अब किसान जागा है तो पूरा जागे
इस बात समझे कि भले ही अपनी फसल वो एक या दो रुपए में बेचने को विवश है लेकिन इस देश का आम आदमी उसके दाम एक दो रूपए नहीं कहीं ज्यादा चुकाता है तो यह सस्ता अनाज किसकी झोलियाँ भर रहा है?
किसान इस बात को समझे कि उसकी जरूरत कर्ज माफी की भीख नहीं अपनी मेहनत का पूरा हक है, वह सरकार की नीतियाँ अपने हक में माँगे बैंकों के लोन नहीं चाहे तमिलनाडु हो आन्ध्रप्रदेश हो महाराष्ट्र हो या फिर अब मध्यप्रदेश पूरे देश की पेट की भूख मिटाने वाला हमारे देश का किसान आज आजादी के 70 साल बाद भी खुद भूख से लाचार क्यों है?
इतना बेबस क्यों है कि आत्महत्या करने के लिए मजबूर है?
और जब हमारे देश का यही अन्नदाता अपनी ही सरकार से अपनी माँगो को मनवाने के लिए पाँच दिन से शांतिपूर्ण आन्दोलन कर रहा था तो छटे दिन अचानक क्यों वो उन आतंकवादियों से भी खतरनाक हो गया जिन पर पैलेट गन के उपयोग से भी मानवाधिकारों के हनन की बातें उठती हैं, लेकिन किसानों पर काबू पाने के लिए गोलियों का सहारा ले लिया गया और किसके आदेश पर?
और उससे भी शर्मनाक यह कि सरकार न तो किसानों की तकलीफ समझ पाई, न उनका आक्रोश और न ही परिस्थितियों को, शायद इसीलिए अपने अफसरों को बचाने में जुट गई। गृहमंत्री कहते रहे कि गोली पुलिस ने नहीं चलाई, आन्दोलन में असामाजिक तत्वों का बोलबाला था और एक जाँच कमेटी का गठन कर दिया गया यह जानने के लिए कि गोली ‘किसने’ चलाई जबकि महत्वपूर्ण एवं जांच का विषय यह था कि गोली ‘क्यों’ चलाई गई?
भारत एक कृषि प्रधान देश है। जब भारत आजाद हुआ था तब हम सभी जानते हैं कि 600 सालों तक मुग़ल शासन और उसके बाद लगभग 200 साल तक ब्रिटिश शासन से वह देश जो कभी सोने की चिड़िया के नाम से जाना जाता था एक उजड़ा चमन बन चुका था। देश आर्थिक रूप से इतना कमज़ोर था कि पूरी आबादी दो वक्त का भोजन भी ठीक से नहीं कर पाती थी। ये वो दिन थे जब युद्ध के हालात में देश के प्रधानमंत्री को देश की जनता से एक वक्त उपवास करने की अपील करनी पड़ी थी। पूरे देश के साथ लाल बहादुर शास्त्री जी स्वयं एक समय का भोजन करके देश के स्वाभिमान की रक्षा के लिए लड़ रहे थे। ये ही वो दौर था जब देश के किसानों ने सरकार के सहयोग से वो मेहनत करी कि देश की मिट्टी सोना उगलने लगी। यह वो मेहनत और लगन ही थी कि देश के प्रधानमंत्री ने अपने देश की नींव चार शब्दों में बयान कर दी “जय जवान जय किसान“। इस देश के हर नागरिक की भूख मिटाने वाला किसान है और देश की सरहद पर गोली खाने वाला एक सिपाही भी इसी किसान का बेटा है। जी हाँ सेना में भर्ती होने जवान किसी नेता या अफसर के नहीं इन्हीं किसानों के बेटे होते हैं। वो मध्यप्रदेश जो कभी “बीमारू राज्य” हुआ करता था इन्हीं किसानों की कमरतोड़ मेहनत के दम पर लगातार पांच बार कृषि कर्मण अवार्ड जीत चुका है उसी राज्य में किसानों के साथ यह व्यवहार? किसान आंदोलन में असामाजिक तत्व कैसे और क्यों आ गए? वजह कोई भी हो अन्ततः यह केवल सरकार एवं प्रशासनिक तंत्र की लापरवाही के सिवाय और कुछ नहीं है। सवाल तो बहुत हैं कि हमारी अर्थव्यवस्था का काफी हिस्सा कृषी पर आधारित होने के बावजूद क्यों किसानों को कर्ज माफी की मांग क्यों उठानी पड़ रही है?
यहाँ गौर करने लायक बात यह है कि किसानों की ताजा मुश्किल मौसम की मार या फिर कम पैदावार नहीं है। इनकी तकलीफ़ यह है कि सरकार की नीतियों के कारण बेहतर मानसून एवं पैदावार के बावजूद फसल के सीजन में प्याज आलू टमाटर और अन्य सब्जियों के दाम एक से दो रुपए तक गिर गई तो कमाई तो छोड़िये यह सोचिए कि क्या वे ऐसे में अपनी लागत भी निकाल पाएंगे?
दिन भर धूप में कड़ी मेहनत के दाम ए सी कमरों में लगाए जाएंगे?
हमारे देश के नेता आखिर कब तक अन्नदाता को केवल मतदाता समझ कर अपने स्वार्थ की रोटियाँ सेकते रहेंगे?
सत्ता पाने के लिए सभी राजनैतिक पार्टियाँ किसानों को कर्ज माफी का लालच दिखा देती हैं जबकि वे खुद इस बात को जानती हैं कि यह कोई स्थाई हल नहीं है इससे न तो किसान सक्षम बनेगा और न ही देश की अर्थव्यवस्था। नेताओं की सोच केवल चुनाव जीतने और सत्ता हासिल करने तक सीमित रहती है और किसान कर्ज माफी के तत्कालीन लालच में आ जाता है।
अब किसान जागा है तो पूरा जागे
इस बात समझे कि भले ही अपनी फसल वो एक या दो रुपए में बेचने को विवश है लेकिन इस देश का आम आदमी उसके दाम एक दो रूपए नहीं कहीं ज्यादा चुकाता है तो यह सस्ता अनाज किसकी झोलियाँ भर रहा है?
किसान इस बात को समझे कि उसकी जरूरत कर्ज माफी की भीख नहीं अपनी मेहनत का पूरा हक है, वह सरकार की नीतियाँ अपने हक में माँगे बैंकों के लोन नहीं और सबसे महत्वपूर्ण बात अपने आंदोलन को शांतिपूर्ण तरीके से आगे बढ़ाए और असामाजिक तत्वों से दूरी बनाए क्योंकि देश किसान के साथ है लेकिन हिंसा के नहीं सरकार को भी चाहिए कि पूरे देश को जीवन देने वाला स्वयं अपना जीवन लेने के लिए भविष्य में कभी भी विवश न हो।
डॉ नीलम महेंद्र