Sunday, May 19, 2024
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लेख/विचार

प्यार, इश्क, मोहब्बत जैसे सुंदर एहसास अब हवस मिटाने का ज़रिया बन गया है

समय के चलते स्वतंत्रता को अपना नैतिक हक समझने वाली आजकल की पीढ़ी स्वच्छंदता का अंचला ओढ़े मनमानी कर रही है। या यूँ कहे कि, माँ-बाप के बनाए हुए दायरे को तोड़ कर आज़ाद ज़िंदगी जीने की होड़ में बर्बादी के पथ पर चल पड़ी है। खासकर लड़कियाँ अपने आप को बहुत एडवांस और होशियार समझते माँ-बाप के संस्कारों को निलाम करने पर तुली है। लड़कियों को जवानी के एक पड़ाव पर ठहरकर सोचने की जरूरत है कि वह क्या चाहती है। अपना लक्ष्य तय करते करियर बनाने की उम्र में प्रेम, प्यार के चक्कर में समय बर्बाद करते कहीं की नहीं रहती। एक उम्र के बाद जायज़ है शारीरिक विकास के साथ विपरीत सेक्स के प्रति आकर्षण होना; पर उस उन्माद को प्यार का नाम देकर मनचले लड़कों के हाथों की कठपुतली बनकर खुद के साथ-साथ माँ-बाप की इज़्जत की धज्जियां उड़ाने का हक आपको हरगिज़ नहीं। दर असल पारिवारिक संस्था की व्यवस्था ही डावाँडोल होने लगी है। पहले के ज़माने में घर में पिता का एक रुतबा हुआ करता था, जो परिवार के हर सदस्यों को अनुसाशन में रखता था। दिनभर कितने भी उछल कूद कर लेते थे शाम को पिता जी के ऑफ़िस से आने का वक्त होते ही बच्चें सावधान होकर एकदम शांत होकर अपने काम में व्यस्त हो जाते थे। डर कहो, या सम्मान कहो पर पिता का वो रोबिला अंदाज़ बच्चों को अनुसाशन में जरूर रखता था। आजकल तो माँ-बाप का कुछ भी कहना बच्चों को बंदीशें लादना और शोषण लगने लगता है। माँ-बाप भी अपने आप को खुले विचारों वाले आधुनिक समझते बेटियों को कुछ ज़्यादा ही छूट देने लगे है, जिसका कुछ ना समझ लड़कियाँ गलत फ़ायदा उठाते, मनमर्ज़ी करते ऐसे रास्ते पर चल पड़ती है जहाँ से उनकी लाशें ही वापस आती है। ऐसे किस्सों में कहीं पैसों की भूख, तो कहीं शारीरिक भूख ही मुख्य कारण होती है। वेब सीरिज़ों में लड़कियाँ जिस तरह बिंदास गालियाँ बक रही है, कपड़े उतारने लगी है क्या उसके परिवार वाले वो सब नहीं देखते होंगे? या पैसों के लिए सब नज़र अंदाज़ करते होंगे? बड़ी-बड़ी शादीशुदा हीरोइनें भी पैसों की ख़ातिर अंग प्रदर्शन करने से नहीं शर्माती। वही बिंदास अंदाज़ जब आम लड़की अपनाती है तब उसको लूटने वालों की दुनिया में कोई कमी नहीं है।
ज़िंदगी में कितना कुछ करने के लिए होता है, अपने भविष्य को सुरक्षित करने हेतु पढ़ लिखकर कुछ बनकर दिखाओ। अगर आप में कोई हुनर है तो उसे विकसित करो और आगे बढ़कर अपने माँ-बाप का नाम रोशन करो। लड़कियों संभल जाओ… खाने, खेलने और करियर बनाने की उम्र में शारीरिक आकर्षण को प्यार समझकर ऐसे लड़कों के बहकावे में आकर ज़िंदगी तबाह मत करो; जिनको प्यार, इश्क, मोहब्बत की परिभाषा ही पता नहीं।

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विरोध पाखंड का हो न कि रंगों का

