Thursday, April 25, 2024
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सरकार डाल-डाल तो करचोर पात-पात डॉ. दीपकुमार शुक्ल

deep shuklaसन 1998 में अमिताब बच्चन और गोविंदा की एक फिल्म आयी थी बड़े मियां छोटे मियां। उसमें ट्रेन में टप्पेबाजी करके यात्रियों से लूटे गये सामान के बारे में जब टिकट चेकर पूंछता है तो बड़े और छोटे मियां बताते हैं कि इस बैग्वा के अन्दर में हमारे दाँयें पाँव का मोजा है और इसमें बाएं पाँव का मोजा है। उसके अन्दर हमारे दायें पांव का जूता है। इसमें बाएं पाँव का जूता है। उसके अन्दर हमारी धोती-धोती है और इसमें हमारा कुर्ता-कुर्ता है। ये डायलाग सुनकर दर्शक मुस्कराए बिना न रहे होंगे। कर चोरी की आदत से मजबूर कपड़े और जूता-चप्पल के कुछ कारोबारियों ने देश में जी.एस.टी.लागू होने के बाद से कुछ ऐसा ही तरीका अपनाया है। गौरतलब है कि वस्तु एवं सेवा कर नियमावली के अनुसार पांच सौ रुपये तक की कीमत के जूते-चप्पल और एक हजार रुपये तक की कीमत वाले कपड़ों पर पांच प्रतिशत टैक्स का प्राविधान है। जबकि एक हजार रुपये से अधिक कीमत के कपड़ों पर बारह प्रतिशत तो पांच सौ रुपये से अधिक कीमत वाले जूते-चप्पल पर अठारह प्रतिशत कर देय होगा। जोड़ी के रूप में जूते-चप्पल जमाने से बिक रहे हैं। रंगों का तालमेल करके परिधान पहनने का फैशन जब से प्रकाश में आया तब से पैंट के साथ शर्ट, कुर्ते के साथ धोती, साड़ी के साथ ब्लाउज और सलवार-शूट के साथ दुपट्टा बेचने तथा खरीदने का भी प्रचलन हो गया। किन्तु देश में नयी कर व्यवस्था क्या लागू हुई, इन चीजों को अलग-अलग बेंचकर खुलेआम कर चोरी शुरु हो गयी है। अब दायें पाँव का जूता या चप्पल अलग बिकने लगा है और बाएं पैर का अलग। एक हजार रुपये कीमत के एक जोड़ी जूते या चप्पल को यदि जोड़ी रूप में बेचकर बिल दिया जायेगा तो उस पर अठारह प्रतिशत कर देना पड़ेगा और यदि दायें और बाएं पैर का जूता या चप्पल अलग-अलग बेचा जायेगा तो प्रत्येक की कीमत पांच सौ रुपये होगी। ऐसे में मात्र पांच प्रतिशत ही कर देना होगा। बस बिल एक की बजाय दो काटने पड़ेंगे। कमोवेश ऐसा ही कुछ कपड़ों के साथ भी हो रहा है। शर्ट का बिल अलग और पैंट का अलग। सलवार शूट का अलग तो दुपट्टे का अलग। अब इसमें भला आपत्ति किसे हो सकती है? कम से कम ग्राहक को तो बिलकुल भी नहीं होगी। क्योंकि कर का बोझ तो अन्ततोगत्वा उसे ही उठाना है। इसलिए वह जूते-चप्पल पर तेरह प्रतिशत और कपड़ों की खरीद पर सात प्रतिशत का अतिरिक्त बोझ उठाने की बजाय एक अतिरक्त बिल के कागज का बोझ उठाना ज्यादा पसन्द करेगा। ऐसा कोई नियम भी नहीं है कि आपको जूता या चप्पल जोड़ी में ही खरीदना पड़ेगा। अथवा पैंट के साथ शर्ट भी लेनी पड़ेगी। कपड़े खरीदने वाले तो पहले भी कई बार पेंट और शर्ट अलग-अलग ही खरीदते रहे हैं। लेकिन जूते या चप्पल अलग-अलग खरीदने का विचार शायद ही किसी के दिमाग में आया हो। कभी-कभार कोई भोला-भाला आदमी जिसका एक जूता फट गया हो या कहीं खो गया हो तो वह भले ही अपने बचे हुए जूते का जोड़ भराने दुकानदार के पास पहुँच गया होगा लेकिन दुकानदार ने उसके आग्रह को बड़े सहज भाव से यह कहकर जरुर ठुकरा दिया होगा कि भईया हम आपको एक जूता दे तो देते लेकिन इससे हमारा जोड़ा बेकार हो जायेगा। इस उत्तर से सन्तुष्ट होकर या तो ग्राहक लौट गया होगा या फिर नए जूते ही खरीद लिए होंगे।
