Tuesday, April 22, 2025
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लेख/विचार

कृषकों के खून से प्यास बुझाती राजनीति

किसान और किसानी के विकास, सुरक्षा तथा बेहतरी के लिए न जाने कितनी सरकारी योजनाओं और घोषणाओं के अम्बार लगे हुए हैं पर इन अम्बारों की तह के नीचे अब भी अगर कुछ है तो वह है बैंक के ऋण, साहूकारों के कर्ज, दलालों और व्यापारियों की मनमानी, बीज खाद और कीटनाशकों की निष्ठुर कीमतें, बिचैलियों के मौज-मजे, बरसाती नदी के पानी की तरह लगातार बढ़ती लागत और बदले में मुनाफा-दर शून्य, मौसम के बदलते मिजाज का कहर तो है ही, सही कृषि-नीतियों के अकाल के साथ हीं और भी है बहुत कुछ … एवं इन सब की तहों के नीचे पड़े हुए हैं व्यवस्था की खामी से चोटिल, स्तब्ध और टूटे हुए किसानों के नरकंकाल, कपाल, लाशें स हाँ .. इन सब के नीचे है हताश, निराश और डरावने भविष्य के अन्धकार में लिपटा किसानों का सशंकित, संत्रासित और अशांत मन स दिन-रात अपने शारीरिक सामर्थ्य से बढ़कर मेहनत करनेवाले उस किसान को जब खाने के लिए दो निवाला सुकून और तसल्ली का नहीं मिल पाता तो लाचारी में हारकर वह सल्फास की गोली खा लेता है।

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मिसाइल डिफेन्स सिस्टम से मजबूत होगी सुरक्षा

प्रधानमंत्री मोदी की हाल की रूस यात्रा में यह साफ हो गया है कि रूस भारत को अत्यन्त खतरनाक हवाई मिसाइल डिफेंस सिस्टम एस-400 देगा। दोनों देशों के बीच इस पर बातचीत हो चुकी है। इसके अलावा दोनों देशों ने एक साथ मिलकर एयरक्राफ्ट और आॅटो मोबाइल्स बनाने पर भी सहमति जताई है। इस मिसाइल डिफेंस सिस्टम को दुनिया का सबसे खतरनाक मिसाइल सिस्टम माना जाता है। रूस के उप प्रधानमंत्री दमित्री रोगोजिन ने कहा कि रूस भारत को एस-400 ट्रायम्फ विमान रोधी मिसाइल प्रणालियों की आपूर्ति करने की तैयारी कर रहा है और दोनों पक्ष बिक्री की शर्तों पर चर्चा कर रहे हैं। पिछले साल गोवा में ब्रिक्स समिट के दौरान भारत और रूस के मध्य लगभग 40000 करोड़ रुपये की इस डिफेंस डील पर चर्चा हुई थी। तब भारत ने 15 अक्टूबर को रूस के साथ ट्रायम्फ वायु रक्षा प्रणालियों पर पांच अरब डाॅलर के एक करार की घोषणा की थी। भारत ने उसी समय चार अत्याधुनिक फ्रिगेट के अलावा कामोव हेलीकाॅप्टरों के निर्माण के लिए एक संयुक्त उत्पादन सुविधा स्थापित करने की भी घोषण की थी।

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क्यों न फिर से निर्भर हो जाए

2017.06.29. 1 ssp DR NEELAM MAHENDRAआज की दुनिया में हर किसी के लिए आत्मनिर्भर होना बहुत आवश्यक माना जाता है। स्त्रियाँ भी स्वावलंबी होना पसंद कर रही हैं और माता पिता के रूप में हम अपने बच्चों को भी आत्मनिर्भर होना सिखा रहे हैं।
इसी कड़ी में आज के इस बदलते परिवेश में हम लोग प्लैनिंग पर भी बहुत जोर देते हैं। हम लोगों के अधितर काम प्लैनड अर्थात पूर्व नियोजित होते हैं। अपने भविष्य के प्रति भी काफी सचेत रहते हैं इसलिए अपने बुढ़ापे की प्लैनिंग भी इस प्रकार करते हैं कि बुढ़ापे में हमें अपने बच्चों पर निर्भर नहीं रहना पड़े। यह आत्मनिर्भरता का भाव अगर केवल आर्थिक आवश्यकताओं तक सीमित हो तो ठीक है लेकिन क्या हम भावनात्मक रूप से भी आत्मनिर्भर हो सकते हैं?

