(कोरोनावायरस महामारी के दौरान केन्द्र, राज्य सरकारें तथा प्रशासन अपने स्तर पर मुस्तैदी से काम कर रहा है। सरकार के इन प्रयासों के साथ-साथ देश भर की कई धर्मार्थ संस्थाएं और गैर सरकारी संगठन सफल बनाने में जुटे हैं ताकि देश में इस महामारी से ज्यादा से ज्यादा लोगों की जिंदगी बचायी जा सके। एनसीसी, एनएसएस के स्काउट्स कहाँ है ? जिन पर अरबों रुपये सालाना खर्च होते है और जो सरकारी नौकरी में एक्स्ट्रा मार्क्स लेते है. आज जब उनकी सेवाओं की देश को जरूरत है तो वो घर बैठे है )
कोरोनावायरस महामारी के दौरान केन्द्र, राज्य सरकारें तथा प्रशासन अपने स्तर पर मुस्तैदी से काम कर रहा है। सरकार के इन प्रयासों के साथ-साथ देश भर की कई धर्मार्थ संस्थाएं और गैर सरकारी संगठन सफल बनाने में जुटे हैं ताकि देश में इस महामारी से ज्यादा से ज्यादा लोगों की जिंदगी बचायी जा सके। एनसीसी, एनएसएस के स्काउट्स कहाँ है ? जिन पर अरबों रुपये सालाना खर्च होते है और जो सरकारी नौकरी में एक्स्ट्रा मार्क्स लेते है. आज जब उनकी सेवाओं की देश को जरूरत है तो वो घर बैठे है. मगर आपने देखा होगा की सामान्य दिनों में अरबों की सरकारी सहायता प्राप्त कर मीडिया जगत में छाये रहने वाले और जगह-जगह अपनी ब्रांच का प्रचार करने वाले पंजीकृत गैर सरकारी संगठन यानी एनजीओ इस दौरान न जाने कहाँ दुबके रहे ?
लेख/विचार
“जीवन साथी”
जीवनसाथी का मतलब क्या होता है, एक लड़की या स्त्री को क्या चाहिए? अच्छा घर, अच्छा पति, अच्छे सास- ससुर, दो बच्चे और दो वक्त का खाना और कपड़े। क्या सारी जरूरतें खत्म हो गई? यही है क्या स्त्री की जरूरतें।
नहीं ये बातें उस ज़माने की है जब लड़कीयाँ ज़्यादा पढ़ी लिखी नहीं होती थी, नौकरी और घर दोनों संभालने की ज़िम्मेदारी नहीं थी सिर्फ़ पति के उपर निर्भर रहती थी। दबी-दबी सहमी सी चुटकी सिंदूर के बदले खुद को गिरवी रख देती थी। टोटली टिपिकल बहू बनकर पति की हर बात पर कठपुतली सी नाचती थी। वैसे आज 21वीं सदी में भी कुछ स्त्रियों की हालत वही की वही है कुछ नहीं बदला।
कुछ पतियों के लिए चुटकी सिंदूर का मतलब स्त्री पर आधिपत्य जताने का लाइसेंस मात्र होता है। प्यार, परवाह और कदम-कदम पर पत्नी का हाथ थामकर चलने में कई मर्दो के अहं को ठेस पहुंचती है। पत्नी का साथ देने के चक्कर में कहीं लोग जोरू का गुलाम ना समझ बैठे ये सोचकर कतराते है पत्नी का साथ देने में और सम्मान करने में।
जीवन में कुछ बनने के लिए विनम्र होना जरूरी – बीज को भी पेड़ बनने जमीन के नीचे दबना पड़ता है
वैश्विक मानवीय गुणों में से एक विनम्रता – यह मानव जीवन का बहुमूल्य श्रंगार, श्रेष्ठ गुणवत्ता अस्त्र – एड किशन भावनानी
