तीन राज्यों में विधानसभा चुनावों के नतीजों के परिणामस्वरूप कांग्रेस की सरकार क्या बनी, न सिर्फ एक मृतप्राय अवस्था में पहुंच चुकी पार्टी को संजीवनी मिल गई, बल्कि भविष्य की जीत का मंत्र भी मिल गया। जी हाँ, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अपने इरादे स्पष्ट कर चुके हैं कि किसानों की कर्जमाफी के रूप में उन्हें जो सत्ता की चाबी हाथ लगी है उसे वो किसी भी कीमत पर अब छोड़ने को तैयार नहीं हैं। दो राज्यों के मुख्यमंत्रियो ने शपथ लेने के कुछ घंटों के भीतर ही चुनावों के दौरान कांग्रेस की सरकार बनते ही किसानों के कर्जमाफ करने के राहुल गांधी के वादे को अमलीजामा पहनाना शुरू कर दिया है। एक प्रकार से कांग्रेस ने यह स्पष्ट कर दिया है कि 2019 के चुनावी रण में उसका हथियार बदलने वाला नहीं है। लेकिन साथ ही कांग्रेस को अन्दर ही अंदर यह भी एहसास है कि इसका क्रियान्वयन आसान नहीं है। क्योंकि वो इतनी नासमझ भी नहीं है कि यह न समझ सके कि जब किसी भी प्रदेश में कर्जमाफी की घोषणा से उस प्रदेश की अर्थव्यवस्था पर कितना विपरीत प्रभाव पड़ता है, तो जब पूरे देश में कर्जमाफी की बात होगी तो देश की अर्थव्यवस्था का क्या हाल होगा। मध्यप्रदेश को ही लें, कर्जमाफी की घोषणा के साथ ही मध्यप्रदेश की जनता पर 34 से 38 हज़ार करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ आ जाएगा।
लेख/विचार
अशफाक उल्ला खां मां भारती का अमर पुत्र-प्रमोद दीक्षित ‘मलय’
स्वाधीनता संग्राम की कालावधि में भारत माता की पावन रज में लोट-लोट कर बड़े हुए युवकों ने मां की आराधना में निज जीवन के सुवासित पुष्प चढ़ाये हैं। हंसते हुए फांसी के फंदों को चूम कर स्वयं गले में धारण कंठहार बना लिया तो वहीें कालचक्र की छाती पर अपने वीरता की गाथा भी रुधिर से अंकित कर दी। इन वीरों में ही एक ऐसा नर-नाहर महनीय व्यक्तित्व है जिसे जिसे तीन फांसी और दो काले पानी की सजा हुई थी। वह थे मां भारती का अमर पुत्र अशफाक उल्ला खा जिसे सभी क्रान्तिकारी स्नेह से ‘कुवर जी’ कहा करते थे।
अशफाक जन्म 22 अक्टूबर 1900 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर रेलवे स्टेशन के नजदीक एक जमींदार परिवार में हुआ था। पिता मो0 शफीक उल्ला खां और माता मजहूरुन्निशा बेगम शिशु के जन्म पर फूले न समाये थे। अशफाक अपने भाई बहनों में सबसे छोटे थे। इन्हे घर में सभी प्यार से ‘अच्छू’ बुलाते थे। बचपन से ही खेलने, तैरने, घुड़सवारी करने, बंदूक से निशाना साधने और शिकार करने का शौक था। मजबूत ऊंची कद-काठी और बड़ी आंखों वाले सुन्दर गौरवर्णी आकर्षक व्यक्तित्व के धनी अशफाक रामप्रसाद बिस्मिल की ही भांति उर्दू के अच्छे शायर थे। साथ ही हिन्दी और अंग्रेजी में भी कविताएं और लेख लिखते थे। वह हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे। एक बार शाहजहांपुर के आर्य समाज मंदिर में रामप्रसाद बिस्मिल के साथ बैठे क्रान्तिकारी दल के बारे में गहन चर्चा कर रहे थे कि तभी मंदिर को नष्ट एवं अपवित्र करने की मंशा से आये दंगाईयों पर अशफाक ने अपनी पिस्तौल तान कर कहा था कि यदि कोई भी आगे बढ़ा और एक भी ईंट का नुकसान हुआ तो लाशें बिछा दूंगा। अशफाक का यह रौद्र रूप देख दंगाई उल्टे पांव भाग खड़े हुए।
विद्यालय में अभिव्यक्ति के मायने-प्रमोद दीक्षित ‘मलय’
