Thursday, May 2, 2024
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बोलो दुर्गा माई की “जय”

प्राचीन काल से ही भारत में शिव-शक्ति रूप की आराधना चली आ रही है। संक्षिप्त तौर पर समझा जाए तो शिव का अर्थ निर्गुण, सच्चिदानंद एवं निराकार ब्रह्म है तथा शक्ति का अर्थ उसी ब्रह्म की अभिव्यक्ति है। दुर्गा हिन्दुओं की प्रमुख देवी हैं। शाक्त सम्प्रदाय की मुख्य देवी दुर्गा हैं। दुर्गा तमस एवं अज्ञानता रूपी असुरों से रक्षा करने वाली और कल्याणकारी हैं। नवरात्रि या दुर्गोत्सव शक्ति पूजा का उत्सव है। शरदोत्सव या दुर्गोत्सव को मनाये जाने के लिए तिथियाँ हिन्दू पंचांग के अनुसार ही तय होती हैं एवं इस त्योहार से सम्बंधित पखवाड़े को देवी पक्ष के नाम से जाना जाता है। शारदीय नवरात्र कहें या दुर्गा पूजा, यह पर्व प्रत्येक वर्ष भारत में धूमधाम से मनाया जाता है। इनमें सबसे ज़्यादा आकर्षक एवं सुंदर प्रथा पश्चिम बंगाल के दुर्गा पूजा में दिखाई पड़ती है।
शरदकाल में दुर्गा की पूजा पश्चिम बंगाल में सबसे बड़ा हिन्दू पर्व है। नारी-पूजा की प्रथा प्राचीनकाल से पश्चिम बंगाल में प्रचलित है। ऐसे में शक्ति की पूजा करने वाले शाक्त संप्रदाय का अधिक प्रभाव यहाँ दिखाई पड़ता है। दूसरी ओर राम और कृष्ण की आराधना में विश्वास रखने वाले वैष्णव संत भी यहाँ हुए हैं।वैसे तो प्रत्येक क्षेत्र की अपनी सांस्कृतिक, सामाजिक एवं धार्मिक विशेषताएँ होती हैं। परंतु पश्चिम बंगाल का दुर्गा पूजा इन सबसे पृथक एवं विशिष्ट स्थान रखता है। नवरात्रि मुख्य रूप से नौ दिनों का त्योहार है, किंतु बंगाल की परंपरा के अंतर्गत दुर्गा पूजा मुख्य रूप से महाषष्ठी से विजयादशमी तक पाँच दिनों के त्योहार के रूप में मनाया जाता है। बंगाली पंचांग के छठे माह अश्विन में बढ़ते चन्द्रमा की छठी तिथि से दुर्गा पूजा मनाये जाने की परंपरा रही है। तथापि कभी-कभी, सौर माह में चन्द्र चक्र के आपेक्षिक परिवर्तन के कारण इसके बाद वाले माह कार्तिक में भी मनाया जाता है। दुर्गा पूजा बंगाली हिन्दू समाज में सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से सबसे महत्त्वपूर्ण उत्सव भी है। पूजा पंडालों की भव्य,अनुपम और विशेष छटा कोलकाता और समूचे पश्चिम बंगाल को नवरात्रि के अवसर में सबसे विशेष बनाते हैं।यह सत्य है कि बंगाली हिंदुओं के लिए दुर्गा पूजा से बड़ा कोई उत्सव नहीं है एवं वे देश-विदेश कहीं भी रहें, इस पर्व को विशेष रूप प्रदान करने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
दुर्गा पूजा और दशहरा के शुरुआत का वर्णन प्राचीन काल से पुराणों में मिलता है एवं इतिहास में पहली बार दुर्गा पूजा का विवरण लगभग १६ वीं ईसवी के दौरान बंगाल में मिलता है। इसके बाद यह वार्षिक उत्सव जारी रहा और बंगालियों के अलग-अलग राज्यों में प्रस्थान करने एवं रहने के बाद यह उत्सव अन्य शहरों में भी संचारित हुआ। अन्य देशों में रहने वाले बंगालियों ने भी इस उत्सव को मनाना शुरू कर दिया। हिन्दू सुधारकों ने इसे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलनों का प्रतीक भी बनाया।