आजकल पठान फ़िल्म सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय बनी हुई है। खासकर दीपिका के भगवा रंग के आउटफ़ीट को लेकर बवाल मचा हुआ है। सनातन हिन्दू धर्म में भगवा रंग को पवित्र माना जाता है, जो मंदिरों की ध्वजा से लेकर साधु संतों के द्वारा पहने जाने वाले कपड़ों का रंग होता है। इसका मतलब ये तो नहीं की केसरी रंग और कोई पहन ही नहीं सकता या किसी और चीज़ों के लिए उपयोग में नहीं लिया जाना चाहिए।
मुद्दा यहाँ दीपिका ने भगवा रंग पहनकर डांस किया उसका नहीं, मुद्दा ये है कि क्या हर भगवे रंग के भीतर बैठा इंसान पवित्र है? निर्माेही है? साफ़ दिल और असल में साधू संतों वाला जीवन जी रहा होता है?
हमने पुराणों में एक कथा सुनी है कि, सीता जी जब बारह साल की बालिका थे तब शिवजी का धनुष आराम से उठाकर खेला करते थे। वही धनुष बलशाली रावण रत्ती भर हिला भी नहीं पाया था और सीता जी को वनवास के दौरान वही रावण फूल की तरह कँधे पर उठाकर ले गया था। रावण भी भगवा धारण करके साधु के भेष में आया था न? तो कहाँ उस रंग का सम्मान हुआ? इस मुद्दे पर तो आज तक कोई बहस कहीं नहीं सुनी।
हमारे यहाँ सदियों से भगवा के सामने झुकने की परंपरा चली आ रही है। जिस परंपरा को निभाने से सीता जी भी नहीं चुके और रावण की फैलाई जाल का शिकार हो गए। कहने का मतलब ये है की भगवा रंगधारी हर चीज़ हर इंसान की नीयत साफ़ नहीं होती। न हर भगवाधारी गलत या राक्षस होता है।
हमारे देश में कई भगवाधारीओं के कांड आए दिन अखबारों की सुर्खियां बनते रहते है, रंग मायने नहीं रखता इंसान की नीयत और पवित्रता पूज्य होती है। बहुत सारे संत भगवा धारण करके असल में साधु सा जीवन जीते भी है।

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जल संकटः समझनी होगी बेशकीमती पानी की महत्ता

पिछले सप्ताह देश में जल सप्ताह का आयोजन किया गया, जिसमें जल संरक्षण, जल के उपयोग एवं जल स्रोतों को संरक्षित करने के विषय पर चर्चा के लिए विभिन्न देशों के दो हजार से भी ज्यादा प्रतिनिधि शामिल हुए। जल सप्ताह के दौरान जल शोधन तथा जल को बचाने के लिए गंभीरता से चर्चा हुई। ग्रेटर नोएडा में जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण विभाग, जल शक्ति मंत्रालय द्वारा आयोजित भारत जल सप्ताह का उद्घाटन करते हुए राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का कहना था कि आने वाली पीढ़ियों को बेहतर और सुरक्षित कल देने में सक्षम होने का एकमात्र तरीका जल संरक्षण ही है। हालांकि ऐसा नहीं है कि पानी की कमी को लेकर व्याप्त संकट अकेले भारत की ही समस्या है बल्कि जल संकट अब दुनिया के लगभग सभी देशों की विकट समस्या बन चुका है। राष्ट्रपति का भी कहना था कि पानी का मुद्दा केवल भारत के लिए ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए प्रासंगिक है। इस अवसर पर केन्द्रीय जलशक्ति मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत का कहना था कि देश में जनसंख्या और जल की उपलब्धता में विषमता पर गंभीरता से विचार होना चाहिए। देश में आज कई इलाके ऐसे हैं, जो जल संकट की भयावह स्थिति से गुजर रहे हैं। इसके अलावा कुछ राज्यों के बीच बरसों से पनप रहे जल विवाद भी समस्या को विकराल बनाते रहे हैं। इसीलिए उपराष्ट्रपति ने भारत जल सप्ताह के समापन समारोह को सम्बोधित करते हुए कहा कि राज्यों के बीच जल विवाद से कोई लाभ नहीं होगा और उन्हें जल विवादों से बचना चाहिए तथा इनका हल निकालना चाहिए। देश में जल संकट को लेकर अब जिस प्रकार की स्थितियां निर्मित होने लगी हैं, ऐसे में देश में हर साल जल सप्ताह मनाने की नहीं बल्कि पूरे साल ‘जल वर्ष’ मनाने की सख्त दरकार है।