जनवरी 2015 की एक सुबह, सूरज अपनी आग को शनैः-शनैः धधकाने कोशिश में था। सूरज का ताप ओढ़े हुए मैं अपनी बीआरसी नरैनी अन्तर्गत पू0मा0वि0 बरेहण्डा गया। प्रार्थना सत्र पूरा हो चुका था और बच्चे कमरों में बैठें या बाहर, शिक्षक और बच्चे यह तय कर रहे थे। यहां पहले भी जाना होता रहा है तो बच्चे खूब परिचित थे। पहुँचते ही बच्चों ने घेर लिया। सबकी चाह थी कि पहले मैं उनकी कक्षा में चलूँ। कोई हाथ पकडे था तो कोई बैग। मैंने सभी कक्षाओं में आने की बात कही लेकिन असल लड़ाई तो बस यही थी कि मैं पहले किनकी कक्षा में चलूँगा। खैर, मेरी काफी मान-मनौव्वल के बाद कक्षा 8 से मेरी यात्रा प्रारम्भ हुई। बाहर धूप में ही बच्चे बैठे थे। बातचीत शुरु ही हुई थी कि कक्षा 7 के बच्चे भी वहीं आ डटे। त्योहार और शीत लहर के कारण लगभग एक पखवारे की लम्बी छुट्टियों के बाद हम लोग मिल रहे थे। पिछले एक-डेढ़ महीने के अपने अनुभव बच्चों ने साझा किए। परस्पर खेले गये विभिन्न प्रकार के खेलों की चर्चा, घर में बने पकवानों की चर्चा, खेत-खलिहान की बातें, मकर संक्रान्ति पर पड़ोस के गाँव ‘बल्लान’ में लगने वाले ‘चम्भू बाबा का मेला‘ की खटमिट्ठी बातें। गुड़ की जलेबी, नमकीन और मीठे सेव, गन्ना (ऊख), झूला मे झूलने की साहस और डर भरी बातों के साथ साथ नाते-रिश्तेदारों की बातें, दादी और नानी की किस्सा-कहानी की बातें, गोरसी में कण्डे की आग में मीठी शकरकन्द भूनकर खाने की स्वाद भरी बातें और न जाने क्या क्या, हां, थोडा बहुत पढ़ने की बातें भी। बातें पूरी हो चुकने के बाद (हालांकि बच्चों की बातें कभी पूरी होती नहीं) ‘‘चकमक‘‘ के दिसम्बर अंक में विद्यालय के कक्षा 8 के बच्चों के छपे गुब्बारे वाले प्रयोग पर विचार-विमर्श हुआ।
स्कूल जाने की खुशी में रात भर जागता रहा-प्रमोद दीक्षित ‘मलय‘
बात 1988 की है। मेरी इंटरमीडिएट की परीक्षाएं समाप्त हो चुकी थीं और मैं बेसब्री से रिजल्ट की प्रतीक्षा कर रहा था। जून के मध्य में परिणाम आ गया। उस जमाने में आज के जैसी नेट की कोई सुविधा नहीं हुआ करती थी। परीक्षा परिणाम अखबारों के विशेष संस्करण में छपा करते थे। और दूसरे दिन देखने को मिला करते थे। रिजल्ट देखा, द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ था, मुहल्ले के कुछ सहपाठी फेल हो गये थे और कालेज का रिजल्ट भी द्वितीय श्रेणी का था।। मुझे याद है, मेरी इस उपलब्धि पर भी घर और पास-पडोस में लड्डू बांटे गये थे। जुलाई आया और बी.ए. में स्थानीय महाविद्यालय में प्रवेश ले लिया था। एक दिन बस ऐसे पिता जी ने पूछ लिया था कि मुझे आगे क्या करना है। मेरा उत्तर उन्हें खुश कर गया था क्योंकि मैंने परिवार की शिक्षकीय परम्परा को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया था। मैंने कहा था,‘‘ मुझे सरकारी प्राईमरी स्कूल में शिक्षक बनना है। और अभी जल्दी बीटीसी प्रशिक्षण के लिए आवेदन हेतु विज्ञापन आने वाला है, मैं फाॅर्म डाल दूंगा।‘‘ ध्यान देना होगा कि उस समय प्राइमरी शिक्षक को बहुत कम वेतन मिलता था और बहुत कम बच्चे प्राथमिक शिक्षा में एक शिक्षक के रूप में जाना चाहते थे।
Read More »देशद्रोहियों के लिए हर भारतवासी हो अदालत
