Sunday, September 29, 2024
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लेख/विचार

कोविड-19 अनिवार्य चिकित्सीय सेवा की आवश्यकता

कोविड-19 के दौरान यह बात स्पष्ट हो गई कि हमें अनिवार्य सैनिक सेवा के बजाय अनिवार्य चिकित्सीय सेवा पर बहस करना चाहिए। आज इस आपदा में सरकारी डॉक्टर अकेले लड़ते नजर आ रहे हैं और संसाधन से जुझता हुये सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं ने अपना पूरा दम लगा रखा है और यह सब इसलिए भी मुमकिन हो पा रहा है क्योंकि प्रशासनिक सेवाओं ने संक्रमण रोकने के लिए अपनी पूरी जान लगा दी है। फिलहाल कोविड-19 जाँच मुख्य मुद्दा है और अब जाँच में वेटिंग चलने लगी है जो कि बेहद गंभीर बात है और इसका मुख्य कारण जाँच केंद्रों की कमी, टेस्टिंग प्रोब की निर्यात निर्भरता और लैब में मानव संसाधन की कमी है।
और अगर हम गैर कोरोना मरीजों की बात करें तो स्थिति और भी खराब है देश भर की ज्यादातर निजी चिकित्सालय या तो बंद पड़े हैं या तो उसमें से चिकित्सक गायब है। इसको लेकर सरकार अपील कर रही थी और कभी कभी आदेश भी दे रही थी। इसके बावजुद भी गैर कोरोना मरीजों को ईलाज नहीं मिल पा रहा है।

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कोरोना काल में भी कैसे संजीदा रखें रोमांटिक लाइफ -संजय रोकड़े

आज तक जितनी भी महामारियां संसार में फैली है उन सबने मानव जीवन के हर पक्ष को प्रभावित किया है। एक तरफ वह भूखमरी और बेरोजगारी का संकट पैदा करती है तो दूसरी तरफ इंसानी जिंदगी की रूमानियत को भी प्रभावित करती है। कोरोना ने भी इंसान की रोमांटिक लाईफ को बुरी तरह से प्रभावित किया है।
कोरोना जैसी महामारी पर अंकुश लगाने के लिए शासन-प्रशासन का तमाम तंत्र होम क्वारंटीन को ज्यादा से ज्यादा अपनाने के लिए सलाह दे रहा है या दबाव बना रहा है। हालाकि इसके फायदे हैं तो नुकसान भी है।
इस समय होम क्वारंटीन के चलते तमाम लोगों के बीच दूरी बनाएं रखने की बात की जा रही है। शादीशुदा महिला-पुरूष को भी एक दूसरे के बीच विशेष रूप से दूरी बनाए रखने की सलाह दी जा रही है।

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भारत को ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ शब्द से इतना प्यार क्यों है

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बहुत सोच विचार के बाद सोशल डिस्टेंसिंग शब्द का प्रयोग बंद कर दिया है और प्रेस कॉनफ्रेंस में भी सावधानी बरती जा रही है कि सोशल डिस्टेंसिंग शब्द न बोला जाए।
कोरोनावायरस की महामारी के समय भारत में ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ शब्द काफी प्रचलित हो रहा है। इसका प्रयोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने भाषण में किया है. स्वास्थ्य मंत्रालय भी इसी शब्द का इस्तेमाल अपने दस्तावेजों और निर्देशों में कर रहा है।
सोशल डिस्टेंसिंग को परिभाषित करते हुए स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा है कि ‘ये संक्रामक बीमारियों को रोकने की एक अचिकित्सकीय विधि है जिसका मकसद संक्रमित और असंक्रमित लोगों के बीच संपर्क को रोकना या कम करना है ताकि बीमारी को फैलने से रोका जाए या संक्रमण की रफ्तार को कम किया जा सके. सोशल डिस्टेंसिंग से बीमारी के फैलने और उससे होने वाली मौतों को रोकने में मदद मिलती है.’।
इसका वर्तमान संदर्भ में अर्थ ये बताया जा रहा है कि लोगों को अनावश्यक एक दूसरे के संपर्क में या पास-पास नहीं रहना चाहिए, बिना वाजिब वजह के घर से नहीं निकलना चाहिए, हाथ मिलाने या गले मिलने से परहेज करना चाहिए, ताकि कोरोनावायरस फैल न सके।

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आखिर कब तक…??

