यह जो लड़ाई शुरू हुई है, वह न सिर्फ बहुत बड़ी लड़ाई है बल्कि बहुत मुश्किल भी है क्योंकि यहाँ सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि इस लड़ाई को वो उसी सरकारी तंत्र के ही सहारे लड़ रहे हैं जो भ्रष्टाचार में लिप्त है इसलिए लोगों के मन में सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि सिस्टम वही है और उसमें काम करने वाले लोग वही हैं तो क्या यह एक हारी हुई लड़ाई नहीं है?
नोट बंदी के फैसले को एक पखवाड़े से ऊपर का समय बीत गया है बैंकों की लाइनें छोटी होती जा रही हैं और देश कुछ कुछ संभलने लगा है।
जैसा कि होता है , कुछ लोग फैसले के समर्थन में हैं तो कुछ इसके विरोध में स्वाभाविक भी है किन्तु समर्थन अथवा विरोध तर्कसंगत हो तो ही शोभनीय लगता है।
जब किसी भी कार्य अथवा फैसले पर विचार किया जाता है तो सर्वप्रथम उस कार्य अथवा फैसले को लागू करने में निहित लक्ष्य देखा जाना चाहिए यदि नीयत सही हो तो फैसले का विरोध बेमानी हो जाता है।
यहाँ बात हो रही थी नोटबंदी के फैसले की । इस बात से तो शायद सभी सहमत होंगे कि सरकार के इस कदम का लक्ष्य देश की जड़ों को खोखला करने वाले भ्रष्टाचार एवं काले धन पर लगाम लगाना था।
यह सच है कि फैसला लागू करने में देश का अव्यवस्थाओं से सामना हुआ लेकिन कुछ हद तक वो अव्यवस्था काला धन रखने वालों द्वारा ही निर्मित की गईं थीं और आज भी की जा रही हैं।
जिस प्रकार बैंकों में लगने वाली लम्बी लम्बी कतारों के भेद खुल गए हैं उसी प्रकार आज बैंकों में अगर नगदी का संकट हैं तो उसका कारण भी यही काला धन रखने वाले लोग है।
सरकार ने जिन स्थानों को पुराने नोट लेने के लिए अधिकृत किया है वे ही कमीशन बेसिस पर कुछ ख़ास लोगों के काले धन को सफेद करने के काम में लगे हैं और जिन लोगों के पास नयी मुद्राएँ आ रही हैं वे उन्हें बैंकों में जमा कराने के बजाय मार्केट में ही लोगों का काला धन सफेद करके पैसा कमाने में लगे हैं इस प्रकार बैंकों से नए नोट निकल तो रहे हैं लेकिन वापस जमा न होने के कारण रोटेशन नहीं हो पा रहा।