Friday, May 17, 2024
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किसान आंदोलन क्या वाकई समाप्ति पर?

करीब एक साल के लंबे अंतराल के बाद किसान आंदोलन का स्वर धीमा पड़ा है। प्रधानमंत्री मोदी ने तीन विवादास्पद कृषि कानून वापस लेने की घोषणा की है और एमएसपी से जुड़े मुद्दे पर विचार करने के लिए एक समिति बनाने की घोषणा की है। हालांकि किसानों ने आंदोलन को अभी समाप्त नहीं किया है और यह जीत किसानों की अभी अधूरी ही है क्योंकि जब तक एमएसपी पर कोई कानून नहीं बन जाता है तब तक उनका संघर्ष अधूरा ही है।
काफी समय से फसल के समर्थन मूल्य पर विवाद होते आ रहे हैं और अभी तक इस मसले का कोई स्थाई हल भी नहीं निकाला जा सका है। इस नए किसान बिल में छोटे किसानों को लाभ जरूर दर्शाया गया है और बिचौलियों से राहत की बात दर्शायी गयी लेकिन किसानों में इस बिल को लेकर संदेह बना रहा और वे इस कानून को वापस लेने की मांग पर अड़े रहे। सरकार ने समर्थन मूल्य के मसले पर समिति बनाने की बात तो कही लेकिन इस समस्या का कोई स्थाई हल देने का कोई वायदा नहीं किया। गौरतलब है कि इस मसले को अभी तक नजरअंदाज ही किया जा रहा है। समर्थन मूल्य देने से सरकार को कोई नुकसान हो सकता है क्या? या भंडारण व्यवस्था पर कोई असर पड़ेगा? किसानों में अस्सी फीसदी से ज्यादा आबादी छोटे और सीमांत किसानों की है, बड़े किसान छह सात फीसदी से ज्यादा नहीं है और मध्यम दर्जे की किसान दस फीसदी से ज्यादा नहीं है। अगर कृषि कानूनों का लाभ बड़े किसानों को मिलता रहेगा तो छोटे किसान क्या करेंगे?
यह जरूरी है कि किसानों के संदेह को समाप्त करने के लिए समर्थन मूल्य के मुद्दे को कानूनी जामा पहनाया जाए। साथ ही यह भी जरूरी हो जाता है कि सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों में पारदर्शिता हो ना कि बिचोलियों और उद्योगपतियों के हाथ की वो कठपुतली बन जाए। कानून को थोपने के बजाय किसानों की समस्या का समाधान हो। उनकी आय बढ़ाने की बात की जाये। फसल बीमा योजना का पैसा किसानों के हाथ में ना जाकर बीमा कंपनियों को मिल जाता है। किसान सम्मान निधि का पैसा पचास फीसदी भी किसानों तक नहीं पहुंचता है। इस मसले पर ध्यान दिये जाने की जरूरत है।
हालांकि आजकल राजनीति सिर्फ चुनाव जीतने भर तक ही रह गई है और असल मतलब सिर्फ सत्ता हासिल करना रह गया है। किसान अभी भी सिर्फ वोटर ही है। उत्तर प्रदेश और पंजाब के विधानसभा चुनाव के मद्देनजर आज के माहौल में किसानों के मुद्दे में राजनीतिक लाभ ना खोजा जाए यह बात संदेहास्पद लगती है लेकिन फिर भी किसानों की समस्याओं को ध्यान में रखते हुए यह जरूरी हो जाता है कि इस मसले को राजनीतिक गलियारों से दूर रखा जाए।
प्रियंका वरमा माहेश्वरी, गुजरात