दुर्गा पूजा के दौरान यूँ तो समूचे पश्चिम बंगाल में रौनक का माहौल रहता है,पर विशेष रूप से आनन्द का शहर कोलकाता अपनी अनूठी एवं विशिष्ट परंपरा के लिये जग प्रसिद्ध है। कोलकाता में दुर्गा पूजा के पाँच दिन अति विशेष और मन को मोहने वाले होते हैं जो कि प्रत्येक मनुष्य को स्वयं में समेट लेने की क्षमता रखते हैं। विदित है कि कोलकाता में जाति,वर्ग व धर्म इत्यादि का कोई भेदभाव नहीं होता है, यह कोलकाता की विशेषता है।
नवरात्रि में बंगाली समाज की महिलाएं बहुत उत्साहित दिखती हैं, उनका सजना सँवरना, पारंपरिक परिधान, उत्साह और ऊर्जा स्वतःमनमोहक लगते हैं। बच्चों, बुजुर्गों एवं घर के पुरुषों के परिधान एवं उत्साह देखते बनती है।
महालया के दिन से ही दुर्गा पूजा का प्रारंभ होता है। पश्चिम बंगाल के लोग महालया का वर्षभर से प्रतीक्षा करते रहते हैं। धार्मिक मान्यता है कि महालया के साथ श्राद्ध शेष हो जाते हैं और माँ दुर्गा साक्षात नौ रूपों में कैलाश से धरती पर इसी दिन आती हैं। पृथ्वी को देवी पार्वती का पीहर कहा जाता है। माता अपने नैहर में आती हैं और नवरात्र के नौ दिनों में पृथ्वी पर वास करते हुए आसुरी शक्तियों का भी नाश करती हैं।महालया के दिन ही पितरों को विदाई दी जाती है और महालया के दिन माता दुर्गा के स्वागत के लिए विशेष प्रार्थना की जाती है। प्रत्येक वर्ष नवरात्रि प्रारंभ के दिन के हिसाब से माता का वाहन अलग-अलग होता है अर्थात प्रत्येक वर्ष दुर्गा अलग वाहन में आती हैं। महालया के दिन मूर्तिकार मां दुर्गा की आँख को तैयार करता है। इसके बाद से ही मूर्तियों को अंतिम रूप दिया जाता है। इसके बाद माता दुर्गा की प्रतिमा पंडालों की शोभा बढ़ाती हैं। कोलकाता के कुम्हार बिरादरी के लोगों के लिए चर्चित स्थान कुमारटुली में वर्षों से महालया के दिन देवी दुर्गा की आँखें बनाई जाती हैं, जिसे ‘चक्षुदान’ के नाम से जाना जाता है। यह दुर्गा की प्रतिमा निर्माण की प्रक्रिया का आखिरी चरण होता है। कोलकाता में दुर्गा पूजा के लिए चली आ रही परंपराओं में चोखूदान सबसे पुरानी परंपरा है। ‘चोखूदान’ अर्थात चक्षुदान के अंतर्गत दुर्गा की आँखों को चढ़ावा दिया जाता है।’चाला’ बनाने में कम से कम तीन से चार महीने का समय लगता है। इसमें दुर्गा की आँखों को अंत में बनाया जाता है।