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अलगाववाद को प्रोत्साहन

Pankaj k singhनिश्चय ही कश्मीर मुद्दे पर अब भारत सरकार को निर्णायक कूटनीतिक कदमों की ओर आगे बढ़ना चाहिए। सरकार ने पर्यवेक्षकों के कामकाज की उच्चस्तरीय समीक्षा में पाया है कि पर्यवेक्षकों की अब कोई जरूरत नहीं है। उनकी मौजूदगी में भी ‘एलओसी’ (लाइन आॅफ कंट्रोल) पर लगातर पाकिस्तान की ओर से गोलीबारी और खून-खराबा हो रहा है। जिस उम्मीद के साथ कभी ‘संयुक्त राष्ट्र’ के सैन्य पर्यवेक्षकों का कार्यालय भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध विराम समझौते का पालन सुनिश्चित करने के लिए स्थापित किया गया था, उसमें वह खरा नहीं उतर सका है। कश्मीर मुद्दे को लेकर संयुक्त राष्ट्र का रुख बेहद ढुलमुल रहा है। संयुक्त राष्ट्र कश्मीर मुद्दे को लेकर अमेरिकी नीतियों से प्रभावित रहता है। कश्मीर में संयुक्त राष्ट्र पर्यवेक्षक प्रायः मूकदर्शक ही बने रहे हैं और आज तक उन्होंने कभी भी पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद और भारतीय सीमाओं में घुसपैठ के मुद्दे को संपूर्ण शक्ति के साथ मजबूत ढंग से नहीं उठाया है। भारत को इस संदर्भ में एक कठोर रुख अपनाने की आवश्यकता है। 

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अन्नदाता आखिर कब तक केवल मतदाता बना रहेगा

dr. neelamअब किसान जागा है तो पूरा जागे
इस बात समझे कि भले ही अपनी फसल वो एक या दो रुपए में बेचने को विवश है लेकिन इस देश का आम आदमी उसके दाम एक दो रूपए नहीं कहीं ज्यादा चुकाता है तो यह सस्ता अनाज किसकी झोलियाँ भर रहा है?
किसान इस बात को समझे कि उसकी जरूरत कर्ज माफी की भीख नहीं अपनी मेहनत का पूरा हक है, वह सरकार की नीतियाँ अपने हक में माँगे बैंकों के लोन नहीं चाहे तमिलनाडु हो आन्ध्रप्रदेश हो महाराष्ट्र हो या फिर अब मध्यप्रदेश पूरे देश की पेट की भूख मिटाने वाला हमारे देश का किसान आज आजादी के 70 साल बाद भी खुद भूख से लाचार क्यों है?
इतना बेबस क्यों है कि आत्महत्या करने के लिए मजबूर है?