भारत दुनिया का सबसे बड़ा गणतन्त्र है जिसमें सवा अरब से अधिक आबादी निवास करती है। एक हिम शैल, तीन सागर, छः ऋतुएँ, तीन दर्जन राज्य, दर्जनों धर्म/पंथ, सैकड़ों भाषायें, हजारों बोलियाँ, साठ डिग्री सेल्सियस के रेंज में तापमान, हजारों त्यौहार, संस्कृति, रहन-सहन तथा मरुस्थल व मेघालय यहाँ की विशेषतायें हैं। मतभेद एवं वैचारिक विविधता किसी व्यक्ति, क्षेत्र, सम्प्रदाय या विधान के लिए होना स्वाभाविक है। रोष तब पैदा हो जाता है जब मतभेद अपनी मातृभूमि भारत के लिए उत्पन्न होता है। जिन पाठशालाओं से विकास पुरुष निकलने की अपेक्षा की जाती है वहाँ से ’कन्हैया’ निकलता है। जहाँ बंदेमारम् गूँजना चाहिए वहाँ श्भारत तेरे टुकड़े होंगेश् गूँजता है। ’इन्कलाब जिंदाबाद’ की जगह ’हिंदुस्तान मुर्दाबाद’ का नारा लगता है और आजादी के इकहत्तर साल बाद भी हम बेशर्म होकर यह तय करने में दशकों गुजार देते हैं कि ये सारे प्रायोजित नारे एवं कृत्य ’देशद्रोह’ के अन्तर्गत आते हैं या नहीं। हम उन कपूतों की तरह हैं जिनकी माँ को सरेआम-सरेराह गाली दी जाये और हम मन में मत्रोच्चार का अंदेशा पाले रहें।
जनमत से बनी हुई सरकारें सदैव जनमत के नफे-नुकसान की गणित में उलझी रहती हैं इसलिए सरकारों से ज्यादा उम्मीद करना खुद को छलने जैसा है। आजादी के आठवें दशक का दौर चल रहा है। जनता को अब तय करना ही होगा कि श्देशद्रोहश् क्या है! जिस तरह ’हत्या’ शब्द सुनते ही धारा 302 और फाँसी या आजीवन कारावास की सजा दिलो-दिमाग में तत्क्षण आ जाती है वैसे ही ’देशद्रोह’ से सम्बंधित धारणा शीशे की तरह साफ होनी चाहिए। देशद्रोह से सम्बंधित नारे, स्लोगन, तख्तियाँ या किसी भी तरह के मौखिक, सांकेतिक या भौतिक कृत्य इतना स्पष्ट होने चाहिए कि करने वाला, सुनने वाला या देखने वाला पूर्णतया परिचित हो। कहने का आशय यह है कि भारत की समस्त आबादी इसको जानती हो, समझती हो।
और कब तक प्राण हरेगी गंगा…!
लखनऊ, प्रियंका वरमा माहेश्वरी। बनारस में पिछले हफ्ते गंगा के पानी में मालवाहक जहाज चलाकर प्रधानमंत्री ने देश को यह बताने की कोशिश की कि गंगा अब पूरी तरह साफ़ हो चुकी है और उसमें इतना अधिक और निर्मल जल है कि उसके जरिये नया व्यापारिक रास्ता खुल गया। प्रधानमंत्री ने इसे न्यू इण्डिया का जीता-जागता उदाहरण बताया और उनका गंगा सफाई का संकल्प पूरा होने को है जो उन्होंने चार साल पहले लिया था। उन्होंने अपनी पूर्ववर्ती सरकारों को नाकारा बताते हुए बताया कि ’हमने गंदे पानी को गंगा में गिरने से रोका। जगह-जगह ट्रीटमेंट प्लांट लगवाये। आज अकेले 400 करोड़ की परियोजना बनारस में चल रही है।’ वहीं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, मंत्रियों ने इसे काशी को क्योटो बनाने के प्रधानमंत्री के वायदे से जोड़ा। दूसरी ओर उत्तर प्रदेश सरकार प्रदेश में यमुना नदी को गंगा से जोड़कर नोएडा से आगरा, प्रयागराज से वाराणसी के जलमार्ग हल्दिया से जोड़ने की कवायद करने में लगी है। मगर सवाल उठता है कि इससे पहले जो भी बयान संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों ने दिए हैं क्या वे गलत हैं या गंगा सफाई का काम समय से पूर्व कर लिया गया। या फिर यह सारा स्टंट चुनावी है और मालवाहक जहाज उधार के पानी पर तैर रहा है?
इस सबसे अलग गंगा सफाई का काम पिछले 30 वर्षों से चला आ रहा हैए लेकिन अभी तक कोई सुखद परिणाम या सफलता हासिल नहीं हुई है।
भोजपुरी के नाम पर अश्लीलता जिम्मेदार कौन?