वैश्विक मानवीय जीवन शैली को अगर हम देखें तो आधुनिकता का भाव कूट-कूट कर भरा है। वर्तमान डिजिटलाइजेशन और वैज्ञानिक युग में वैश्विक स्तरपर पुरानी परंपराओं, पौराणिक मान्यताओं, रीति-रिवाजों की सोच, आज वैश्विक स्तर पर वैज्ञानिक सोच ने इनका स्थान ग्रहण लिया है स्थिति आज ऐसी हो गई है कि यदि कोई इन रीति-रिवाजों, मान्यताओं, पौराणिक धार्मिकता, पर अपनी बात करेगा तो उसे पुरानी सोच, दकियानूसी बातें, हो गया पुराना जमाना, कह कर हंसी का पात्र बना दिया जाता है।…. बात अगर हम भारत की करें तो कुछ स्तर पर यहां भी ऐसी सोच पाश्चात्य देशों की तर्ज पर स्थापित होती जा रही है। परंतु यह भारतीय मिट्टी इसे सिरे से खारिज करने में अदृश्य अनमोल रोल अदा कर रहीं है।…बात अगर मानवीय गुणों की करें तो भारतीय मानवीय गुण विश्व में सर्वाधिक प्रसिद्ध है। मानवीय गुणों की श्रेष्ठता में भारत प्रथम रैंक में आएगा ऐसा मेरा मानना है।
तीसरे विश्वयुद्ध का हूंकार: 35 एकड़ का भूमि का टुकड़ा
क्या हम तीसरे विश्व युद्ध की ओर बढ़ रहे हैं? जब से कोविड-19 ने दस्तक दी है चारों ओर त्राहि-त्राहि का मंजर रहा है। परंतु पिछले वर्ष से हमें काफी सारे जियो पोलिटिकल बदलाव दिखे हैं। इस आधुनिक युग में युद्ध की परिस्थितियां निरंतर पनप रही है। वैश्विक महामारी कई वैज्ञानिकों के अनुसार चीन के निजी फायदे के लिए थी जो एक बायोलॉजिकल वारफेयर की तरह विश्व में फैलाई गई वहीं चीन अपनी आदतों से बाज ना आते हुए हमारे पड़ोसी होने का गलत फायदा उठा रहा था जो गलवान घाटी घटना के रूप में नज़र आई। अज़रबाईजान वा आर्मीनिया के बीच भी सैनिक युद्ध छिड़ा एक धरती के टुकड़े को लेकर दोनों में भारी जानमाल का नुकसान हुआ। तथा 2021 में कुछ अलग आलम होगा जहां विश्व विजेता इजराइल पहला कोविड-19 मुक्त विश्व विजेता बना वहां आज फिर वारज़ोन बन गया है।
पुलिस विभाग के उच्चाधिकारियों की सामने आई संकुचित सोंच!
ऐसा माना जाता है कि जो व्यक्ति जितना अधिक शिक्षित हो जाता है यानीकि उच्च शिक्षा प्राप्त कर लेता है, उस व्यक्ति की सोंच उतनी ही विस्तृत और उच्च श्रेणी की हो जाती है और लोग उसके विचारों व कृत्यों के मुरीद हो जाते हैं, लेकिन कानपुर महानगर में बिल्कुल इसके विपरीत नजारे देखने को मिल रहे हैं, विशेषकर व्हाट्सएप से अलग होने के मामले में!
जी हाँ, कानपुर महानगर में पुलिस कमिश्नरी की व्यवस्था लागू हो चुकी है। अस्तु, यहां पुलिस विभाग की व्यवस्था में बदलाव किया गया तो इस व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के उद्देश्य से अनेक आई. पी. एस., पी. पी. एस. अधिकारियों की तैनाती कर दी गई। चर्चायें आम हो गई कि जब शहर में इतने अधिक उच्च स्तर के अधिकारियों की तैनाती हो गई है तो अब बड़े स्तर का सुधार हो जायेगा क्योंकि उच्च स्तर के अधिकारियों की सोंच भी अलग तरह की यानीकि उच्च स्तर की होगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं बल्कि उन्होंने एक ऐसा उदाहरण पेश कर दिया जिससे यह प्रतीत होने लगा है कि जो अधिकारी इन दिनों तैनात हैं उनकी सोंच उच्च स्तर की नहीं अपिुत संकुचित स्तर है।
अधिकारियों को व्हाट्सअप ग्रुपों से दूरियां बनाना उचित या अनुचित?