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यू. पी. में बेलगाम अपराधी

2017.05.30 01 ravijansaamnaसमाजवादी पार्टी की सरकार का तख्ता पलट करने के बाद उत्तर प्रदेश की जनता ने एक तरह से राहत की साँस ली थी। लोगों को लगा था कि और कुछ हो या न हो किन्तु अपराधियों के हौसले जरुर पस्त होंगे परन्तु दुर्भाग्य से बीते ढाई माह में ऐसा कुछ भी दिखायी नहीं दे रहा है। नयी सरकार बनने के बाद सैकड़ों पुलिस अधिकारी इधर से उधर हो गये परन्तु अखबार के पन्नों पर अपराध की खबरें आज भी वैसे ही जमी हुयीं है जैसे सपा सरकार के समय थीं। उसके बाद सत्ता पक्ष के नेताओं के गैरजिम्मेदाराना बयान प्रदेशवासियों को मुंह चिढ़ा रहे है। प्रदेश सरकार के एक मन्त्री का बयान आया कि पिछली सरकार के मुकाबले हमारी सरकार में हत्याएं कम हो रही हैं तो दूसरे मन्त्री ने उनसे भी दो कदम आगे जाकर कह दिया कि सरकार यू.पी. में क्राइम रेट जीरो नहीं कर सकती है। जबकि सरकार के छोटे मुखिया को आपराधिक घटनाओं में विपक्ष का षड्यंत्र दिखायी दे रहा है। प्रदेश में अपराधियों के बुलन्द हौसलों का प्रमाण देने के लिए ग्रेटर नोएडा तथा रामपुर की घट्नाएं पर्याप्त हैं। भाजपा सरकार की इस अल्प अवधि में हत्या, लूट, डकैती, अपहरण, बलात्कार, साम्प्रदायिक तथा जातीय संघर्ष तक की बड़ी-बड़ी घटनाएँ घट चुकी हैं। 

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खबरदार, मोदी नही इंदिरा और नेहरू

2017.05.29 01 ravijansaamnaभारतीय राजनीति में आम जनता के दिलों दिमाग में लंबे समय तक राज करने वाले नेताओं की अब खासी कमी होती जा रही है। अब नेता केवल लोगों के दिलों में उतने समय तक जिंदा रहता है जितने समय तक एक इंसान को शराब या अन्य व्यसन का नशा होता है। मतलब साफ है कि जो नेता जितने समय तक पद पर बने रहेगा तब तक याद किया जाएगा जैसे ही पद से हटा उसके बाद जनता के जैहन से भी हट जाएगा। हालाकि देश के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी का मोदी सरकार के तीन वर्ष पूरे होने पर एक किताब के विमोचन पर यह कहना कि ‘पीएम मोदी सबसे प्रभावी वक्ता हैं, पंडित जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी से उनकी तुलना की जा सकती है। इसके साथ ही आगे कहा कि जब तक कोई प्रभावी वक्ता नहीं बनता, उससे करोड़ों लोगों का नेतृत्व करने की उम्मीद नहीं की जा सकती। 

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आखिर क्यों सुलग रहा पूरब का ऑक्सफोर्ड..?

2017.05.04 ravijansaamna Ashish shuklaदिन बदल रहा है अब इलाहाबाद में कुछ छात्रों की विश्वविद्यालय में राजनीति जोरों पर है कुछ का तो पढ़ाई से कोई वास्ता ही नहीं, केवल टाइम पास और गुन्डई करने के लिए विश्वविद्यालय में किसी तरह एडमिशन ले लिए हैं। एडमिशन में जब विश्वविद्यालय ने पारदर्शिता लाने की कोशिश की थी और प्रवेश परिक्षाओं का मॉडल चेंच करके ऑनलाइन कर दिया तब इन फुटकरिया लोगों के घुसने के चांस काफी कम हो गये जिसके चलते स्वतंत्रता के नाम पर खूब अनशन किये गये।आपको याद दिला दें यह वही लोग हैं जो सरकार के डिजटल-इंडिया प्रोग्राम को प्रमोट करने के लिए गला फाड़कर वाट्सअप फेसबुक पर डिजटलाइजेशन की बात करते थे, लेकिन जब अपनी लुटिया डूबती महसूस हुई तब खुलकर ऑनलाइन प्रवेश परीक्षा का विरोध किया गया, हलांकि यूजी में एडमिशन लेने वाले कुछ ग्रामीण क्षेत्रों के छात्रों को इससे परेशानियां आई। सही मयानेमें यहीं से ही विश्वविद्यालय में मौजूदा अराजकता की पहले कड़ी की शुरूआत होती है। विवि. का आलम किसी से छिपा नहीं है, प्रो. की क्या मजाल किसी छात्र से थोड़ी ऊंची आवाज में बात कर लें, अगर बहुत बद्तमीजी कर दी और प्रो. साहब ने कुछ बोल दिया तो उनका बाहर मिलना तय है। सवाल उठता है कि , क्या उनके परिवार और गुरू ने जो संस्कार उन्हें दिए वह सब बेकार हो गये? 