भोजपुरी गीत-संगीत के नाम पर परोसी जा रही अश्लीलता से जो लोग चिंतित हैं उनमें से एक नाम प्रेम शुक्ल का है। प्रेम शुक्ल पूर्व में पत्रकार रह चुके हैं और वर्तमान में भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं। वे अब तक कई विश्व भोजपुरी सम्मेलन का भी आयोजन करवा चुके हैं। उनका कहना है कि भोजपुरी फिल्मों, गानों, आर्केस्ट्रा, म्यूजिक अलबम, आडियो वीडियो के जरिए एक ऐसा माहौल बना दिया गया है कि भोजपुरी एक ऐसी भाषा है जिसमें खूब अश्लीलता है। जो फूहड़ गानों की ही भाषा है। जबकि सच्चाई इसके विपरीत है। भोजपुरी भाषा की अपनी अलग एक सुंदर सी पहचान है। इसका एक समृद्ध साहित्य और इतिहास है। भिखारी ठाकुर जैसे महान व्यक्तित्व की भाषा भोजपूरी अश्लीलता की ही वजह से बहुत बदनाम भी हो गई है। यह भी एक कड़वी सच्चाई है।
प्रेम शुक्ल की बात सही है। यहां पर सवाल यह भी उठता है कि हम इन गानों को इतना ज्यादा क्यों बढ़ावा देते हैं, इनके कैसेट या वीडियो खरीदते क्यों हैं, किसी प्रोग्राम में अगर फूहड़ गाने पेश होने लगें तो हम वहां से उठ क्यों नहीं जाते? जिन दुकानों पर इस प्रकार के फूहड़ गानों के आडियो वीडियो मिलते हैंए हम उनका बहिष्कार क्यो नहीं करते?
लापरवाही है या चुनावी हथकंडा ?
लापरवाही का सियासी रंग
आलोक वर्मा पूर्व सी बी आई प्रमुख का नौकरी स्थगन, राफेल में खेल, भागैडो को शय, अम्बानी और अडानी का चक्कर और अमृतसर में ट्रेन दुर्घटना ये कुछ ऐसे वर्तमान मुद्दे है जिसमे मोदी जी और उनकी सरकार घिरती नजर आ रही। सरकार के कद्दावार नेता ऐसे मुद्दों पर बोलने से बचते दिखाई दे रहे। आखिर चुप्पी से कैसे भला होगा पार्टी का ? सबरीवाला मन्दिर का विवाद अब नेशनल विवाद बन गया ऊपर से त्योहारों में जनता की सुरक्षा का भी ध्यान नही रखा जा सका।
दशहरे का दिन उत्सव और मेले का दिन लोगों की भीड़ और भीड़ में जलता रावण। यह वर्णित दृश्य हर उस गली चैराहे कस्बे शहर और राज्य की है। जहा लोग आज भी अधर्म के प्रतिक रावण के पुतले का दहन करते है। भयंकर शोरगुल आतिशबाजी और हूटिंग की आवाजो में अन्य सभी आवाजे दब जाती है। किन्तु चीत्कार हाहाकार प्रलाप और भय की जो आवाज आज दशहरे के दिन गूंजी वो आवाज पंजाब के अमृतसर के लोगों को हर दशहरे पर याद आती रहेगी। बहुत ही दुखद घटना जिसमे रावण दहन का दृश्य देखने के चक्कर में लापरवाह जनता रेल की पटरियों तक आ खड़ी हुई और फिर एक तेज रफ्तार ट्रेन की आवाज दब गयी उस तेज हूटिंग स्वर में जो उस उल्लास से निकली और फिर चीत्कार में बदल गयी या लील गई 300 जिंदगियां वो जिंदगियां जिसे नेता वोटर लोग जनता और मीडिया दर्शक कह रही थी। कौन थे ये मारने वाले ? क्या गलती इन्ही दर्शकों की एकतरफा थी ? आइये विश्लेषण करते है नम आंखो से। और श्रद्धांजलि उन तमाम निर्दोष मृतक आत्माओं को जो प्रशाशनिक लापरवाही के भेट चढ़ गये। कितनी सस्ती है आम इंसानों की जिन्दगी ये आज अमृतसर हादसे से पता चल गया शर्म आती है। दो कौड़ी के निर्लज नेताओं पर जो अपनी सुरक्षा के लिए प्रोटोकॉल लेकर बाहर निकलते है, उसी जनता के बीच जिसने उन्हें वोट देकर सत्ता में बिठाया है।
महिलाओं के लिए ये कैसी लड़ाई जिसे महिलाओं का ही समर्थन नहीं
मनुष्य की आस्था ही वो शक्ति होती है जो उसे विषम से विषम परिस्थितियों से लड़कर विजयश्री हासिल करने की शक्ति देती है। जब उस आस्था पर ही प्रहार करने के प्रयास किए जाते हैं, तो प्रयास्कर्ता स्वयं आग से खेल रहा होता है। क्योंकि वह यह भूल जाता है कि जिस आस्था पर वो प्रहार कर रहा है, वो शक्ति बनकर उसे ही घायल करने वाली है।
पहले शनि शिंगणापुर, अब सबरीमाला। बराबरी और संविधान में प्राप्त समानता के अधिकार के नाम पर आखिर कब तक भारत की आत्मा, उसके मर्म, उसकी आस्था पर प्रहार किया जाएगा?
