Monday, November 18, 2024
Breaking News
Home » लेख/विचार » मिशन पांच राज्यों में इलेक्शन 2022 – हर पार्टी नें तात्कालिक रणनीतिक रोडमैप बनाना शुरू किया

मिशन पांच राज्यों में इलेक्शन 2022 – हर पार्टी नें तात्कालिक रणनीतिक रोडमैप बनाना शुरू किया

चुनाव जीतने प्रबुद्ध सम्मेलन, प्रतिमा स्थापन, सोशल व जातीय इंजीनियरिंग, नेतृत्व परिवर्तन सहित अनेक रणनीतिक पैटर्न पर काम शुरू – एड किशन भावनानी
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है और भारत की अनेक खूबसूरतीयों में से एक है भारतीय लोकतंत्र और चुनावी प्रक्रिया को पूरी दुनिया में बहुत श्रद्धा सम्मानित रूप से, एक आइडियल के रूप में देखा जाता है। जो भारत के लिए एक गर्व की बात है। चुनावी प्रक्रिया संपन्न कराने के लिए भारत में एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्था भारतीय चुनाव आयोग है जो जिम्मेदारी से चुनावी प्रक्रिया संपन्न करवाता है…। साथियों बात अगर हम अगले साल 2022 में होने वाले पांच राज्यों के चुनावों की करें तो अगले साल उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गुजरात और हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, सूत्रों के अनुसार गोवा, मणिपुर, पंजाब और उत्तराखंड विधानसभाओं का कार्यकाल मार्च 2022 में समाप्त होगा। वहीं, उत्तर प्रदेश विधानसभा का कार्यकाल अगले साल मई 2022 तक चलेगा। अगले साल जिन राज्यों में चुनाव होने हैं वहां ज्यादातर जगहों पर फिलहाल केंद्रीय सत्ताधारी पार्टी की सत्ता है, ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सत्ताधारी पार्टी एक बार फिर से इन राज्यों में अपनी सत्ता को बरकरार रख पाएगी,या फिर प्रमुख विपक्षी पार्टी अपने चाहने वालों के लिए नई उम्मीदें लेकर आएगी!!! सवाल ढेर सारे हैं जिनके जवाब के लिए हमें अगले साल का इंतज़ार करना पड़ेगा।…साथिया बात अगर हम मिशन इलेक्शन 2022 की करें तो पिछले कुछ दिनों से हम देख रहे हैं कि हर राजनीतिक पार्टी अपने अपने स्तर पर विनिंग फैक्टर तलाश कर तात्कालिक राजनीतिक रोडमैप बनाना शुरू कर दिया है जो गतिविधियां हम आए दिनों टीवी चैनलों पर और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में देख रहे हैं उसके आधार पर ऐसा लग रहा है कि, पार्टियां विकास मुद्दे के साथ -साथ धार्मिक, सामाजिक, जातिवाचक, आरक्षित वर्ग, नेतृत्व क्षमता सहित हर बारीक और छोटे से छोटी समाधान कारक बात और मुद्दों को अपने रणनीतिक रोडमैप में शामिल कर रहे हैं क्योंकि कहीं मुख्यमंत्री बदला, कहीं राज्य अध्यक्ष बदलना कहीं मंत्रिमंडल में से मंत्रियों को बदलना, कहीं मंत्रिमंडल विस्तार कर असंतुष्टों को संतुष्ट करना इत्यादि अनेक क्रियाएं हम कुछ दिनों से जोरों पर देख रहे हैं। हालांकि उनकी मानें तो यह एक रूटीन प्रक्रिया है परंतु समझने वाले समझ गए जो ना समझे वो अनाड़ी है!!!…साथियों बात अगर हम एक सबसे बड़े राज्य की करें तो, वहां अगले साल होने वाले चुनाव की सबसे अधिक चर्चा है क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि दिल्ली की गद्दी के लिए उसी राज्य से मार्ग प्रशस्त होता है। इसलिए वहां एक समाज़ विशेष के ऊपर अनेक राजनीतिक पार्टियों की नज़र है और उस वर्ग को हर कोई पार्टी अपने खेमे में लाना चाहती है। जिसका हाल ही में एक पार्टी ने अयोध्या में सम्मेलन रखा था।