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उफ़्फ ये स्त्रियाँ भी ना

क्या स्त्रियों के उपर हुए शारीरिक अत्याचार ही घरेलू हिंसा कहलाता है? मानसिक प्रताड़ना का क्या? जो एक होनहार महिला को अवसाद का भोग बना देता है। लगता है कुछ स्त्रियाँ प्रताड़ना सहने के लिए ही पैदा हुई होती है। ऐसी स्त्रियों को पता भी नहीं होता घरेलू हिंसा और प्रताड़ना के बहुत सारे प्रकार होते है।
शारीरिक अत्याचार को ही हिंसा समझने वाली स्त्रियों को मौखिक अत्याचार, लैंगिक अत्याचार और आर्थिक अत्याचारों के बारे में जानकारी ही नहीं होती। नां हि स्त्रियों के हक में कायदे कानून के बारे में पता होता है। कोई-कोई स्त्रीयाँ तो स्वीकार कर लेती है आधिपत्य भाव! कि पति है तो उसका हक बनता है हमारे साथ अत्याचार करने का।
साथ ही जरूरी नहीं की शादी के बाद पति जो अत्याचार करे उसे ही घरेलू हिंसा मानी जाए। पिता या बड़े भाई द्वारा लड़की को पढ़ने से रोकना, पहनावे पर रोकटोक करना, बाहर आने जाने पर रोक लगाना या उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ शादी करवा देना भी प्रताड़ना का ही हिस्सा कहलाता है। लड़की ज़ात सहने का भाव लेकर ही पैदा होती है।
पत्नी को बात-बात पर कम अक्कल कहना, ताने मारना, दोस्तों-रिश्तेदारों के सामने ज़लिल करना और बेइज़्जती के साथ लात, थप्पड़ या घूसा मारना हिंसा ही है और धमकी देना या घर से निकाल देना अत्याचार ही है।

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लघुकथाः स्त्री बनना है जरूरी

जब रमा का विवाह एक प्रतिष्ठित और सम्पन्न परिवार में तय हुआ तब मन में अजीब सी कशमकश थी कि मेरी उम्र तो छोटी है। इतना बड़ा संयुक्त परिवार है। मैं कैसे सामंजस्य बैठा पाऊँगी। अभी तो किसी भी कार्य में दक्षता नहीं है। पारिवारिक रिश्ते-नाते, रीति-रिवाजों की पर्याप्त समझ आने में तो बहुत समय लगेगा। उसके मन भी बड़ी उलझन थी, पर विवाह उपरांत जब घर में गई तो सारी स्त्रियाँ केवल स्त्रियाँ ही थी। वे धौंस, रोब और अकड़ से परे थी। उन्होंने रमा से कहा कि सारे रिश्ते बाद में आते है, हम सबसे पहले स्त्री है; तुम्हारी सास, जैठानी और ननंद बाद में। तुम सबसे पहले इस घर में सहज हो जाओ। यहाँ पर कोई भी तुम्हें किसी तराजू में नहीं तौलने वाला है। वह अपनी हर छोटी से छोटी समस्या परिवार में रहने वाली स्त्रियों को बताती और सभी मिलजुलकर उस समस्या का समाधान करते। वहाँ पर सभी का सबसे बड़ा गुण माफ करना था। पुरानी बातों को छोड़कर कुछ नया सोचना था। सभी अपने कार्यों में व्यस्त रहते थे।
रमा अपनी माँ से कहती है कि मेरे ससुराल में सुंदरता, गुणों और अवगुणों को तौलने के लिए कोई तराजू नहीं है। सास अपनी पुरानी कहानियाँ नहीं सुनाती कि मेरे जमाने में ऐसा होता था, मैंने यह किया था, मैंने वह किया था। जेठानी अपनी श्रेष्ठता नहीं सिद्ध करती कि मैंने इस घर को संभालने में इतने वर्ष झोंक दिए। ननंद हर समय मान-सम्मान की दुहाई नहीं देती। हर कोई मुझे सहज महसूस कराने में लगा रहता है। माँ यदि हर परिवार में ऐसी ही परम्परा स्थापित हो जाए तो हर लड़की अपने परिवार को आसानी से अपना लेगी। माँ वहाँ की एक और विशेषता है कि वहाँ पर दोषों पर चर्चा करना स्वीकार नहीं है। दोषों पर ध्यान केन्द्रित करने से उन्नति रुक सकती है, पर समाधान और चिंतन करने से हमारी दृष्टि विकसित होती है। वहाँ पर अपनी गलती को स्वीकार करके हल्का महसूस करने पर भी बल दिया जाता है। माँ मैं भी अब अपने ससुराल के सहयोग के साथ आगे बढ़ना चाहती हूँ। अपनी सोच को उदार बनाना चाहती हूँ। माँ रमा के वाक्य सुनकर मन-ही-मन उस परिवार के प्रति धन्यवाद और मन से दुआएँ दे रही थी, जिस परिवार ने उसकी बेटी की जिंदगी आसान कर दी।