दुर्गा पूजा में देवी की मूर्ति निर्माण प्रक्रिया भी नारी सम्मान का एक अतिउत्तम दृष्टांत प्रस्तुत करता हुआ प्रतीत होता है।पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार देवी की मूर्ति बनाने के लिए कुछ चीजें अति आवश्यक मानी गई हैं। उदाहरणस्वरूप गौमूत्र, गोबर, लकड़ी, जूट के ढांचे, सिंदूर, धान के छिलके, पवित्र नदियों की मिट्टी, विशेष वनस्पतियां और निषिद्धो पाली की रज अर्थात वर्जित क्षेत्र की मिट्टी। अर्थात बाकी चीजों के साथ-साथ वेश्यालय की माटी को यदि देवी दुर्गा की प्रतिमा बनाने के लिए उपयोग न किया जाए तो माता की प्रतिमा अधूरी मानी जाती है और दुर्गा माँ की प्राण प्रतिष्ठा नहीं होती।
एक पौराणिक कथा के अनुसार, एक वेश्या दुर्गा माँ की बहुत बड़ी भक्त थी। परंतु, वेश्या होने के कारण समाज उसका तिरस्कार करता था। तब माता ने अपनी इस भक्त को तिरस्कार से बचाने के लिए उसे वरदान दिया था कि उसके हाथ से दी हुई माटी से ही देवी की मूर्ति बनेगी और इस माटी के उपयोग के बिना प्रतिमाएं पूरी नहीं होंगी।विभिन्न मान्यताओं में से एक मान्यता यह भी है कि जब कोई व्यक्ति किसी वेश्यालय के अंदर जाता है तो वह अपनी समस्त पवित्रता वेश्यालय की चौखट के बाहर ही छोड़ देता है और इसलिए चौखट के बाहर की मिट्टी पवित्र हो जाती है। इन मान्यताओं एवं कथाओं का ज़िक्र कई पुस्तकों में एवं जानकारों द्वारा किया गया है।
पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा की एक और विशेषता यह कि यहाँ दो प्रकार से दुर्गा पूजा किये जाने की परंपरा प्रचलित रही है। विशेष रूप से कोलकाता में दुर्गा पूजा पारा और बारिर अर्थात दो तरह से दुर्गा पूजा मनाई जाती है। प्रथा के अनुसार पारा दुर्गा पूजा अर्थात स्थानीय दुर्गा पूजा जो पंडालों,प्रसिद्ध क्लबों और सामुदायिक केंद्रों में बड़े स्तर पर किया जाता है। इनमें थीम बेस्ड,रौशनी,सजावट और भीड़ का एक भव्य आयोजन होता है। बारिर पूजा या घर में दुर्गा पूजा उत्तर कोलकाता एवं दक्षिण कोलकाता में बारिर परंपरा के अनुसार की जाती है। इसमें एक घरेलू प्रभाव होता है तथा यह पूजा सामान्यतः अमीर घरों में एवं ज़मींदार परिवारों के वंशजों के घर में ही की जाती है।
नवरात्रि के दौरान पश्चिम बंगाल में माँ दुर्गा के महिषासुरमर्दिनी रूप को पूजा जाता है।
देवी त्रिशूल को पकड़े हुए होती हैं और उनके चरणों में महिषासुर नाम का असुर होता है।देवी के पीछे उनका वाहन शेर भी होता है। इसके साथ ही दाईं ओर होती हैं सरस्वती और कार्तिक एवं बाईं ओर लक्ष्मी व गणेश होते हैं। इस पूरी प्रस्तुति को चाला कहा जाता है।
साथ ही छाल पर शिव की मूर्ति या छवि भी होती है।
दुर्गा पूजा की तिथियाँ महालया अमावस्या के पालन से निर्धारित होती हैं। पूजा के पहले आधिकारिक दिन को महाषष्ठी कहा जाता है। इसके बाद महासप्तमी, महा अष्टमी, महानवमी और विजयादशमी मनाई जाती है।
महाषष्ठी दुर्गा पूजा के शुरुआत का प्रतीक है एवं यह आश्विन मास के शुक्ल पक्ष का छठा दिन होता है। इस समय ढाक अर्थात ढोल हर पंडाल में बजाया जाता है। इस दिन कई अन्य अनुष्ठान और पूजा का आयोजन किया जाता है।
