Friday, May 3, 2024
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नियति का न्याय

कभी-कभी हम न चाहते हुए भी किसी पर अंधा विश्वास कर जाते है। वैसे तो बढ़े-बूढ़े यानि बुजुर्ग कह गए है की हर कदम फूँक-फूँक कर रखना चाहिए, पर राम तो अपनी बेटी के विवाह के समय अपने मित्र पर अंधा विश्वास कर गया। बेटी का विवाह हो गया, पर कुछ समय पश्चात ही परिवार की संकीर्ण सोच उमा पर हावी होने लग गई। उमा सदैव ही माता-पिता के प्रति समर्पित लड़की थी। तलाक जैसे शब्द तो उसके शब्दकोष में थे ही नहीं। उमा उस परिवार में स्वयं को असहाय महसूस करने लगी, पिता के प्यार के कारण वापस घर आना भी उसे स्वीकार नहीं था। अतः अंतिम निर्णय उसने स्वयं को समाप्त करना चुना। राम को उमा के बाल्यकाल से लेकर विवाह तक की सारी यादें अंदर से झंकझोर कर रही थी की क्यों मैने पर्याप्त छानबिन के बिना उमा का रिश्ता एक गलत घर में कर दिया। राम के पैरो से तो जमीन खिसक ही चुकी थी, पर फिर भी उसने धैर्य को ही चुना और दिल पर पत्थर रखकर आगे का समय व्यतीत किया।
कानूनी कार्यवाही उसने अपनी पत्नी के स्वास्थ्य को लेकर नहीं की, क्योंकि उसे डर था की यदि केस लंबा चला और बार-बार उमा के विषय में चर्चा हुई तो पत्नी का स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित हो जाएगा, क्योंकि वह उमा की मृत्यु के कारण पहले से ही मानसिक अवसाद से ग्रस्त हो गई थी। विष का घूँट पीकर भी राम के सामने उमा के ससुराल वालों को माफ करने के अलावा और कोई दूसरा रास्ता नहीं था। कुछ समय अंतराल के पश्चात उमा के पति का पुनर्विवाह हुआ, पर वही परिवार की संकीर्ण सोच और तालमेल के अभाव में अबकी बार उमा के पति को ही अपनी जीवन लीला समाप्त करनी पड़ी। राम ने कभी भी तड़प, दु:ख, संताप और संत्रास की अवस्था में कभी कोई बददुआ नहीं दी, पर नियति के न्याय ने सबकुछ स्वतः ही कर दिया। उमा तो कभी वापस नहीं आएगी पर शायद अब उस परिवार को भी संतान को खोने का पश्चाताप होगा और वह परिवार भी उमा के जाने पर जो दु:ख राम के परिवार पर बिता था वह भी उस पीड़ा को महसूस करेगा।
इस लघुकथा से यह शिक्षा मिलती है कि ईश्वर का अस्तित्व है, शायद वह परीक्षा लेता है, पर नियति के न्याय को आप नहीं ठुकरा सकते। कभी सच्चाई को मौन होना पड़ता है, पर वह कभी भी पराजित नहीं हो सकती। यह भी शाश्वत सत्य है। सदैव प्रयत्न करें की यथार्थ के धरातल पर ही किसी रिश्ते की नींव रखी जाए। ऐसे मध्यस्थ और मित्र न बनें की किसी की दुनिया में सदैव के लिए आँसुओं का बसेरा हो जाए। माता-पिता के लिए संतान को खोने से बढ़कर और कोई दु:ख नहीं हो सकता इसलिए कभी किसी को पीड़ा देने में सहायक न बनें।
डॉ. रीना रवि मालपानी (कवयित्री एवं लेखिका)