आज सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठ रहा है कि संविधान के दायरे में बंधे हमारे माननीय न्यायालय क्या अपने फैसलों से भारत की आत्मा के साथ न्याय कर पाते हैं। क्या संविधान और लोकतंत्र का उपयोग आज केवल एक दूसरे की रक्षा के लिए ही हो रहा है। कहीं इनकी रक्षा की आड़ में भारत की संस्कृति के साथ अन्याय तो नहीं हो रहा?
केवल पुरुषों को दोष देने से काम नहीं चलेगा
पुरानी यादें हमेशा हसीन और खूबसूरत नहीं होती। मी टू कैम्पेन के जरिए आज जब देश में कुछ महिलाएं अपनी जिंदगी के पुराने अनुभव साझा कर रही हैं तो यह पल निश्चित ही कुछ पुरुषों के लिए उनकी नींदें उड़ाने वाले साबित हो रहे होंगे और कुछ अपनी सांसें थाम कर बैठे होंगे। इतिहास वर्तमान पर कैसे हावी हो जाता है मी टू से बेहतर उदाहरण शायद इसका कोई और नहीं हो सकता।
दरअसल इसकी शुरुआत 2006 में तराना बुरके नाम की एक 45 वर्षीय अफ्रीकन- अमेरिकन सामाजिक कार्यकर्ता ने की थी जब एक 13 साल की लड़की ने उन्हें बातचीत के दौरान बताया कि कैसे उसकी मां के एक मित्र ने उसका यौन शोषण किया। तब तराना बुरके यह समझ नहीं पा रही थीं कि वे इस बच्ची से क्या बोलें। लेकिन वो उस पल को नहीं भुला पाईं, जब वे कहना चाह रही थीं, ‘मी टू’, यानी ‘मैं भी’, लेकिन हिम्मत नहीं कर पाईं।
शायद इसीलिए उन्होंने इसी नाम से एक आंदोलन की शुरुआत की जिसके लिए वे 2017 में ‘टाइम परसन आफ द ईयर’ सम्मान से सम्मानित भी की गईं।
हालांकि मी टू की शुरुआत 12 साल पहले हुई थी लेकिन इसने सुर्खियाँ बटोरी 2017 में जब 80 से अधिक महिलाओं ने हाॅलीवुड प्रोड्यूसर हार्वे वाइंस्टीन पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया जिसके परिणामस्वरूप 25 मई 2018 को वे गिरफ्तार कर लिए गए। और अब भारत में मी टू की शुरुआत करने का श्रेय पूर्व अभिनेत्री तनुश्री दत्ता को जाता है जिन्होंने 10 साल पुरानी एक घटना के लिए नाना पाटेकर पर यौन प्रताड़ना के आरोप लगाकर उन्हें कठघड़े में खड़ा कर दिया। इसके बाद तो ‘मी टू’ के तहत रोज नए नाम सामने आने लगे। पूर्व पत्रकार और वर्तमान केंद्रीय मंत्री एम जे अकबर, अभिनेता आलोक नाथ, रजत कपूर, गायक कैलाश खेर, फिल्म प्रोड्यूसर विकास बहल, लेखक चेतन भगत, गुरसिमरन खंभा, फेहरिस्त काफी लम्बी है।
मी टू सभ्य समाज की उस पोल को खोल रहा है जहाँ एक सफल महिला, एक सफल और ताकतवर पुरुष पर आरोप लगा कर अपनी सफलता अथवा असफलता का श्रेय मी टू को दे रही है। यानी अगर वो आज सफल है तो इस ‘सफलता’ के लिए उसे ‘बहुत समझौते’ करने पड़े। और अगर वो आज असफल है, तो इसलिए क्योंकि उसने अपने संघर्ष के दिनों में ‘किसी प्रकार के समझौते’ करने से मना कर दिया था।