» उत्सव के दूसरे दिन हुई भगवान बिरसामुंडा पर हुई संगोष्ठी भी
» आगंतुकों ने लिया हस्तशिल्प और व्यंजनों का आनंद
लखनऊ। जनजाति विकास विभाग उत्तर प्रदेश, उत्तर प्रदेश लोक एवं जनजाति संस्कृति संस्थान और उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी द्वारा आयोजित लोक नायक बिरसा मुण्डा की जयंती “जनजातीय गौरव दिवस” के अवसर पर आयोजित “अंतरराष्ट्रीय भागीदारी उत्सव” के दूसरे दिन शनिवार 16 नवम्बर को भारत के उत्तर प्रदेश से लेकर स्लोवाकिया तक की प्रस्तुतियां आकर्षण का केन्द्र बनी। इसके साथ ही संस्थान के निदेशक अतुल द्विवेदी की उपस्थिति में क्रान्तिकारी बिरसा मुण्डा का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान विषयक संगोष्ठी का भी आयोजन गोमती नगर स्थित संगीत नाटक अकादमी परिसर में किया गया। इसमें संदेश दिया गया कि जो समाज अपने संस्कारों से जुड़ा रहता है उसका अस्तित्व बना रहता है।
संगोष्ठी में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के मीडिया अध्ययन केन्द्र के पाठ्यक्रम समन्वयक डॉ. धनंजय चौपड़ा ने कहा कि अमूमन लोग भगवान बिरसा मुंडा को महज एक भारतीय आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी के रूप में जानते हैं। वास्तव में वह एक सशक्त संचारक थे। उन्होंने अपने संचार कौशल का प्रयोग कर सम्पूर्ण आदिवासी समाज को जल जंगल जमीन के लिए जागृत कर ‘उलगुलान’ आन्दोलन से जोड़ दिया। ‘उलगुलान’ का अर्थ होता है जल-जंगल-जमीन पर दावेदारी। इस दौरान उन्होंने नारा दिया था ‘अबुआ दिशुम, अबुआ राज’। इसका अर्थ होता है हमारा देश-हमारा राज। इस आदिवासी आंदोलन से देखते ही देखते हजारों आदिवासी जुड़ गए। उत्तरोत्तर यह सशस्त्र आन्दोलन भी बन गया। भगवान बिरसा मुंडे कहा करते थे कि मैं केवल देह नहीं मैं जंगल का पुश्तैनी दावेदार हूँ पुश्तें और उनके दावे मरते नहीं मैं भी मर नहीं सकता। मुझे कोई भी जंगलों से बेदखल नहीं कर सकता। डॉ. धनंजय चौपड़ा ने यह भी बताया कि बिरसा मुंडा आंदोलन की समाप्ति के करीब 13 साल बाद टाना भगत आंदोलन शुरू हुआ।
संगोष्ठी में आमंत्रित दूसरे विद्वान वक्ता एमिटी विश्वविद्यालय लखनऊ के सहायक आचार्य डॉ. देवेन्द्र वर्मा ने भगवान बिरसा मुंडा के जीवन के विभिन्न चरणों के बारे में विस्तार से बताया। उन्होंने बताया कि बिरसा मुंडा की प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा चाईबासा-गोस्नर इवैंजेलिकल लूथरन चर्च विद्यालय में हुई। जल्द ही वहां की मिशनरी सोच से उनका मोह भंग हो गया। 20 वर्ष के होते होते बिरसा मुंडा का रुझान वैष्णव धर्म की ओर हो गया। उनके प्रयासों से आदिवासियों में यह जनजागृति आई कि महामारी दैवीय प्रकोप नहीं है। धीरे धीरे लोग बिरसा मुंडा की कही बातों पर विश्वास करने लगे और मिशनरी की बातों को नकारने लगे। बिरसा मुंडा आदिवासियों के भगवान हो गए और उन्हें ‘धरती आबा’ कहा जाने लगा। वास्तव में भगवान बिरसा मुंडा का योगदान भी स्वामी विवेकानंद की ही भांति महान है। उन्होंने युवाओं को अपने संस्कारों से जुड़ने और सही राह दिखाने के लिए नेतृत्व का दायित्व संभालने का महती संदेश दिया था। उनके प्रयासों का ही परिणाम है कि आज भी आदिवासी तिरंगा और भारत माता का बहुत सम्मान करते हैं।
