Wednesday, May 8, 2024
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क्या मैं लिख पाऊंगी ?

कभी कभी मैं अपनी ही किसी
तस्वीर को दिल से चूम लेती हूं
देती रहती हूं दुआ अक्सर
अपने खूबसूरत ख्वाबों से भरी
इन खूबसूरत आंखों को
जिसने निराश हो कर कभी
नहीं छोड़ा हौसला ख्वाबों को संजोने का
अदा करती रहती हूं शुकराना
घनघोर अजाबों से जीतने पर
अपने मेहरबां उस रब का जिसने भर दी
मेरे वजूद की झोली अपने रहमतों से यूं ही
एक बार दुआ में दोनों हाथ उठाने पर
निहारती हूं एक टक उन पदचिन्हों को
मेरे दुःख में निस्वार्थ भाव से
साथ देने वाले भाई-बहनों और दोस्तों के
और संकल्प भी लेती हूं उन्हीं पदचिन्हों
पर चलते रहने का जिसपर चलकर
बन जाना चाहती हूं काबिल मैं भी किसी
तन्हा और परेशान व्यक्ति के दुःख में
अपने सामर्थ्य भर साथ निभाने का
मैं कामना करती हूं मुसलसल
अपने हिस्से की जिंदगी को
जिंदादिली से जीकर
कुछ लाचार और भीगी आंखों से
गर्म नमी को मिटाकर
अपने चाहने वालों के दिलों में
खुद के भी अस्तित्व को कायम रखने की
अक्सर सींचती रहती हूं अपनी
तमाम हसरतों की क्यारियों को
ताकि वो मुश्किलों के पहाड़ में भी
खिला सकें फूल साहस, उम्मीद और समृद्धि के
रखती हूं सबसे बड़ी एक चाहत
और पूछती हूं अपने आप से
क्या मैं लिख पाऊंगी स्वयं पर बीती
एक ऐसी किताब जिसे पढ़कर
भीग जाएं आंखे मेरे बाद उन लोगों की भी
जो बात बात पर किसी निर्दाेष को
बदनाम करने और उसके सुखी संसार में
अनायास ही अपने ईर्ष्या
की आग लगाने से बाज़ नहीं आते
क्या मैं लिख पाऊंगी एसी किताब?


बीना राय
गाज़ीपुर, उत्तर प्रदेश