माना जाता है कि महाषष्ठी के दिन माता दुर्गा अपने चार बच्चों गणेश, कार्तिक, सरस्वती व लक्ष्मी के साथ धरती पर आती हैं। यह तभी होता है जब उनके आगमन को पुजारियों के द्वारा जाग्रत किया जाता है। नवरात्रि के छठे दिन माँ दुर्गा की मूर्ति को पंडाल में स्थापित किया जाता है एवं संध्या के समय उनके मुख से आवरण हटाया जाता है।
महासप्तमी, दुर्गोत्सव का द्वितीय दिवस विभिन्न विशेष पूजा अनुष्ठानों से संपन्न होता है। इनमें से पहला यह है कि महासप्तमी को पवित्र जल में डूबे हुए केले के गुच्छे को नई साड़ी से ढककर सूर्योदय से पूर्व महापूजा की जाती है। मान्यता है कि यह क्रिया एक नवविवाहित नारी को दर्शाती है,जिसे कोलाबौ कहा जाता है। पश्चिम बंगाल में महासप्तमी दुर्गा पूजा का अर्चना हिसाब से पहला दिन होता है और इस दिन नवपत्रिका पूजन किया जाता है। नवपत्रिका पूजा में भिन्न-भिन्न पेड़ से नौ पत्ते लेकर गुच्छा बनाया जाता है और इन नौ पत्तों को देवी का अलग-अलग रूप मानकर माँ दुर्गा का आह्वान किया जाता है। नव अर्थात नौ एवं पत्रिका का संस्कृत में अर्थ पत्ती होता है, तभी इसे नवपत्रिका कहा गया है।नवपत्रिका को सूर्योदय से पहले पवित्र नदी में स्नान कराया जाता है। इस स्नान को ही महास्नान कहते हैं। पांडालों में महासप्तमी के दिन ही माँ दुर्गा की प्रतिमा स्थापित की जाती है और विशेष तरीके से नवपत्रिका पूजन किया जाता है। मान्यता है कि महासप्तमी के दिन जटिल अनुष्ठानों के साथ दुर्गा माँ को आमंत्रित करने पर माँ प्रतिमा में प्रवेश करती हैं।
महा अष्टमी, दुर्गोत्सव का तृतीय दिवस है और इसे दुर्गा पूजा का सबसे महत्वपूर्ण एवं मुख्य दिवस कहा जाता है।
इस दिन संधि पूजा भी होती है, जो अष्टमी एवं नवमी दोनों दिन चलती है। संधि पूजा में अष्टमी समाप्त होने के अंतिम के २४ मिनट एवं नवमी शुरू होने के शुरुआत के २४ मिनट को ‘संधिक्षण’ मानने की मान्यता रही है।कहा जाता है कि यह वही क्षण था, जब माँ दुर्गा ने असुर चंड एवं मुंड का वध किया था। कहते हैं कि इस दिन माँ दुर्गा अंत में दुष्ट एवं अहंकारी राक्षस महिषासुर का वध करती हैं। सभी भक्त इस दिन देवी दुर्गा के चरणों में पुष्प के संग प्रार्थना अर्पित करते हैं, जिसे पुष्पांजलि कहा जाता है।वैसे तो दुर्गा पूजा के सभी दिनों में पुष्पांजलि दी जाती है,परन्तु महा अष्टमी की पुष्पांजलि सबसे अधिक प्रसिद्ध है।बंगाली हिन्दू चाहे दुनिया के किसी भी कोने में रहें, पर अष्टमी के दिन वे सुबह उठ कर दुर्गा को पुष्प अवश्य अर्पित करते हैं। इस दिन कन्या पूजन भी किया जाता है। कन्याओं को स्वयं देवी दुर्गा का अवतार मानकर उनका पूजन किया जाता है। देवी के समक्ष कुमारी की पूजा की जाती है। यह देवी की पूजा का सबसे शुद्ध और पावन रूप माना जाता है।पश्चिम बंगाल में दुर्गोत्सव के दौरान संध्या आरती का विशेष महत्व है। कोलकाता में संध्या आरती अत्यंत सुंदर और प्रकाशमान होती है कि लोग इसे देखने दूर-दूर से यहाँ पहुँचते हैं। संध्या आरती मुख्य रूप से चार दिनों तक चलने वाले त्योहार के दौरान रोज शाम को की जाती है।