समरीन के कुशल मंचीय संचालन में हुए सांस्कृतिक कार्यक्रमों ने देर शाम तक आगंतुकों को मंच से जोड़े रखा। महाराष्ट्र का सांघी मुखौटा नृत्य में मशहूर छबील दास के दल ने बेताल और काल भैरव के साथ नरसिंह को दर्शाया गया। ढोल, संबल, पावरी के साथ पेश यह नृत्य देखते ही बना। जापान, थाईलैंड वियतनाम में प्रस्तुतियां दे चुके राजस्थान के दिलावर खां दल ने एक रंग जमाते हुए लोकप्रिय राजस्थानी लोकगीत केसरिया बालम, निबुड़ा, छाप तिलक सुनाकर प्रशंसा हासिल की। इसमें कलाकारों ने करताल, कमाचा, ढोलक, हारमोनियम के साथ मधुर संगीत भी स्वरित किया। चंगेली नृत्य में उत्तर प्रदेश की परंपरा को जीवंत किया। बुंदेलखंड में प्रचलित चंगेली लोक नृत्य बच्चें के जन्म से जुड़ा है। इसमें बुआ जो खिलौनों से भरी बांस की सजी संवरी टोकरी लेकर आती हैं जिसे चंगेली कहा जाता है। बूटी बाई के निर्देशन में हुई इस प्रस्तुति के स्वर थे कि रात काहे रोए रे ललनवा। इसमें कहा गया कि रात में क्यों रो रहे हो बेटा, सुबह तुम्हे खिलौना ला दूंगी। इसके अतिरिक्त जम्मू कश्मीर का मोंगों नृत्य-बकरवाल, सिक्किम का सिंघी छम नृत्य, छत्तीसगढ़ माटी मंदरी, राजस्थान का लंगा मांगणीयार नृत्य और तेरहताली नृत्य, कर्नाटक का फुगड़ी-सिद्धि नृत्य, मध्य प्रदेश का रमढोल नृत्य, उत्तर प्रदेश का लोकप्रिय गरदबाजा और नगमतिया नृत्य का मंचीय प्रदर्शन देखने को मिलेगा। यह प्रस्तुतियां अब्दुल राशिद, जगमी, सुरेन्द्र, पूजा कामड़, जुलियान फर्नांडीज, मौजी डांडोलिया, सोना, रामेश्वर के दलों द्वारा पेश की गईं। इसके साथ ही स्लोवाकिया के लोककलाकारों की प्रस्तुति अन्य आकर्षण बनी।
स्लोवाकिया का सांस्कृतिक दल मध्य योरोप जो पारंपरिक नृत्य लेकर आया है वह स्लोवाक, हंगेरियन, रोमानियाई, यहूदी, जिप्सी, रूथेनियन संगीत और नृत्य का प्रतिनिधित्व करता है। इफ्जू शिवेक डांस थिएटर की इस नृत्य प्रस्तुति का कलात्मक निर्देशन डुसन हेगली ने बखूबी संभाला। बताते चले कि इस दल ने न्यूयॉर्क से स्टॉकहोम, एविग्नन से सिडनी तक प्रभावी प्रस्तुतियां देकर प्रशंसा हासिल की है। इसमें वहां की पारंपरिक वेशभूषा पहने कलाकारों ने सजीव संगीत के साथ जोशीली प्रस्तुति दी।
इस अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में उप्र राज्य ललित कला अकादमी के अध्यक्ष सुनील कुमार विश्वकर्मा और विशिष्ट अतिथि उपाध्यक्ष गिरीश चंद्र आमंत्रित किए गए थे। इस अवसर पर आमंत्रित विशिष्ट प्रमुख सचिव उद्यान, बी.एल.मीना ने कलाकारों का सम्मान किया।
तीसरी शाम 17 नवम्बर को बिहार का उरांव नृत्य, पश्चिम बंगाल का नटुआ नृत्य, मिजोरम का चेराव नृत्य, अरुणाचल प्रदेश का अनेय-ना नृत्य, गोवा का कुनबी नृत्य, केरल का इरुला नृत्य, छत्तीसगढ़ का गैण्डी नृत्य, हिमाचल प्रदेश का सिरमौरी नाटी-मास्क नृत्य, मध्य प्रदेश का भगोरिया नृत्य, उत्तर प्रदेश का डोमकच-झूमर नृत्य और सोहराई नृत्य के साथ ही थारू जनजाति के नृत्य भी पेश किए जाएंगे। इसके साथ ही रविवार 17 नवम्बर को जनजाति स्वास्थ्य पर जागरुकता एवं समाधान विषयक संगोष्ठी का आयोजन भी किया जाएगा।
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