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भोग से मुक्ति का मार्ग दिखाता है योग

2017.04.29. 2 ssp yogयोग को अगर हम केवल शारीरिक व्यायाम समझते हैं तो यह हमारी बहुत बड़ी भूल है। योग वह है जो हमारा साक्षात्कार अपने भीतर के उस व्यक्ति से कराता है जो आज की भागदौड़ वाली जिंदगी में थककर कहीं खो गया है । यह केवल हमारी शारीरिक क्षमताओं का विकास नहीं करता बल्कि हमारी मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों को भी जगाता है। योगासन केवल कुछ शारीरिक क्रियाएँ नहीं अपितु पूर्ण रूप से वैज्ञानिक जीवन पद्धति है।

मानव सभ्यता आज विकास के चरम पर है । भले ही भौतिक रूप में हमने बहुत तरक्की कर ली हो लेकिन शारीरिक आघ्यात्मिक और सामाजिक स्तर पर लगातार पिछड़ते जा रहे हैं।
मनुष्य अपनी बुद्धि का प्रयोग अपने शारीरिक श्रम को कम करने  एवं प्राकृतिक संसाधनों को भोगने के लिए कर रहा है ।
यह आधुनिक भौतिकवादी संस्कृति की देन है कि आज हमने इस शरीर को विलासिता भोगने का एक साधन मात्र समझ लिया है।
भौतिकता के इस दौर में हम लोग केवल वस्तुओं को ही नहीं अपितु एक दूसरे को भी भोगने में लगे  हैं। इसी उपभोक्तावाद संस्कृति के परिणामस्वरूप आज सम्पूर्ण समाज में भावनाओं से ऊपर स्वार्थ हो गए हैं और समाज न सिर्फ नैतिक पतन के दौर से गुजर रहा है बल्कि अल्पायु में ही अनेकों शारीरिक बीमारियों एवं मानसिक अवसाद ने मानव जाति को अपनी गिरफ्त में ले लिया है।

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नक्सली सिर्फ जंगल में नहीं रहते………!

2017.04.25 01 ravijansaamnaपहली बात सुकमा में जो हुआ वह नहीं होना चाहिए था। दूसरी बात सुकमा में जिस तरह से 26 जवानों की हत्या हुई वह दिखाती है कि हमारी आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था या तो काफी कमजोर है या फिर उसमें कई छिद्र हैं। इन छिद्रों का भरा जाना बेहद जरूरी है। आखिर यह कब तक चलता रहेगा ? आज देश यह जानना चाहता है। देश ने प्रचंड बहुमत की ‘बीजेपी सरकार’ को यह छूट दी है कि वह जो भी देशहित में करेगी हम उसका साथ देंगे। अवश्य देंगे। हजारों दुःख सह कर भी देंगे। उसे सफल बनाएंगे। जब सरकार को ये ज्ञात है कि आम जनमानस (जो कि देश को विकास की राह में अग्रसर होते देखना चाहता है वह) उसके साथ है तो सरकार लौह निर्णय लेने में घबराहट क्यों महसूस कर रही है ? आखिर क्यों वह ताबड़तोड़ फैसले करते हुए कुछ मामलों में आर-पार की लड़ाई के लिए प्रतिबद्ध नहीं हो पा रही है ? सब कुछ पता होने के बावजूद क्यों वह महज कुछ लोगों के दबाव में कड़े फैसले लेने से घबरा रही है ?
सरकार की अपनी मजबूरियां हो सकती हैं। होती भी हैं। लेकिन आज जनता इन मजबूरियों का रोना सुनने को तैयार नहीं है। वह कुछ समस्याओं का तुरंत समाधान चाहती है। ’नक्सलवाद’ उन्हीं समस्याओं में से एक है। पर उसे खत्म करने के साथ-साथ जिन समस्याओं पर गौर किया जाना चाहिए वह इस प्रकार हैं…

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