दूसरी एक पार्टी ने विशेष समुदाय के कुल देवता की प्रतिमा स्थापित की तो किसी पार्टी ने अगस्त में हर जिले में प्रबुद्ध सम्मेलन कराए जाने की बात कह रही है।…साथियों बात अगर हम राजनीति में जातीय समीकरणों कीकरें तो राजनीतिक दलोंकी संगठनात्मक गतिविधियों से लेकर चुनावों में टिकट वितरण तक में जातीय समीकरणों का विशेष ध्यान रखा जाता है, फिर चाहे संबंधित राजनीतिक दल पर जाति विशेष के तुष्टिकरण या उपेक्षा का ही आरोप क्यों न लगे!! तथा राजनीतिक दल के संगठनात्मक स्वरूप या टिकट वितरण को लेकर व्यापक जन असंतोष की स्थिति भी क्यों न निर्मित हो जाये। राजनीतिक दलों को ऐसे लोक सरोकारों से कोई विशेष वास्ता नहीं रहता!!! तथा वह केवल राजनीतिक सफलता को ही अपना एकसूत्रीय उद्देश्य मानते हैं। यह भी एक बड़ी विडंबना है कि राजनीतिक दलों एवं उनके नेताओं ने चाहे जितनी राजनीतिक प्रतिष्ठा व ख्याति अर्जित कर ली हो लेकिन उनका नैतिक पक्ष दुर्बलता की चरम सीमा पर पहुंच चुका नजर आ रहा है, हालांकि हर पार्टी को चुनाव जीतने के और सत्ता पर काबिज होने के लिए इस प्रकार का जातीय समीकरण बनाने के अलावा कोई चारा भी नहीं है, क्योंकि आज भारत में परिस्थितियां ही कुछ इस प्रकार की निर्माण हो गई है कि इनका टिकट वितरण में ध्यान नहीं रखा जाएगा तो पार्टियां चुनाव जीतने में सफल नहीं हो पाती!!! इसलिए उम्मीदवार का चयन करते समय सोशल तथा जातीय इंजीनियरिंग का फंडा अपनाना पड़ता है ताकि उस क्षेत्र के बहुसंख्यक अपनी जाति के उम्मीदवार को जिताए। हालांकि अपवाद स्वरूप इस स फंडे के विरोधाभास में भी अनेक उम्मीदवार जीते हैं परंतु वर्तमान परिस्थितियों कोदेखते हुए जातीय समीकरण सभकी चुनावीरणनीति का अंग बन चला है…। साथियों बात अगर हम वह वर्ष 2023 में चुनाव की करें तो, चुनावी मौसम की यह फिजां 2023 की शुरूआत में भी जारी रहेगी। पूर्वोत्तर के तीन राज्यों मेघालय, नगालैंड और त्रिपुरा में मार्च 2023 में विधानसभा की अवधि पूरी हो रही है और वहां चुनाव होंगे। वहीं इसके दो महीने बाद ही मई में कर्नाटक का चुनाव होगा। राज्यों के चुनावी उत्सव का यह चक्र दिसंबर 2023 में अपने चरम पर पहुंचेगा जब मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ, राजस्थान और तेलंगाना जैसे बड़े राज्यों के चुनाव होंगे। इन राज्यों का चुनाव एक तरह से आम चुनाव का सेमीफाइनल होगा। चुनावी पर्व के इस लंबे चक्र का समापन अ्प्रैल -मई 2024 के लोकसभा चुनाव के साथ होगा। दरअसल दो साल के बाद ही यानी साल 2024 में लोकसभा चुनाव होने है। लिहाजा उपरोक्त सभसे बड़े प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में जीत से किसी भी पार्टी के लिए केंद्र में सरकार बनाने की उम्मीदें जग जाती है। अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर उसका विश्लेषण करें तो हम देखेंगे कि विनिंग फैक्टर के लिए हर पार्टी द्वारा सोशल तथा जातीय इंजीनियरिंग, नेतृत्व परिवर्तन सहित अनेक मुद्दों पर चुनाव जीतने के लिए तात्कालिक रणनीतिक पैटर्न बनाना शुरू हो गया है जिसको सभी पार्टियों द्वारा अपनाना एक रणनीतिक मजबूरी बन गई है।
-संकलनकर्ता लेखक- कर विशेषज्ञ एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र