कहा जाता है कि भारत कृषि प्रधान देश है या भारत गांवों में बसता है। वैसे ये बात सही है कि भारत गांवों में ही बसता है। देश का मजबूत आधार किसान है और यही किसान अब राजनीति की भेंट चढ़ गए हैं। उनकी समस्याएं और उनसे जुड़े मुद्दे सियासी भट्टी में तप रहे हैं। उनके नाम पर योजनाएं तो बनती है लेकिन उसका लाभ किसानों को नहीं मिलता। कर्जमाफी के नाम पर सरकारें बदलती रहतीं है। आज भी 70% किसानों को दो वक्त की रोटी के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है और जो 30% किसान हैं वे नौकरीपेशा या धनी किसान होते हैं जो सुविधा संपन्न होते हैं। इन 70% गरीब किसानों को चुनावी मुद्दा बनाकर घोषणा पत्रों में जगह तो मिल जाती है लेकिन उनकी हालत ज्यों की त्यों रहती है। वोट का मोहरा बनते किसान लोकलुभावन वादों के आसरे रह जाते हैं।
एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि किसान महिला को किसान का दर्जा नहीं मिलता, उनकी सुरक्षा व्यवस्था का कोई इंतजाम नहीं होता, उनके न्यूनतम मेहनताने का कहीं किसी योजनाओं में कोई जिक्र नहीं होता। किसानों की सबसे बड़ी समस्या उनको उनका समर्थन मूल्य का ना मिलना है। खाद, बीज, कीटनाशक दवाओं पर खर्च होने के बाद गुजारे के लिए भी मुश्किल से वह पूंजी जमा कर पाता है और अगर प्राकृतिक आपदा आ जाती है ऐसे में ये आपदा उस पर गाज बनकर गिरती है। ऐसे में जो फसलों का नुकसान होता है वो उसकी भरपाई कैसे करें? फसल बीमा योजना का लाभ बहुत से किसान नहीं उठा पाते, यह सिर्फ आंकड़ों में ही दिखते हैं। कर्जमाफी, समर्थन मूल्य जैसे मुद्दे सिर्फ चुनावी घोषणाओं में ही देखने सुनने को मिलते हैं। उनकी समस्याएं, उनकी आय, सुविधाएं, बेरोजगारी जैसे मुद्दे अब गायब रहते हैं।
बात यहीं पर खत्म हो जाती है ऐसा नहीं है जब कभी किसानों की पैदावार अच्छी होती है तो उन्हें समर्थन मूल्य न मिलने के कारण उन्हें अपनी फसल औने पौने भाव में बेचनी पड़ती है और ना बेचने की हालत में उनका अनाज सड़ जाता है यहीं पर बिचौलिए किसानों से मुनाफा कमा लेते हैं, कम भाव में खरीदकर ठेकेदारों को भी मुनाफा करवाते हैं। अभी कुछ दिन पहले की बात है कि मध्यप्रदेश के मंदसौर में लहसुन और प्याज मुख्य तौर पर उगाए जाते हैं। बड़े शहरों में प्याज बढ़ी हुई कीमतों में बिकता है लेकिन मंदसौर में 50 पैसे प्रति किलो के हिसाब से बिक रहा था लेकिन फिर भी कोई खरीदार नहीं था। कृषि मंडी से लेकर मंदसौर के खेतों तक प्याज का अंबार लगा हुआ था। अच्छी फसल से किसानों को अच्छी आमदनी की आस रहती है लेकिन समर्थन मूल्य न मिलने की वजह से आज वो दिवालियेपन की स्थिति में है। कुछ किसानों ने प्याज कृषि मंडी में पहुंचाये मगर सही दाम ना मिलने पर मंडी पर छोड़ कर चले गए। खेतों से मंडी तक फसल लाने का किराया भी किसान नहीं निकाल पा रहे। ऐसे में वह अपनी फसल वापस कैसे ले जाए? किसानों में रोष है कि चाहे केंद्र सरकार हो या राज्य सरकार हो हमारे बारे में कोई नहीं सोचता है।
यह बात तो सिर्फ प्याज की है इसी तरह हमारे यहां अनाज की पैदावार बहुत है हमारे बहुतायत मात्रा में दाल, गेहूं अन्य अनाज पैदा होते हैं फिर भी वह अनाज गोदामों में सड़ता रहता है, चूहे खा जाते हैं। भरपूर मात्रा में अनाज पैदा होने के बावजूद हमें बाहर से अनाज क्यों आयात करना पड़ता है? क्यों नहीं सरकार उन किसानों के बारे में सोचती जो अपना सब कुछ दांव पर लगाकर खेती से जीविकोपार्जन करती हैं? मुनाफे के लिए एक्सपोर्ट कंपनियों के लिए एक्सपोर्ट ड्यूटी कम कर दी जाती है बिल्कुल ना के बराबर। बड़ी सौदेबाजी होती और बड़ी कंपनियों को मोटा मुनाफा मिलता लेकिन भारत के किसानों को उनका भाव भी नही मिल पाता। 2016 में एक्सपोर्ट ड्यूटी 30% थी। जिसे 2017 के आखिर में घटाते 0% तक हो गई। विदेश से 0% शुल्क पर आयात करने पर अनाज यहां से भी सस्ता पड़ता है और फिर मोटा मुनाफा कमाया जाता। 2017 में गेंहू विदेश से आयात कर भारत मे 1150 रु क्विंटल तक था जबकि भारत मे 1400 के करीब का भाव था। बड़ी कंपनियां हजारों टन का सौदा करती और हजारो करोड़ का लेनदेन एक बार मे ही हो जाता। यही बदहाली और बेरोजगारी किसानों को शहर की ओर पलायन करवाती है। आज कोई भी युवा खेती किसानी नहीं करना चाहता क्योंकि खेती में उनको अपना भविष्य अंधकारमय और घाटे का सौदा लगता है। सरकार को किसानों के विषय में गंभीर चिंतन करना चाहिए ताकि उनकी स्थिति में बदलाव आ सके। अनाज को लेकर जो कालाबाजारी होती है उस पर सख्त कानून बननी चाहिए। -प्रियंका माहेश्वरी