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पहली पंक्ति वाले बेदाग अपराधी दंडित हों

हम मानसिक रूप से आज भी गुलाम हैं और इस गुलामी को बनाये रखने में हमारी असफल शिक्षा व्यवस्था की भूमिका अहम है। वास्तविक रूप से शिक्षित हुए बिना ही कॉलेजों/ विश्वविद्यालयों से डिग्रियाँ मिल जाती हैं और येन केन प्रकारेण उच्च पद या उच्च सफलता को हथियाने में सफलता मिल जाती है। कम पढ़े लिखे, संघर्षमय दौड़ में शामिल न हो सकने वाले लोग या मनचाही सफलता से वंचित लोग तथाकथित सफल एवं उच्च पदस्थ लोगों को अपना आदर्श मान लेते हैं। यही से एक प्रछन्न अपराध जन्म लेता है।
आइये, जरा विचार करें। किसी आशाराम, कामुक मौलवी, रेपिस्ट पादरी या रामरहीम के पास भक्तों की अगली पंक्ति में कौन होते हैं ? निःसंदेह हमारा इशारा कुछ डी एम, एस पी, न्यायाधीश, वैज्ञानिक, इंजीनियर, डॉक्टर, सी ए, प्रोफेसर, पूँजीपति एवं राजनेताओं की ओर होगा। बेचारी जनता जब बाबाओं के पास ऐसे महाभक्तों को देखती है तो खुद। अपने दिमाग से सोचना छोड़ देती है और आँखें बंद करके उनके पीछे लग जाती है क्योंकि अग्रिम पंक्ति की तथाकथित महान हस्तियों की अंधभक्ति उसके विवेक पर भारी पड़ती है। फलस्वरूप भीड़ बढ़ने लगती है और बाबाओं के आशीर्वाद की रोचक व चमत्कारी कथाएँ जंगल में लगी आग की तरह फैलने लगती हैं। अपार आत्मसुख देती है। शक्तिशाली चुम्बल की तरह अपनी ओर खींचे रहती है।
फिर तो भक्तों की जमात देखकर ये तथाकथित बाबा भी खुद को जगद्नियंता परमेश्वर या पैगम्बर समझने लगते हैं। उनकी वाणी ईश्वर – इच्छा सी हो जाती है। उनके भक्त बाबा/पीर की आलोचना या मूल्यांकन पर मारने – मरने के लिए तत्पर हो जाते हैं……। कालान्तर में भक्ति परिवर्तित होते हुए शक्ति बन जाती है। लोकतन्त्र पर भीड़तन्त्र प्रभावी हो जाता है और साथ ही प्रभावी हो जाता है अनशन, प्रदर्शन और हिंसा का भयावह खेल। पापलीला का अभ्युदय, ब्लैक बिजनेस की तरक्की और बेकाबू शक्ति प्रदर्शन शुरु हो जाते हैं ।