डिजिटल युग में पत्रकारिता करने का तरीका अथवा पत्रकारिता के मंचों की छवि पर सवालिया निसान लगता दिख रहा है। एक तरफ हर छोटी-बड़ी घटना लोगों तक जल्द से जल्द पहुंच रही है लेकिन वह कितनी विश्वसनीय है यह कोई कुछ नहीं कह सकता? सोशल प्लेटफार्मों पर प्रसारित अनावश्यक संदेश व खबरें लोगों की परेशानी का कारण बनते दिख रहे हैं।
मेरा मानना है कि उच्चाधिकारियों/अधिकारियों को व्हाट्सअप ग्रुपों से बहुत पहले ही दूरियां बना लेना चाहिये। क्योंकि अक्सर देखने को मिल रहा है कि व्हाट्सअप ग्रुपों में प्रसारित किये गये गैरजिम्मेदारा समाचारों अथवा उनसे सम्बन्धित लिंको को पढ़ कर उनके मन-मस्तिष्क पर भय का दिखने लगता है और जल्दवाजी में ऐसे फैसले ले लेते हैं जो अनुचित होते हैं। कई निर्दोष व्यक्तियों के खिलाफ कार्यवाई हो जाती है, तो कई दोषी बच जाते हैं अथवा कई अधीनस्थ कर्मचारी अनावश्यक ही बलि का बकरा बन जाते हैं।
ज़िंदगी जंग है उसे हौसलों से हराओ नशे से नहीं
आख़िर इंसान क्यूँ लत लगा लेता है किसी भी नशे की, जब किसी व्यसनी को पूछोगे की आख़िर क्यूँ करते हो नशा तो यही जवाब मिलेगा की टेंशन कितना हैए चंद पलों का नशा करने से क्या सचमुच अवसाद से उभर जाते होघ् या मुश्किलें ख़त्म हो जाती है। नहीं..व्यसन सिर्फ़ और सिर्फ़ तन मन और धन की बर्बादी के सिवाय और कुछ नहीं। शराब, सिगरेट, चरस, गांजा, कोकीन या गुटखा नशा जिस चीज़ का भी हो खतरनाक और जानलेवा ही होता है। आजकल की पीढ़ी का एक वर्ग इन सारी चीज़ों का सेवन करते नशेड़ी होता जा रहा है। और तो और अब लड़कियां भी ऐसे नशे का शिकार होती जा रही है। बड़े शहरों में पब में बैठकर दारु और सिगरेट पीना जैसे फ़ैशन बन गया है। कुतूहल से शुरू होने वाला ये नशा कब तलब बन जाता है पता ही नहीं चलता।
Read More »मोदी विरोध के साथ अच्छा शोध भी तो जरुरी है।
“विपक्षी दलों को भी एक महागठबंधन बनाकर कोरोना के विरुद्ध युद्ध का बिगुल फूंकना चाहिए ताकि उनकी देश भक्ति रंग लाये। राज्य सरकारों को कुछ अलग करके दिखाना चाहिए ताकि बाकी राज्य उनको रोल मॉडल बना सके। आलोचना के साथ कुछ सकारात्मक भी तो कीजिये, मोदी विरोध के साथ अच्छा शोध भी तो जरुरी है”
पिछले कई दिनों से मैं देख रहा हूँ कि कोरोना को लेकर बहुत से लोग मोदी की आलोचना के लिए कमर कस चुके हैं। अगर यही लोग आगे आकर देश हित में कुछ सकारात्मक कार्य कर सकते है अगर वो भी नहीं होता तो चुप तो बैठ ही सकते है। आखिर उनको मोदी के खिलाफ बोलने से मिलता क्या है। लोकतंत्र में विरोध की भी एक सीमा होती है और कोई उसको केवल अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करें तो वह भी एक देश द्रोह ही है।क्या मोदी की जगह कोई और प्रधानमंत्री होता तो कोरोना चुटकी भर में खत्म हो जाता, ऐसा नहीं है और न ही ऐसा हो सकता, देखने में आया कि जो ग्राउइंड लेवल पर कुछ करते नहीं है वो इस बात का ठेका उठा चुके है कि मोदी का विरोध किया जाये। उन्होंने ये मान लिया कि मोदी जी ही कोरोना को बुलावा भेजते है। भारत के हर एक नागरिक का परम कर्तव्य है कि जब देश पर विपदा आये तो हम सब मिलकर उसके खिलाफ लड़े। केंद्र सरकारों का अपना.अपना कर्तव्य बनता है कि वो केंद्र पर बोझ बनने से पहले ही आने वाली आपदा से निपटने कि तैयारी रखे।
