विचार मानव चरित्र के प्रकाशक हैं, पर तब जबकि वे आचरण से घुल-मिल गए हों। मनुष्य का चरित्र विचार और आचार दोनों से मिलकर बनता है। संसार में बहुत से ऐसे लोग पाए जा सकते हैं जिनके विचार बड़े ही उदात्त, महान एवं आदर्षपूर्ण होते हैं। लेकिन उनकी क्रियाएं तदनुरुप नहीं होती। विचार पवित्र हों और कर्म अपावन तो यह सच्चरित्रता नहीं हुई। इसी प्रकार बहुत से लोग ऊपर से बड़े ही सत्यवादी, आदर्शवादी और धर्म कर्म वाले दिखते हैं, किंतु उनके भीतर कलुशपूर्ण विचारधारा बहती रहती है। इन्हें भी सच्चे चरित्रवाला नहीं माना जा सकता। सच्चा चरित्रवान वही माना जाएगा और वास्तव में वही होता भी है, जो विचार और आचार दोनों को समान रुप से उच्च और पुनीत रखकर चलता हो।
प्रसिद्ध लोकोक्ति है-‘धन चला गया, कुछ नहीं गया। स्वास्थ्य चला गया, कुछ चला गया। चरित्र चला गया, तो समझो सब कुछ गया। लोक विख्यात यह कथन शत प्रतिशत सही है। गया हुआ धन वापस आ जाता है। रोज न जाने कितने लोग धनी से निर्धन और निर्धन से धनवान होते रहते हैं। इसी प्रकार रोगों-व्याधियों और चिंताओं के प्रभाव से लोगों का स्वास्थ्य बिगड़ता और तदनुरुप उपायों से बनता रहता है। किंतु गया हुआ चरित्र दुबारा वापस नहीं मिलता। ऐसी बात नहीं कि गिरे हुए चरित्र के लोग अपना परिष्कार नहीं कर सकते। दुष्चरित्र व्यक्ति भी सदाचार, सद्विचार और सत्संग द्वारा चरित्रवान बन सकता है। इसके बावजूद वह अपने उस असन्दिग्ध विष्वास को नहीं पा पाता, चरित्रहीनता के कारण जिसे वह खो चुका होता है। मनीषी राल्प लिंटन के ग्रंथ ‘द स्टडी ऑव मैन’ के पृष्ठों में झांके तो पता चलता है कि समाज जिसके ऊपर विष्वास नहीं करता, लोग जिसे संदेह और शंका की दृष्टि से देखते हों, वह व्यक्ति बहुमूल्य होने पर भी निर्मूल्य ही है। यथार्थ चरित्रवान वही है, जो अपने समाज, अपनी आत्मा और अपने परमात्मा की दृष्टि में समान रुप से असंर्दिध और संदेहरहित हो। इस प्रकार की मान्य और निःषक चरित्रमत्ता ही वह आध्यात्मिक स्थिति है जिसके आधार पर सम्मान, सुख, सफलता और आत्मशांति का लाभ होता है।
जीवन की बहुमूल्य विषिष्टता, सम्पदा, चरित्र निर्माण का आधार संस्कार है। मनोविज्ञानी फ्रांसिस मेरिल के ग्रंथ ‘द सीक्रेट सेल्फ’ के अनुसार जिस प्रकार के संस्कारों का संचय हम करते रहते हैं, उसी के अनुरुप हमारा चरित्र बनता-ढलता चला जाता है। संस्कार मनुष्य के उन विचारों के ही प्रौढ़ रुप हैं जो लंबे समय तक रहने से मस्तिष्क में अपना स्थाई स्थान बना लेते हैं। यदि सद्विचारों को अपनाकर उनका ही चिंतन और मनन किया जाता रहे तो संस्कार भी षुभ और सुंदर बनेंगे। इसके विपरीत यदि असद् विचारों को ग्रहण कर मस्तिष्क में बसाया और मनन किया जाएगा तो संस्कारों के रुप में कूड़ा-करकट ही इकट्ठा होता रहेगा।
संस्कारों की प्रबलता और महत्ता इसी बात से सिद्ध है कि जहां सामान्य विचार क्रियान्वित करने के लिए मनुष्य को स्वयं प्रयत्न करना पड़ता है। वहीं संस्कार उसको यंत्रवत संचालित कर देता है। शरीर यंत्र जिसके द्वारा सारी क्रियाएं संपादित होती रहती हैं, सामान्य विचारों के आधीन नहीं होता। जबकि इस पर संस्कारों का परिपूर्ण आधिपत्य रहता है। न चाहते हुए भी शरीर यंत्र संस्कारों की प्रेरणा से हठात् सक्रिय हो उठता है और तदनुसार आचरण कर बैठता है। इन संस्कारों को यदि मानव जीवन का भाग्यविधाता, आचरण का प्रेरक कह दिया जाए तो असंगत न होगा।
विचारों का निवास चेतन मस्तिष्क और संस्कारों का निवास अवचेतन मस्तिष्क में रहता है। चेतन मस्तिष्क प्रत्यक्ष और अवचेतन मस्तिष्क अप्रत्यक्ष अथवा गुप्त होता है। यही कारण है कभी-कभी विचारों के विपरीत क्रियाएं हो जाया करती हैं। मनुष्य देखता है कि उसके विचार अच्छे और सदाशयी हैं, तब भी उसकी क्रियाएं इन विचारों के विपरीत हो जाया करती हैं। इस रहस्य को न समझ पाने के कारण कभी-कभी वह बड़ा व्यग्र होने लगता है। विचारों के विपरीत कार्य हो जाने का रहस्य यही होता है कि मनुष्य की क्रिया प्रवृत्ति पर संस्कारों का प्रभाव रहता है और गुप्त मन में छिपे रहने से उनका पता नहीं चल पाता। संस्कार विचारों को व्यर्थ कर अपने अनुसार मनुष्य की क्रियाएं प्रेरित कर दिया करते हैं। -डॉ. हनुमान प्रसाद