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देवताओं को अमृतपान कराकर अमर किया था धन्वन्तरि ने

दीवाली से दो दिन पूर्व ‘धनतेरस’ नामक त्यौहार मनाया जाता है, जो इस वर्ष 22 अक्तूबर को मनाया जा रहा है। हालांकि कुछ लोगों द्वारा यह पर्व 23 अक्तूबर को भी मनाया जाएगा। दरअसल इस बार धनतेरस मनाने की तिथि को लेकर भ्रम बना रहा है। धनतेरस के प्रचलन का इतिहास बहुत पुराना माना जाता है। यह त्यौहार कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को मनाया जाता है तथा इस दिन आरोग्य के देवता भगवान धन्वन्तरि एवं धन व समृद्धि की देवी लक्ष्मी का पूजन किया जाता है।
धनतेरस मनाए जाने के संबंध में जो प्रचलित कथा है, उसके अनुसार कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन देवताओं और असुरों द्वारा मिलकर किए जा रहे समुद्र मंथन के दौरान समुद्र से निकले नवरत्नों में से एक धन्वन्तरि ऋषि भी थे, जो जनकल्याण की भावना से अमृत कलश सहित अवतरित हुए थे। धन्वन्तरि ऋषि ने समुद्र से निकलकर देवताओं को अमृतपान कराया और उन्हें अमर कर दिया। यही वजह है कि धन्वन्तरि को ‘आरोग्य का देवता’ माना जाता है और आरोग्य तथा दीर्घायु प्राप्त करने के लिए ही लोग इस दिन उनकी पूजा करते हैं।
इस दिन मृत्यु के देवता यमराज के पूजन का भी विधान है और उनके लिए भी एक दीपक जलाया जाता है, जो ‘यम दीपक’ कहलाता है। यमराज के पूजन के संबंध में एक कथा प्रचलित है। धार्मिक ग्रथों में इस कथा का वर्णन इस प्रकार किया गया है-

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बेहतर सैन्य फैसलों के लिए याद रहेंगे नेता जी

उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव का 82 साल की उम्र में विगत दिनों निधन हो गया। वे लम्बे समय से बीमार चल रहे थे और हरियाणा के मेदांता अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली। मुलायम सिंह यादव का जन्म 22 नवम्बर 1939 को उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में हुआ था। वे राम मनोहर लोहिया के विचारों से काफी प्रभावित थे। सन् 1950 के दषक में वे राजनीति में सक्रिय हुए और किसानों के लिए लड़ाई लड़ी। उनके संघर्श तथा जुझाारूपन के लिए पुर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह उन्हें ‘लिटिल नैपोलियन’ कहकर पुकारते थे। मुलायम सिंह यादव तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे और 1 जून 1996 से 19 मार्च 1998 तक देश के रक्षा मंत्री भी रहे। रक्षा मंत्री रहते हुए उन्होंने कुछ ऐतिहासिक फैसले लिए जो विशेष उपलब्धि वाले हैं जिन्हें सैन्य क्षेत्र के लोग कभी नहीं भूल सकते हैं।
1990 के दशक में मुलायम सिंह यादव जब उत्तर प्रदेश की सत्ता से हटे तो उन्होंने केन्द्रीय राजनीति में प्रवेश किया। इस समय तक वे लम्बे अनुभव के बाद राजनीति में काफी पारंगत हो चुके थे। वे यह समझ चुके थे कि कब और कहां उन्हें अपनी अहमियत साबित करनी है। वे राजनीति के माहिर खिलाड़ी थे और इसका फायदा भी उठाया। सन् 1996 में जब लोक सभा चुनाव हुए तो उनकी पार्टी ने 17 सीटों पर विजय हासिल की। यह वो समय था जब देश में अस्थिरता का दौर चल रहा था। इस चुनाव के बाद श्री अटल बिहारी वाजपेई की सरकार बनी लेकिन वह मात्र 13 दिन में ही गिर गई। इसके बाद एच. डी. देवगौड़ा की सरकार बनी जिसमें मुलायम सिंह यादव पहले एच. डी. देवगौड़ा और उसके बाद इन्द्र कुमार गुजराल की सरकार में तकरीबन दो साल तक रक्षा मंत्री रहे। अपने इसी कार्यकाल के दौरान उन्होंने रक्षा क्षेत्र के लिए कुछ महत्वपूर्ण फैसले लिए जिसके कारण वे देश के सफल रक्षा मंत्री के रुप में जाने जाते हैं।

