बेमानी मौसम
कैसे फूल खिलाएगा,
क्या कहें अब जिन्दगी में
क्या बचा रह जाएगा,
धज्जियों में ख्वाहिशों का
सिलसिला रह जाएगा,
पत्थर वाली चारदरी में
भीगा ह्रदय टटोल रही हूँ।
पास नहीं तुम मेरे फिर भी,
मैं तुमसे हीं बोल रही हूँ।
यहाँ बहुत परहेज है सबको,
रूदन पर ये कान न देते
बस पीड़ा हीं देते हैं सब,
एक अदद मुस्कान न देते
जो इनका बस चल पाए तो
चैन सुकून भी छीन हीं लेंगे,
सब्र की माला को मरोड़कर
एक-एक मोती बीन हीं लेंगे,
नदी हूँ जाने कब से
खारे जल में मीठा घोल रही हूँ.
पास नहीं तुम मेरे फिर भी,
मैं तुमसे हीं बोल रही हूँ।

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आज जो कुछ भी हूं, माता-पिता की बदौलत ही हूं

जब अपने नाम के पीछे मलिकराम लगाया तो ऐसा लगा कि खुद पिता मेरे पीछे खड़े हो गये हों और मानो मुझसे ये कह रहे हों कि बेटा तू आगे बढ़। उस दिन खुद से एक वादा किया कि इस नाम को कभी झुकने नही दूंगा, आखिर कैसे झुकने देता, पिता के नाम को मै। आज जो कुछ भी हूं, माता-पिता की बदौलत ही तो हूं। परसो रोज वृद्धाश्रम गया था, कई बुजुर्गो से मिला, जो मुझमे उनका बेटा तलाश रहे थे, वहां एक माता जी मिली, मुझे देख उनकी आंखे भर आयी। वहां के स्टॉफ ने बताया कि अक्सर बच्चों को याद कर इन बुर्जुगों की आंखें यूं ही छलक उठती हैं। कोई अगर मिलने आता है तो ये बच्चों के समान चहकने लगते हैं। उन बुजुर्गो से प्रश्न किया कि वो किन परिस्थितियों में यहां पहुंचें? लगभग सबका जबाव एक सा ही था कि बेटे की भी मजबूरी रही होगी, खर्च नही उठा रहा पा रहा होगा या उसका अपना भी परिवार है, हमारा खर्च कैसे चला पायेगा, हम यहीं ठीक हैं। ‘अपना परिवार’ इस शब्द ने मुझे बैचेन सा कर दिया, मै रात भर यही सोचता रहा कि हम कैसा परिवार बना रहे हैं, जिसमें हमारे माता-पिता के लिए ही जगह नही बची। हमारे माता-पिता को ब्रांडेड कपड़ो और जूतों की चाह नहीं है वो हमसे केवल प्यार और थोड़े से सम्मान की उम्मीद रखते हैं, लेकिन कितने अफ़सोस की बात है की हम उन्हें ये भी नहीं दे पा रहे हैं।

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तन्हाई

पंसद है मुझे यूँ तन्हा रहना,
यूँ अकेले अपने आप से बात करना,
सोचकर कभी किसी बात को,
आ जाती है चेहरे पर मुस्कान कभी,
तो बहने लग जाती हैं अचानक ही आंसुओं की धारा कभी,
उठाती हूँ सुबह चाय की प्याली को हाथ से जब,
तो काँपने लग जाते हैं ये दो लब मेरे तब,
उठ जाती हूँ रात के किसी भी पहर अब,
और करती हूँ शुरू गिनती तारों की आसमां में तब
कभी ये तन्हाई नासूर बन जाती है,
तो कभी जीने का मकसद दे जाती है
मोनिका जैन द्वारका (दिल्ली)

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लालच बुरी बला है

बहुत समय पहले की बात है किसी गांव में एक बुढ़िया अपने बेटे और बहू के साथ रहा करती थी। बहू का उसके प्रति व्यवहार बहुत अच्छा नहीं था। उसे उसकी मौजूदगी खटकती रहती थी। वह दिन भर बड़बड़ाती रहती,”न जाने इस बुढ़िया को कब मौत आएगी मेरी छाती का पीपल बन गई है मर जाए तो 101 नारियल चढ़ाऊंगी।” बुढ़िया यह सब सुनकर बहुत दुखी होती। अपमान का घूंट पीकर जी रही थी। आखिर इस उम्र में जाती भी तो कहां? वह मन बहलाने के लिए चरखे पर सूत काटने का काम करती और रात में जब थक जाती तो अपने चरखे को रखते हुए गुनगुनाती,” उठो चरख कुठिल पर बैठो, आते होंगे झामरइया सूते पलंग पर।”बहू को लगातार उसका साथ रहना खटक रहा था और वह इस उधेड़बुन में थी कि ऐसा क्या उपाय किया जाए जिससे हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाए। उसे एक तरकीब सूझी। उसने अपने पति के कान भरने शुरू कर दिए कि न जाने तुम्हारी मां रोज रात में किसे बुलाती है बेटे ने ऐसी किसी बात से इनकर किया तो उसने कहा यदि आपको यकीन नहीं है तो आप खुद अपने कानों से सुन लीजिएगा। रात में बुढ़िया रोजाना की तरह गुनगुना रही थी ,”उठो चरख कुठिल पर बैठो, आते होंगे झामरइया सूते पलंग पर…..।”

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बूढ़ी अम्मा

ये छोटी सी कहानी है उस बुढ़िया की जो हमारे कालेज के बाहर अक्सर बैठती थी उबले हुए बेर बेचती थी और हम सभी सहेलियाँ छुट्टी का इंतजार करते थे कब छुट्टी हो कब हम बूढ़ी अम्मा के पास बेर खाने जायें , दो महीने गर्मी की छुट्टियों में बूढ़ी अम्मा और उनके बेर हम सब बहुत मिस करते थे, हमें लगता अम्मा अनाथ है उसका कोई नहीं है और बेर बेचकर अम्मा पेट पालती थी कई बार अम्मा से मैं पूछी भी की अम्मा तुम अकेली हो का घर में और कोई नहीं है तुम्हारे, अम्मा खामोश रह जाती जैसे मेरे सवाल का जवाब ढूंढ रही हो पर बोलती कभी कुछ नहीं थी, एक बार अम्मा दो तीन दिन बेर लेकर नहीं आई मुझे अम्मा की चिन्ता होने लगी, मुझसे जब रहा नहीं गया तो मैं पूछते पता करते सबसे अम्मा के घर जा पहुंची, मैं बाहर से ही आवाज दे रही थी इतने में एक दस बारा साल का लड़का दरवाजा खोलकर बाहर आया मैंने उससे कहा बेटा अम्मा कहां है वो बेर बेचने क्यूं नहीं आती वो लड़का गुमसुम सा मुझे देखता रहा फिर मेरा हाथ पकड़कर अन्दर ले गया मैंने देखा अम्मा बिस्तर पर बेसुध पड़ी थी और सात आठ बच्चे छोटे छोटे अम्मा को घेरकर बैठे थे मैने अम्मा के माथे पर हाथ रखा बुखार से माथा तप रहा था

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