सामाजिक मान्यताएं जब किसी के लिए बिडम्बना बन जाती हैं, तब उस व्यक्ति के जीवन में संघर्ष कितने गुना बढ़ जाता है, सामान्य व्यक्ति इस बात का सिर्फ अनुमान ही लगा सकता है। जरा सोचिये जब किसी माँ-बाप का छोटा सा बच्चा उनकी आँखों के सामने से मात्र कुछ क्षण के लिए ओझल होता है, तब उनके ह्रदय पर कितना बड़ा आघात लगता है। लेकिन जब उन्हीं माँ-बाप का एक बच्चा ट्रांस जेण्डर के रूप में जन्म लेता है, तब वे उसे निराश्रित जीवन जीने के लिए आखिर क्यों छोड़ देते हैं? यह प्रश्न आज तक निरुत्तरित है। ऐसे बच्चों के घर छोड़ देने मात्र से क्या समाज का उनके प्रति नजरिया बदल जाता है? समाज की विकृत सोच और दृष्टिकोण से स्वयं को बचाने के लिए माता-पिता जब अपनी ट्रांस जेण्डर सन्तान को त्यागते हैं, तब उनका सन्तान के प्रति ममत्व आखिर कहाँ चला जाता है? एक प्रश्न यह भी है कि क्या कोई भी बच्चा स्वयं अपने लिंग का निर्धारण करता है? तो इसका उत्तर सर्वथा न में ही होगा। अतः जब कोई भी बच्चा अपने लिंग निर्धारण के लिए स्वयं जिम्मेदार नहीं है, तब फिर समाज उसे हिकारत की दृष्टि से आखिर क्यों देखता है? यहाँ यह भी सोचना चाहिए कि जो समाज माता-पिता के सामने ही उनके ट्रांस जेण्डर बच्चे के प्रति अपना दृष्टिकोण संवेदनशील नहीं रखता, वह समाज माता-पिता से दूर हुए उसी बच्चे के प्रति कितना संवेदनशील रवैया अपनाएगा, इसका अन्दाजा बड़ी ही सरलता से लगाया जा सकता है। जब एक शिशु भूख से रोता है, तब उसकी माँ की ममता स्तनों में दुग्ध बनकर प्रवाहित होने लगती है। लेकिन जब वही बच्चा अपनी भूख मिटाने के लिए चैराहों पर भीख मांगता है, लोगों की विकृत मानसिकता से युक्त निगाहों का नित्यप्रति शिकार होता है, तब माँ के हृदय में वात्सल्य का वह भाव आखिर क्यों उत्पन्न नहीं होता है? देश दुनियां का शायद ही कोई ऐसा ट्रांस जेण्डर हो जिसके जीवन में यह सब न होता हो। अगर देखा जाए तो किन्नरों के जीवन की शुरुआत ही संघर्ष से होती है। लेकिन किसी के मन में यदि कुछ अलग हटकर करने की जुगुप्सा है तो वह अपने स्वप्न साकार कर ही लेता है। इस समय कई भारतीय किन्नरों के नाम प्रकाश में आ रहे हैं जिन्होंने विपरीत सामाजिक परिस्थितियों से लड़ते हुए ऐसे-ऐसे मुकाम हासिल किये हैं जो एक साधारण व्यक्ति के लिए सदैव असम्भव से प्रतीत होते हैं।
वर्तमान समय में एक नाम जो सबसे अधिक चर्चा में है, वह है किन्नर अखाड़े के आचार्य महामंडलेश्वर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी का। किन्नरों को नयी पहचान दिलाने का श्रेय इन्हें ही जाता है। अंग्रेजी में प्रकाशित इनकी आत्मकथा “मी हिजड़ा मी लक्ष्मी” काफी लोकप्रिय हुई है। इस पुस्तक में त्रिपाठी जी ने अपने संघर्षपूर्ण जीवन के दिनों की कहानी का वर्णन किया है। इसका हिन्दी अनुवाद भी “मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी” नाम से हाल ही में प्रकाशित हुआ है। सड़क से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी ने किन्नरों की जो लड़ाई लड़ी उसके परिणामस्वरूप ही किन्नरों को तृतीय लिंग के रूप में परिभाषित किया गया। लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी की पहचान सामाजिक कार्यकर्ता, भरतनाट्यम डांसर तथा टी.वी.कलाकार के रूप में होती है। जो कि दूरदर्शन के चर्चित कार्यक्रम “बिग-बॉस सीजन-5”, “राज पिछले जनम का”, “सच का सामना” तथा “दस का दम” में प्रतिभाग कर चुकी हैं। 2 मई 2016 को उज्जैन के सिंहस्थ कुम्भ में लक्ष्मी नारायण को किन्नर अखाड़े का आचार्य महामंडलेश्वर बनाया गया था। किन्नर अखाड़े की स्थापना ऋषि अजयदास के द्वारा 13 अक्टूबर 2015 को 14वें अखाड़े के रूप में की गई थी। परन्तु इसे अखाडा परिषद् से मान्यता नहीं मिल सकी।
लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी का जन्म 13 दिसम्बर 1978 को महारष्ट्र के ठाणे स्थित मारुति बाई अस्पताल में हुआ था। ब्राह्मण परिवार में जन्मी लक्ष्मी ने बचपन में ही नृत्य का प्रशिक्षण प्राप्त कर लिया था। उसके बाद मुम्बई के मीठीबाई कॉलेज से बी.कॉम. तक की शिक्षा प्राप्त की। तत्पश्चात भरत नाट्यम विषय में परास्नातक की उपाधि ग्रहण की। इसके अलावा लक्ष्मी नारायाण त्रिपाठी विभिन्न सामाजिक संस्थाओं के साथ मिलकर कैंसर तथा एच.आई.वी. जैसे असाध्य रोगों के लिए भी कार्य कर रही हैं। इन्होंने न केवल किन्नरों की बल्कि महिलाओं की समस्याओं को भी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक बार उठाया है। विश्व के अनेक देशों में इन्होंने भारतीय हिजड़ा समाज का कई बार प्रतिनिधित्व किया है और अनेक पुरस्कार तथा सम्मान भी प्राप्त किये हैं। हिजड़ा समाज की शिक्षा और अधिकारों के लिए त्रिपाठी जी सतत रूप से संघर्ष कर रहे हैं।
महामंडलेश्वर बनने के तुरन्त बाद इन्होंने दिल्ली, जयपुर, बड़ौदा, नलखेड़ा और नासिक सहित पांच शहरों से आये एक-एक किन्नर गुरु को उस शहर का पीठाधीश्वर तथा अन्य पांच किन्नरों को महंत बनाया था। अखाडा परिषद् से मान्यता न मिलने की बात पर लक्ष्मी नारायण का कहना है कि हमें किसी अखाड़े से मान्यता की आवश्यकता नहीं है। किन्नरों को प्रकृति ने मान्यता दी है। महामंडलेश्वर बनने के बाद मैं जैसी हूँ वैसी ही रहूंगी। कोई ढकोसला नहीं करुँगी। इसी कारण वह आज तक किन्नरों के परिधान में ही रहती हैं।
अपने जीवन के सन्दर्भ में एक टी.वी.चैनल को दिए साक्षात्कार में लक्ष्मी ने बताया कि बचपन तो जैसे उन्होंने कभी देखा ही नहीं। हमें पता ही नहीं कि हम कब जवान हुए। हम जवान ही पैदा हुए या दुनियां के तानों ने पता नहीं कब हमें जवान कर दिया। लोगों की हिकारत भरी नजरे जिंदगी में हमेशा चुभती रहीं। अब अच्छा लगता है। क्योंकि अब जमाना जानता हैं। मेरे काम को सराहा गया। हंसते खेलते न जाने कितने काम कर लिए। समाज के कथित बुद्धिजीवी वर्ग की दृष्टि में जैसे हमारे समाज का कोई अस्तित्व ही नहीं है। अब इससे बड़ा दुःख भला और क्या हो सकता है? इसको झेलते हुए और यह बताते हुए कि हम भी एक माँ की कोख से पैदा हैं, हमारी भी दुनियां है, हमारी भी जिन्दगी है। जितना मान-सम्मान आप एक दूसरे को देते हो, उसी तरह थोड़ा प्यार हमें भी दो। हम भी हैं इस दुनियां में। लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी ने “अस्तित्व” नाम से एक गैर सरकारी संगठन की भी स्थापना की है और इस संगठन के माध्यम से ही इन्होंने अपने समाज के अस्तित्व की लड़ाई लड़नी प्रारम्भ की थी। जो आज तक सतत रूप से चल रही है। उनका कहना है कि हमें पैसा नहीं चाहिए। हमें दूसरे स्कूल और हॉस्पिटल नहीं चाहिए। हमें वही स्कूल और हॉस्पिटल चाहिए जो सबके लिए हैं। संवैधानिक तथा सामाजिक रूप से हमें वहीँ स्थान चाहिए जो समाज के सामान्य जन के लिए निर्धारित हंै। समाज के दूसरे लोग अध्यापक, पत्रकार, डॉक्टर, वकील, इंजीनियर आदि सब बन सकते हैं, तो हम क्यों नहीं बन सकते? हम भी किसी माँ की कोख में नौ महीने रहे हैं, किसी माँ की छाती का दूध पीकर बड़े हुए हैं। हम सातवें असमान से नहीं आये हैं। हमें सिर्फ प्यार, वह भी इज्जत के साथ चाहिए। हमें किसी की दया नहीं बल्कि प्यार चाहिए, ठीक वैसे ही जैसे समाज के सामान्य लोग एक दूसरे से करते हैं।
लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी की तरह अन्य अनेक ट्रांस जेण्डर अपने सामाजिक और संवैधानिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। उनका यह संघर्ष धीरे-धीरे रंग ला रहा है। लेकिन यह सब सफल तभी माना जायेगा जब ट्रांसजेण्डर्स के प्रति समाज का दृष्टिकोण बदलकर ठीक वैसा ही होगा जैसा एक सामान्य व्यक्ति के प्रति होता है।
Home » विविधा » समाज से संघर्ष करते हुए अपने स्वप्न साकार करते ट्रांस जेण्डर -डॉ.दीपकुमार शुक्ल (स्वतन्त्र पत्रकार)