संध्या आरती की रस्म ढोल, शंख, नगाड़ों, घंटियों और नाच-गाने के बीच संपन्न की जाती है।
महानवमी, दुर्गोत्सव का चतुर्थ दिवस महाआरती एवं नवमी हवन के साथ संपन्न होती है। संधि पूजा समाप्त होने के ठीक बाद महानवमी मनाई जाती है।
मान्यता है कि महानवमी में हवन-अर्चन करने से जीवन में सुख-शांति एवं समृद्धि आती है। कुछ स्थानों की प्रथा है कि महानवमी को माँ दुर्गा को भक्त बलि भी अर्पित करते हैं।
पश्चिम बंगाल में दुर्गोत्सव के समय धुनुची नृत्‍य की परंपरा रही है,जो वर्तमान में देश के कई राज्यों में दुर्गा पूजा के समय न‍िभाई जाने लगी है।मान्‍यता है देवी दुर्गा धुनुची नृत्‍य से अत्‍यंत प्रसन्‍न होती हैं तथा भक्तों को मनचाहा वर देती हैं। धुनुची नृत्य वास्तव में शक्ति का परिचायक है। इसका संबंध महिषासुर वध से जुड़ा है।पुराणों में वर्णन है कि अति बलशाली महिषासुर का वध करने के लिए देवताओं ने दुर्गा माँ की स्तुति की थी एवं माता ने असुर के वध से पहले स्वयं की ऊर्जा तथा शक्ति को बढ़ाने के लिए धुनुची नृत्य किया था। यह परंपरा आज भी विद्यमान है। आज भी महासप्तमी से धुनुची नृत्य शुरु हो जाता है और महा अष्टमी व महानवमी को भी किया जाता है। धुनुची से ही मां दुर्गा की आरती भी उतारी जाती है। धुनुची मिट्टी का एक पात्र होता है। जिसमें सूखा नारियल,कपूर एवं हवन सामग्री इत्यादि रखी जाती है।मिट्टी की धुनुची को हाथ में पकड़कर नृत्य करने की कला धुनुची नाच कहलाती है। कुछ श्रद्धालु तो स्थानीय ढाक अर्थात ढोल की थाप पर ही इस धुनुची को मुँह में भी पकड़कर नृत्य करते हैं।
विजया दशमी,दुर्गोत्सव का अंतिम दिवस के रूप में जाना जाता है। भगवान श्रीराम ने इसी दिन रावण का वध किया था तथा देवी दुर्गा ने नौ रात्रि एवं दस दिन के युद्ध के उपरान्त महिषासुर पर विजय प्राप्त की थी। इसीलिए इस दशमी को ‘विजयादशमी’ के नाम से जाना जाता है। पूजा एवं अनुष्ठानों के उपरांत पश्चिम बंगाल में दशमी के दिन महिलाएँ माता दुर्गा की प्रतिमा को सिंदूर लगाने पंडाल आती हैं और वहाँ सिंदूर खेला खेलती हैं। बुराई पर अच्छाई की जीत का संदेश देने वाले विजया दशमी के पर्व पर माँ दुर्गा को विदा करने से पहले पश्चिम बंगाल में सिंदूर से खेलना या सिंदूर खेला को लेकर मान्यताएं हैं कि सिंदूर खेला के समय विवाहित महिलाएँ पान के पत्तों से माँ दुर्गा के गालों को स्पर्श करते हुए उनकी मांग एवं माथे पर सिंदूर लगाकर अपने सुहाग की लंबी आयु की प्रार्थना करती हैं। सिंदूर खेला की रस्म केवल शादीशुदा सुहागन महिलाओं के लिए ही होती है। इस रस्म में सभी महिलाएं एक-दूसरे को गालों पर सिंदूर लगाती हैं।
