Tuesday, April 22, 2025
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सम्पादकीय

नोटबंदी का फैसला साहसिक

जब से 500 व 1000 के पुराने नोट बन्द कर नए नोट चलाने की घोषणा प्रधानमंत्री द्वारा की गई है, तब से हर ओर इसी प्रकरण की चर्चा आम है। कोई प्रधान मंत्री के इस फैसले की आलोचना कर रहा है तो कोई उनके फैसले की सराहना करते नहीं थकता। हालांकि आम जन की बात करें तो परेशानी का सामना करते हुए भी प्रधानमंत्री जी के फैसले का स्वागत करने वालों की संख्या ज्यादा है। आम जन का कहना है है कि मोदी का कदम तो अच्छा है लेकिन व्यवस्थाओं में पूरी तैयारी न होने से परेशान होना पड़ रहा है। हालांकि जिन लोगों ने अकूत धन इकट्ठा कर लिया है वो उसे खपाने की जुगत में लगे हैं और जिनके पास कुछ ही धन है वो बैंकों में जमा करने व बदलवाने में प्रयासरत है। वहीं विपक्ष की बात करें तो वह केन्द्र सरकार को घेरने की जुगाड़ में लगा है लेकिन आम जन का सहयोग नहीं मिल रहा है इस लिए उसे मुंह की खानी पड़ रही है। पुराने नोट बन्दी के बाद से मचे हो हल्ले की सत्यता परखने के लिए मोदी जी ने नोटबंदी देश की राय जानने के लिए मोबाइल एप लांच करवाया और उसपर जो सर्वेक्षण कराया उस पर मात्र 24 घंटे के भीतर ही पाँच लाख से ज्यादा लोगों ने अपनी राय प्रकट कर दी। परिणामतः 93 प्रतिशत से अधिक लोगों ने विमुद्रीकरण का समर्थन किया है। जिसके चलते केंद्र सरकार को उत्साह मिला है और प्रधानमंत्री ने स्वयं इस परिणाम पर खुशी जताते हुए कहा कि इससे लोगों का मूड पता चलता है।

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कुनवा बना कमजोरी!

राजनीति में सबकुछ जायज कहा जाता है। किसी का चाहे अच्छा हो या बुरा लेकिन सभी अपना हित साधने की जुगत में रहते है। इसी का उदाहरण सामने देखने को मिला कि 25 वर्षों तक मुलायम सिंह यादव की सरपस्ती में जो समाजवादी कुनबा समाजवादी पार्टी की ताकत बनता रहा, वह अब पार्टी की कमजोरी बन गया है। इसका खामियाजा सपा को अगले वर्ष होने वाले विधान सभा चुनाव में भुगतना पड़ सकता है। वर्तमान पर गौर करें तो इस समय में 2017 के विधान सभा चुनाव की तैयारी में जुटी सपा अगर बैकफुट पर नजर आ रही है तो इसकी मुख्य वजह सत्ता विरोधी लहर से अधिक परिवार का अंतर्कलह है। खास बात यह है कि सपा में बड़े से बड़ा और छोटे से छोटा नेता भी मुलायम सिंह का हर आदेश मानने की सौगंध खाते मिल जायेगा, लेकिन मुलायम की सियासत और बातों में अब वजन नहीं दिखाई पड़ता है।
चचा-भतीजे यानीकि शिवपाल-अखिलेश के मनमुटाव ने पार्टी को तार-तार कर दिया है। इसी के चलते अखिलेश के पक्ष में खड़े रहने वाले और सपा के बड़े रणनीतिकार माने जाने वाले प्रोफेसर रामगोपाल यादव सहित तमाम सपा नेताओं को शिवपाल यादव ने बाहर का रास्ता दिखा दिया तो अखिलेश यादव ने चचा शिवपाल यादव और उनके करीबी मंत्रियों को अपने मंत्रिमंडल से बर्खास्त करके पारिवारिक जंग को और हवा देने का काम किया। यहां तक की लखनऊ में हुए दो बड़े आयोजनों तीन नवंबर को शुरू हुई अखिलेश की समाजवादी विकास रथ यात्रा और बिगत 5 नवंबर को समाजवादी पार्टी का रजत जयंती समारोह भी इससे अछूता नहीं रह पाया। दोनों ही जगह चाचा-भतीजे और उनके समर्थक एक-दूसरे पर जोरदार तंज कसते नजर आये। शिवपाल यादव सवाल खड़ा कर रहे थे उनसे कितना त्याग लिया जायेगा शिवपाल ने जैसे ही अखिलेश को यूपी का लोकप्रिय मुख्यमंत्री कहा, पंडाल में युवाओं की नारेबाजी शुरू हो गई। शिवपाल ने गुस्से में कहा, मुझे मुख्यमंत्री नहीं बनना, कभी नहीं बनना। चाहे मेरा जितना अपमान कर लेना। बर्खास्त कर लेना। खून माँगेंगे तो दूँगा। इसके थोड़ी देर बाद भाषण देने आये मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी पूरे रौ में दिखे।

