भारत-श्रीलंका के मध्य कतिपय मुद्दों को लेकर तनाव बना हुआ है। जल क्षेत्र और मछुआरों को लेकर प्रायः संघर्ष की स्थिति बनी रहती है। रानिल विक्रमसिंघे ने दो टूक ढंग से कह दिया है कि श्रीलंकाई जलक्षेत्र में भारतीय मछुआरों को महाजाल का प्रयोग करने की अनुमति बिल्कुल नहीं दी जाएगी। वास्तव में भारत और श्रीलंका के परस्पर संबंध पिछले कुछ दशकों से निरंतर जटिल बने रहे हैं। भारतीय पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा श्रीलंका के गृह युद्ध में हस्तक्षेप किया गया था, जिसके बाद से ही श्रीलंका और भारत के संबंधों में फिर कभी वैसी उष्मा और सहिष्णुता दिखाई नहीं पड़ सकी। श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति महिंद्रा राजपक्षे के कार्यकाल के आखिरी दौर में तो भारत-श्रीलंका के द्विपक्षीय संबंध बहुत अधिक खराब हो गए थे। यह उम्मीद की जा रही थी कि श्रीलंका में सत्ता परिवर्तन के उपरांत भारत-श्रीलंका संबंधों को नई दिशा और उष्मा प्राप्त होगी, परंतु ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा है कि इस संदर्भ में सहजता के साथ आगे बढ़ा जा सकेगा। वास्तव में विदेश नीति और कूटनीति के स्तर पर कोई भी बदलाव कभी भी यकायक संभव नहीं होता। भारत प्रायः विदेश नीति के स्तर पर पड़ोसी देशों को लेकर अनावश्यक रूप से खुशफहमी तथा व्यर्थ का आशावाद पाल लेता है, जबकि विदेश नीति को सदैव राष्ट्रीय हितों के मद्देनजर वास्तविकता, सतर्कता और सजगता के आधार पर निर्धारित किया जाना चाहिए। भारत को कूटनीति के मामले में चीन के आचरण और व्यवहार से बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है, जो कभी भी विदेश नीति के संदर्भ में अनावश्यक खुशफहमी और आशावाद कभी नहीं पालता। चीन अपने नेताओं के विदेश दौरों और विदेशी नेताओं के चीन आगमन के समय कभी भी बढ़-चढ़कर न तो बयानबाजी करता है और न ही कभी इन यात्राओं को लेकर अनावश्यक उत्साह अथवा व्यर्थ का आशावाद दिखाता है। भारत को यह समझना चाहिए कि भले ही द्विपक्षीय कूटनीतिक यात्राएं कैसा भी उत्साहपूर्ण वातावरण बनाएं, परंतु असली चीज तो देश की अपनी अंदरुनी तैयारी और स्थाई शक्ति व सामर्थ्य ही होती है। यदि हम आर्थिक एवं सैन्य दृष्टि से सक्षम और सशक्त होंगे, तो अन्य देश भी हमारा सम्मान करेंगे। विदेश नीति दिखावे की वस्तु नहीं होती, वरन यह किसी देश की बुनियादी शक्ति और क्षमताओं का प्रतिबिंब होती है।
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