चीन से निकले कोरोना वायरस ने पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया है। आज हर आदमी मौत के साए में जी रहा है। एक डर जीवन का कि हम सेफ रहेंगे कि नहीं? हालांकि अभी साबित नहीं हुआ है कि यह वायरस चीन का जैविक हथियार है या चमगादड़ों से फैली बीमारी है जिसने महामारी का रूप ले लिया है फिर भी इस महामारी का तांडव बहुत भयानक है। लाशों के आंकड़ों की बात करें तो इसका कोई हिसाब नहीं है। कितने ही संक्रमित लोग और डॉक्टर, नर्स की सेवाएं और हॉस्पिटल, बेड इन आंकड़ों के सामने नकारा साबित हो रहे हैं। हर रोज एक नई दिल दहला देने वाली खबर सुनाई जाती है। हमारे पास लाकडाउन के सिवा और कोई पर्याय नहीं है। लेकिन एक सवाल यह भी उपजता है कि हम बैठे बैठे आखिर कब तक घर संभाल पाएंगे? और इस पर नियंत्रण कब पाया जाएगा? सबसे बुरी हालत मजदूर वर्ग और खुदरा व्यापार वालों की है।
इस वायरस से संक्रमित लोगों का बढ़ता हुआ आंकड़ा लोगों में दहशत फैला रहा है।

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कोरोना के बहाने मोदी की दोगली राजनीति उजागर

एमपी में कोविड़-19 नहीं निशाने पर शिवराज
राजनीति का भी अपना एक अलग ही चरित्र होता है। इसमें कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हम जो न चाहे वह भी मजबूरी में करना पड़ जाता है। ये बात विपक्ष के संबंध में नही कही जा रही है। ये बात पक्ष या सत्ता पर बैठे दलों या नेताओं के संदर्भ में कही जा रही है।
दरअसल मसला ये है कि देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी व गृहमंत्री अमित शाह अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ नेता व मध्यप्रदेश में चौथी बार बने नए नवेले मुख्यमंत्री को शिवराज सिंह चौहान को कोरोना महामारी के बहाने निपटाने की चाल चल रहे है। बता दे कि इस समय गुजरात में कोरोना की स्थिति एमपी से भी गंभीर स्थिति में है लेकिन वहां केन्द्रीय जांच दल को न भेज कर एमपी की घेराबंदी की है क्यों?

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आधुनिकता का दास आदमी…

परिवर्तन संसार का नियम है- सामाजिक ढांचा बदलते रहता है और साथ ही परिवेश भी। सोचती हूं कि वो दौर ज्यादा अच्छा था जब मशीनों के हम बंदी नहीं थे। हम स्वतंत्र थे इस मायने में कि हम मशीनों पर निर्भर नहीं थे। हमारी अपनी ऊर्जा और समझ महफूज थी। आदमी के विकास की गति धीमी जरूर थी मगर इंसान का वजूद जरूर दिख जाता था। आर्थिक जरूरतों और विकास के मद्देनजर हमें मशीनों की प्रभुता स्वीकार करनी पड़ी है और इस बात को नकारा भी नहीं जा सकता, मगर जब रोजमर्रा का जीवन मशीनीकरण होते जा रहा हो तो मशीनीयुग या मशीनों द्वारा बंदी कहा जाना ज्यादा सही होगा। आज हर छोटी बड़ी चीज के लिए हम मशीनों पर निर्भर है। घर की सफाई से लेकर खरीदी, लेन देन, व्यापार, पढ़ाई और रिश्ते भी मशीनी युग के हवाले हो गए हैं। अक्सर मजाक में ही सही मगर एक तस्वीर वायरल होते रहती है कि घर के सदस्य एक ही कमरे में बैठे हैं मगर हर व्यक्ति अपने मोबाइल में बिजी है। जहां हंसी ठिठोली की आवाजें या आपसी बातचीत होनी चाहिए वहां एक सन्नाटा पसरा रहता है। ये सही है कि वक्त, जरूरत और परिस्थिति के हिसाब से संसाधनों में बदलाव आना जरूरी है मगर इन संसाधनों का उपयोग कैसे और कितना किया जाये इसका मापदंड भी तय किया जाना चाहिए।

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तब्लीगी जमात इस देश के मुसलमान की पहचान नहीं है

कोरोना के खिलाफ अपनी लड़ाई में भारत धीरे धीरे लेकिन मजबूती के साथ आगे बढ़ रहा है। स्वास्थ्य मंत्रालय के ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि देश मेंकोरोना मरीजों की संख्या में वृद्धि होने की गति कम हुई है। यह संख्या अब 7.5 दिनों में दुगुनी हो रही है। लेकिन इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि कोरोना से इस लड़ाई के दौरान निजामुद्दीन में तब्लीगी जमात का मारकज़ सबसे कमजोर कड़ी साबित हुआ। और शायद इसी वजह से यह संगठन जिसके नाम और गतिविधियों से अब तक देश के अधिकतर लोग अनजान थे आज उसका नाम और उसकी करतूतें देश की सुरक्षा एजेंसियों से लेकर आम आदमी की जुबां पर है। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं निकाला जाए कि तब्लीगी जमात के अस्तित्व से दुनिया अनजान थी। विश्व के अनेक देशों की खुफिया एजेंसियों की नज़र काफी पहले से इन पर थीं। काफी पहले से ही इन पर विभिन्न देशों में होने वाली आतंकवादी गतिविधियों में परोक्ष रूप से शामिल होने के आरोप लगते रहे हैं।