दूसरी मान्यता है कि नवरात्रि में देवी दुर्गा दस दिनों के लिए अपने पीहर आती हैं। जिस तरह से नवरात्रि में बेटी के मायके आने पर उसकी सेवा-सत्कार की जाती है, उसी तरह देवी दुर्गा की भी सेवा-सत्कार की जाती है। दशमी के दिन हर महिला माँ दुर्गा को बेटी की तरह विदाई देती है एवं विसर्जन से पहले माता के संग पोटली में श्रृंगार सामाग्री एवं खाने की चीजें रखी जाती हैं, इसे देवी बोरन कहा जाता है। देवी दुर्गा जो संपूर्ण संसार की माँ हैं, उन्हें इस दिन पुत्री की तरह विदाई दी जाती है। माता दुर्गा को प्रसन्नता के साथ विदा करने की ही प्रथा रही है और सब हँसकर माता को विदाई देते हैं कि अगले साल माँ को फिर आना ही है और सब कहते हैं “अश्चे बोछोर आबार होबे” अर्थात आने वाले वर्ष में पुनः होगा मतलब आने वाले साल में दुर्गा पूजा फिर होगा। कहा जाता है कि देवी दुर्गा विजया दशमी के दिन ही कैलाश पर्वत के लिए प्रस्थान करती हैं। इसी वज़ह से विजया दशमी के दिन देवी शक्ति की प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है। दशमी को दुर्गा माता की प्रतिमाओं की भव्य रूप से शोभायात्रा निकाली जाती है। प्रतिमाओं को विसर्जित करने के लिए नदियों या जलीय स्थानों पर ले जाया जाता है। हिन्दू पुराणों में जल को ब्रह्म कहा गया है एवं जल में देवी-देवता की प्रतिमाओं को विसर्जन करने की मान्यता चली आ रही है। इसके बाद पश्चिम बंगाल में लोग मित्रों एवं परिजनों से मिलने जाते हैं एवं अपने बड़ों का आशीर्वाद लेते हैं। घरों में स्वादिष्ट पकवानों एवं मिठाइयों का आनंद उठाते हैं और पारंपरिक परिधान धारण करते हैं व साथ ही साथ एक-दूसरे को शुभ विजया कहते हैं।
दुर्गा पूजा से समाज को यह संदेश जाता है कि प्रत्येक नारी का सम्मान पुत्री की ही तरह किया जाना चाहिए।भारतीय संस्कृति में स्त्री को पूजनीय एवं सम्मानीय माना जाता रहा है।तथापि वर्तमान में यह सम्मान मात्र परंपरा एवं पर्वों में दिखता है। स्त्री जो घर में विभिन्न रिश्तों में बंधी रहती है और अदृश्य दस हाथों को लेकर सुबह से रात तक अपने घर एवं परिवार के लिए समर्पित रहती है,उसके दस अदृश्य हाथ किसी को दिखाई नहीं देता और साथ ही साथ उसकी अवहेलना आज भी की जाती है।वहीं देवी दुर्गा के दस हाथों एवं ममतामयी छवि को देखकर सभी भाव विह्वल हो उठते हैं। दुर्गा पूजा में यदि श्रद्धा एवं भक्ति आवश्यक है तो उससे अधिक आवश्यक है कि दुर्गा पूजा के मूल्यों एवं संदेश को समझना एवं उसे स्वयं के जीवन में उतारना। यदि पश्चिम बंगाल का अनूठा, भक्तिमय, पारंपरिक, पुनीत एवं सत्य से ओतप्रोत सौंदर्य देखने की इच्छा हो तो दुर्गोत्सव के समय कम से कम पाँच दिन कोलकाता में अवश्य बिताना चाहिए।
शावर भकत “भवानी” कोलकाता, पश्चिम बंगाल