Read More »आलम यही रहा तो निश्चित तौर पर खतरे की घंटी बजनी है
देश में कोरोना काल में जो तबाही मची है उसके चलते आरएसएस व राजनीतिक सत्ता संभालने वाली उसकी बेटी के रूप में पहचानी जाने वाली भारतीय जनता पार्टी को अब यह समझे का समय आ गया है कि लोगों का धु्रवीकरण करके सत्ता हथियाना एक बात है और सत्तारूढ़ होने पर देश को चलाना दूसरी।
लेकिन दूर्भाग्य है कि महामारी के इस भयानक दौर में भी आरएसएस व भाजपा ने अपनी नीति और नियत में बदलाव नही किया है। वे आज भी लोगों को धर्म की अफीम देकर नशे में चुर रखना चाहते है। जो लोग नशे के आदी नही है उनके बीच हिंदू-मुस्लिम का जहर घोल कर उन्हें मार देना चाहते है।
मतलब साफ है कि ये अब भी समझने को तैयार नही है। सत्ता हासिल करने के बाद भी संगठन की खोखली बातों पर ही अमल कर रहे है जबकि भाजपा अब सत्ता में है। संगठन और सत्ता में जमीन आसमान का अंदर है। संगठन की रीति नीति उसकी कार्यप्रणाली सत्ता को हासिल करने की होती है और सत्ता का काम लोगों के दुख -दर्द को समझ कर उससे निजात दिलाने का होता है।
पर सच तो यही है कि भाजपा में जो लोग सत्ता का मजा चख रहे है वे जनता को सुख देने के बजाय तकलीफ में ड़ालने का काम कर रहे है। इस बात की तस्दीक करने के लिए हमें वजीरे आजम नरेन्द्र मोदी के कुछ फैसलों की तरफ नजरें इनायत करना चाहिए।
मोदी सरकार व भाजपा की यह वे चंद नीतियां है जो महामारी से ध्यान हटवाकर उसे हिंदू- मुस्लिम का जामा पहनाने की कोशिश की जा रही है। मोदी सरकार के हाल के फैसले भी इस बात को सच साबित करते है कि वे बीमारी पर ज्यादा ध्यान देने की बजाय महामारी का सांप्रदायिकरण कर खतरनाक रूप देना चाहते है ताकि अपनी नाकामयाबियों को छूपा सके।
न्यायपालिका की विश्वसनीयता बहाली कर सकेंगे जस्टिस रमन?
पिछले दिनों जस्टिस नुतालपति वेंकट रमना एनवी रमना ने भारत के 48वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में महत्वपूर्ण कार्यभार संभाला था।
वह इस पद पर 26 अगस्त 2022 तक रहेंगे। अल्पभाषी और सौम्य स्वभाव वाले चीफ जस्टिस रमना ने ऐसे समय सुप्रीम कोर्ट की कमान संभाली। जिस समय देश में कोरोना की दूसरी लहर सुनामी बनकर उभरी और ऑक्सीजन की कमी के कारण पूरे देश में हाहाकार मचा दिखाई दिया। कोरोना के इस संकट काल में जस्टिस रमना की अगुवाई में सुप्रीम अदालत ने जिस प्रकार ऑक्सीजन संकट पर बड़ा कदम उठाते हुए ऑक्सीजन की कमी दूर करने के लिए टास्क फोर्स का गठन किया।