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बेनकाब होता चीन

पूरे विश्व को कोरोना महामारी की सौगात देने वाले चीन की काली करतूतों पर से धीरे-धीरे पर्दा उठने लगा है| पूंजीवादी संस्कृति किसी देश को नैतिक रूप से कितना दीवालिया कर सकती है, चीन इसका जीता जागता उदाहरण है| कहने को तो चीन में कम्यूनिस्ट पार्टी की सत्ता है| परन्तु उसकी संस्कृति घनघोर पूंजीवादी है| ऐसे देश के नेतृत्व की दृष्टि में न तो दूसरे देश के नागरिकों की जान का कोई मूल्य होता है और न ही अपने देश के नागरिकों के प्राणों की कोई कीमत होती है| उनकी सारी शक्ति स्वयं के पूंजी विस्तार पर ही केन्द्रित रहती है| जनवरी माह में जब चीन में मृत्यु का ताण्डव शुरू हुआ तब पूरा विश्व चीन को संवेदनशील दृष्टि से देख रहा था| उसकी मदद के लिए हर तरफ से हाँथ उठ रहे थे| लेकिन कोविड-19 नामक महामारी के पीछे छुपा चीन का कलुषित चेहरा जैसे-जैसे उजागर हो रहा है, वैसे-वैसे विश्व का प्रत्येक देश चीन को हिकारत भरी निगाहों से देखने लगा है| अमेरिका सहित विश्व के कई देश लामबन्द होकर न केवल चीन के विरुद्ध अन्तर्राष्ट्रीय अदालत का दरवाजा खटखटाने की तैयारी कर रहे हैं बल्कि दूसरे तरीकों से भी चीन को सबक सिखाने की योजना बना रहे हैं| सम्भवता इसका आभास चीन को भी हो चुका है| शायद तभी उसने गोपनीय तरीके से अपने परमाणु अस्त्रों का परीक्षण शुरू कर दिया है| उधर अमेरिकी सेनाओं ने भी चीन के विरुद्ध मोर्चा सम्भाल लिया है|

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बेनकाब होते वैश्विक संघठन

आज पूरा विश्व संकट के दौर से गुज़र रहा है। कोरोना नामक महामारी से दुनिया भर के विकसित कहे जाने वाले देशों तक में होने वाले त्राहिमाम को देखकर आशंका होती है कि कहीं ये एक युग के अंत की शुरुआत तो नहीं। क्योंकि जैसी वर्तमान स्थिति है, इसमें इस महामारी का अगर कोई एकमात्र इलाज है तो वो है स्वयं को इससे बचाना। तो जब तक लॉक डाउन है तबतक हम घरों में सुरक्षित हैं लेकिन जीवन भर न तो आप लॉक डाउन में रह सकते हैं और ना हो कोई देश। इसलिए आवश्यक हो जाता है कि हम पूरे विश्व पर आई इस विपत्ति से कुछ सबक सीखें।
अगर मानव सभ्यता के इतिहास पर नज़र डालें तो मानव ने शुरुआत से ही अनेक चुनौतियों का सामना करके अपने बाहुबल और बौद्धिक क्षमता के सहारे ही वर्तमान मुकाम को हासिल किया है। इस पूरे सफर में अगर उसका कोई सबसे बड़ा मित्र था, तो वो था उसका आत्म विश्लेषणात्मक स्वभाव जो उसे अपनी गलतियों से सीखने के लिए प्रोत्साहित करता था। भारत की सनातन संस्कृति के स्वाभानुसार यह विश्लेषणात्मक विवेचन आत्मकेंद्रित ना होकर इसमें सम्पूर्ण प्रकृति एवं मानवता का भी कुशलक्षेम शामिल होता था। और यह संभव होता था उन नैतिक मूल्यों से जो उसे सही और गलत का भेद कराते थे। किंतु समय के प्रवाह के साथ परिभाषाएं बदलीं तो नैतिक मूल्य कहीं पीछे छूटते गए।

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अब बस दवा की दरकार- संजय रोकड़े

कोरोना की महामारी के चलते आज पूरा संसार दहशत में है। आमजन को एक तरफ इससे होने वाली मौत का डऱ सता रहा है तो दूसरी तरफ भूखमरी की चिंता भी परेशान करने लगी है। इन सबके अलावा इसकी दवा न होना सबसे बड़ी परेशानी का सबब बन गई है। मतलब यह भी कह सकते है कि इसकी दवा का न होना आज विश्व के सामने बड़ी चुनौती के रूप में उभरी है। अब वक्त रहते इसके उपचार के लिए दवा और इलाज के सही तरीके खोजना बेहद जरूरी हो गया है। हालाकि कई देश इसकी दवा खोजने के काम में जुटे है।

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