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विपदा पर एकता का परिचय दें

देश पर विपदा आने पर हम सभी को एक स्वर में सहमति देते हुए चर्चा करना चाहिए क्योंकि अगर हम अलग-अलग आवाजों में बात करेंगे तो इससे विरोधियों को मजबूती मिलने का अवसर मिलेगा। इससे एक सवाल उठता है कि क्या हमारे राजनीतिक लाभ, विचारधारा का महत्व, व्यक्तिगत नेतृत्व की महत्वाकांक्षाएं देश से बड़ी हो सकती हैं? पिछले उदाहरणों को मानें तो हमारे पिता, पितामह की आंखों के सामने देश विभाजित हुआ था और उस दौरान लाखों लोग मारे गए थे और एक पुरखे होने के बावजूद साम्प्रदायिक उन्माद ने देश बांटा ही नहीं बल्कि नए शत्रु पैदा कर दिए।
वर्तमान के मुद्दे की बात करें तो अगर कश्मीर जाता है तो सोचिए किसकी क्षति है? और कश्मीर में आतंकवादियों का निर्मूलन होता है तो किसकी उपलब्धि होती है? हमारे देश के बलिदानों के बारे में गहराई से सोंचिए। हम प्रायः देशभक्ति टीवी के परदे के क्षणिक अतिरेकी उत्साह में लिपटती देखते हैं। लेकिन शहीद सैनिकों के परिजनों के दर्द को न समझते हुए उनके बलिदान पर राजनीति की रोटियां सेकने का अवसर खोजते हैं यह बहुत ही शर्मनाक है। फिर भी हम शहीदों के संदर्भ में शोर मचाना, वितण्डा खड़ा करना, अखबारों में ऐसे बयान देना कि मेरा स्वदेशी नेता तो आहत हो ही, मैं शत्रु देश में भी स्वदेश के खिलाफ प्रमाण बन जाऊं, यह सब चलता रहता है।

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पाक की पतली कर दी दाल

सर्जिकल स्ट्राइक को लेकर वर्तमान में भारत और पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के बीच जो चल रहा है, वह किसी अजूबे से कम नहीं है और शायद यह अंतरराष्ट्रीय राजनीति के इतिहास में एक विलक्षण प्रहसन के तौर पर जाना जाएगा। यह कटु सच्चाई है कि मुठभेड़ तो दो देशों के बीच हुई है, लेकिन दंगल उनके बीच नहीं हो रहा बल्कि दोनों देशों के अंदर ही चल रहा है। हमारे भारत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोधी हाथ धोकर उनके पीछे पड़ गए हैं तो पड़ोसी मुल्क में नवाज शरीफ के प्रति बहस दिख रही है। भारत के कुछ लोग मोदी से सबूत मांग रहे हैं, तो तमाम फौजी कार्रवाई की तारीफ जमकर कर रहे हैं। इसी बीच केन्द्र सरकार के हाथ मजबूत करने के नाम पर उसकी टांग खींचने में लगे दिख रहे हैं।

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आतंकी हमले से आक्रोश

उरी में सैनिकों के शिविर पर किए गए आंतकी हमले के दौरान शहीद हुए जवानों के परिवारों में जहां शोक की लहर है तो देशभर आम जन के बीच आक्रोश देखा जा रहा है। सामाजिक संगठनों के साथ चाहे आम हो या खास सभी पाक की इस कायराना हरकत का विरोध करते हुए पाक का पुतला फूंक कर अपने अपने स्तर से पाक के प्रति नाराजगी जाहिर कर रहे हैं तो देश के सभी राजनैनिक दलों ने भी इस हमले के प्रति पाक को करारा जवाब देने की राय व्यक्त की है। वहीं सोशल मीडिया पर अगर नजर डाली जाए तो चाहे आम हो या खास सभी ने एक ही स्वर में हां की है कि अब पाक को करारा जवाब ही दिया जाये न कि शोक संवेदना व्यक्त कर इतिश्री कर ली जाए। केन्द्र सरकार से देश के युवाओं ने यही कहा कि अब बहुत हो चुका है, आए दिन हमारे देश के जांबाज आये दिन शहीद हो रहे हैं और हम संवेदना देते रहते हैं। अब संवेदनाओं की बात नहीं बल्कि ठोस कार्रवाई करने का वक्त है। हालांकि केन्द्र सरकार ने पाक को अन्तराष्ट्रीय स्तर पर अलग थलग करने की बात कही है लेकिन देश के लोग अब इसे सही नहीं मानते उनका मानना है कि यह तो दशकों से कहा जा रहा है और नतीजा शून्य ही है। करारा जवाब देने की बात तो सभी सरकारें करती चली आई लेकिन वास्तविकता यही है कि पाक को करारा जवाब नहीं दिया गया। अगर भारत सरकार वास्तव में पाक को करारा जवाब देती तो शायद यह दिन देश को नहीं देखने पड़ते।

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