टैक्स बचाने के लिए अन्य वस्तुओं के व्यापारी भी ऐसी ही किसी जुगाड़ की तलाश में हैं। इस बात की आशा ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास है कि जल्द ही उन्हें वह जुगाड़ मिल भी जायेगी। क्योंकि इस देश में एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो लोगों को ऐसी तमाम जुगाड़ें बताकर अपनी रोजी-रोटी चला रहा है। सरकार को चूना लगे तो लग जाये। देश की अर्थ व्यवस्था बदहाल हो तो हो जाये। कर चोरी की जुगाड़ बताकर लोगों की अर्थ व्यवस्था के साथ-साथ अपनी अर्थ व्यवस्था को सुदृढ़ करना ही उनका एकमात्र सर्वोपरि धर्म होता है। पिछले दिनों चार्टेड एकाउंटेंटस के सम्मेलन में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने ऐसे लोगों पर जमकर शब्द-वाण चलाये थे परन्तु उन वाणो से शायद ही कोई आहत हुआ हो।
भले ही आजादी के सत्तर साल पूरे हो गये हों परन्तु इस देश में ऐसे लोगों की संख्या अभी बहुत कम ही है जो देश की प्रगति को अपनी प्रगति मानते हैं। अपने अधिकारों के प्रति तो अब लगभग सभी जागरूक हो चुके हैं लेकिन कर्तव्य के प्रति जागरूकता का ग्राफ ऊपर जाने की बजाय नीचे ही खिसकता दिखायी दे रहा है। हाँ, दूसरों की दृष्टि में महान बनने की चाहत में कर्तव्यनिष्ठता और देशभक्ति का नाटक करने वालों की इस देश में कोई कमी नहीं है। कर चोरी करके अपने भण्डार भरने वाले मंदिरों में भण्डारा करते हुए कभी भी देखे जा सकते हैं। गरीबों को पुराने कपड़ों का दान करते हुए या फिर सरकारी अस्पतालों में जाकर मरीजों को चार केले पकड़ाते हुए फोटो खिंचाकर समाचार पत्रों में छपने की लालसा इतनी होती है कि मानो महाराज कर्ण भी इनसे पीछे हों।
भारतीय जनता पार्टी ने कभी राम-राज्य का नारा दिया था। आज केन्द्र के साथ-साथ देश के आठ राज्यों में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार है और नौ राज्यों की सत्ता में उसकी भागीदारी है। तब फिर देश में राम-राज्य की परिकल्पना क्यों सार्थक नहीं हो पा रही है? सत्य तो यह है कि राम-राज्य की परिकल्पना को सार्थक कर पाना किसी एक व्यक्ति या दल की सत्ता के वश की बात नहीं है। वह तो तभी सार्थक होगी जब देश का जन सामान्य इसके लिए तैयार हो। राम एक व्यक्ति नहीं बल्कि एक विचारधारा है। जिसका संचरण व्यक्ति को अधिकारों से कहीं अधिक कर्तव्य के प्रति जागरूक करता है। फिलहाल तो ऐसी कोई सम्भावना नहीं दिखायी दे रही है कि जिनके रक्त में ही बेईमानी रची-बसी हो वे अचानक ईमानदार बन जायें। अभी तो सरकार को अपने सख्त रवैये से ही स्थितियों को काबू में लाने के लिए सतत रूप से प्रयास करने होंगे। कर चोरी के मामले में प्रथम दृष्टया तू डाल-डाल मैं पात-पात वाली कहावत ही चरितार्थ हो रही है। अतः सरकार को कर सम्बन्धी प्राविधानों की एक बार पुनः समीक्षा करते हुए उसमें सुधार करना चाहिए। वस्तु एवं सेवा कर प्रणाली में विभिन्न सामान के लिए टैक्स स्लैब की चार दरें निर्धारित की गयी हैं। जो क्रमशः पांच, बारह, अठारह और अट्ठाईस प्रतिशत हैं। इन दरों के बीच का अन्तर बहुत अधिक होने से एक जैसे सामान पर कर चोरी की सम्भावना स्वतः प्रबल हो जाती है। इसलिए आवश्यक है कि इस अन्तर को हर हाल में कम किया जाये। भले ही इसके लिए टैक्स स्लैब की संख्या चार से बढाकर आठ ही क्यों न करनी पड़े। खासतौर पर एक जैसे सामान के मामले में यह अन्तर जितना कम होगा। करचोरी का तिकड़म लगाने की गुन्जाइश भी उतनी ही कम रहेगी।