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करवा चौथ व्रत के बाद माता अहोई अष्टमी का व्रत

करवा चौथ व्रत के बाद माता अहोई अष्टमी का व्रत किया जाता है। इस व्रत में माताएं निर्जल व्रत रखते हुए उदय होते तारों को देखकर व्रत का समापन करती हैं। जिस तरह करवाचौथ के व्रत में चंद्रमा का महत्व है, उसी तरह अहोई अष्टमी व्रत में तारों का विशेष महत्व होता है।
अहोई अष्टमी करवा चौथ के समान ही है। यह एक सख्त उपवास का दिन है। इस व्रत को रखने वाली महिलाएं पूरे दिन पानी पीने से भी परहेज करती हैं। वे केवल शाम को तारों को देखने और उनकी पूजा करने के बाद ही उपवास तोड़ सकतीं हैं।
यह व्रत माताएं अपने बच्चों की दीर्घायु की कामना के लिए करती हैं। कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को अहोई अष्टमी का व्रत किया जाता है। सुबह उठकर स्नान के बाद साफ वस्त्र पहनें फिर दीवार पर अहोई माता की तस्वीर बनाएं या लगाएं। रोली, चावल और फूलों से माता अहोई की पूजा करें। इसके बाद कलश में जल भरकर माताएं अहोई अष्टमी कथा सुनें। माता अहोई को हलवा पूरी या फिर किसी मिठाई का भोग लगाएं।
अहोई अष्टमी व्रत से संबंधित दो कथाएं प्रचलित हैं,
पहली कथा-
एक समय एक नगर में एक साहूकार रहता था। उसके सात-सात बेटे- बहुएं और एक बेटी थीं। दीपावाली से कुछ दिन पहले उसकी बेटी अपनी भाभियों संग घर की लिपाई के लिए जंगल से साफ मिट्टी लेने गई। जंगल में मिट्टी निकालते वक्त खुरपी से एक स्याहू का बच्चा मर गया। इस घटना से दुखी होकर स्याहू की माता ने साहूकार की बेटी को कभी भी मां न बनने का शाप दे दिया। उस शाप के प्रभाव से साहूकार की बेटी का कोख बंध गया। इस शाप से साहूकार की बेटी दुखी हो गई और उसने अपनी भाभियों से कहा कि उनमें से कोई भी एघ्क भाभी अपनी कोख बांध ले। ननद की बात सुनकर सबसे छोटी भाभी तैयार हो गई। उस शाप के दुष्प्रभाव से उसकी संतान केवल सात दिन ही जिंदा रहती थी। जब भी वह कोई बच्चे को जन्म देती, वह सात दिन में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता था। वह परेशान होकर एक पंडित से मिली और उपाय पूछा।

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डा. अब्दुल कलाम की सादगी और उनके आदर्श

⇒अब्दुल कलाम जयंती (15 अक्तूबर) पर विशेष
देश के महान् वैज्ञानिक और भारत के पूर्व राष्ट्रपति, प्रख्यात शिक्षाविद् डा. एपीजे अब्दुल कलाम (अवुल पाकिर जैनुलाब्दीन अब्दुल कलाम) सच्चे अर्थों में ऐसे महानायक थे, जिन्होंने अपना बचपन अभावों में बीतने के बाद भी अपना पूरा जीवन देश और मानवता की सेवा में व्यतीत कर दिया। छात्रों और युवा पीढ़ी को दिए गए उनके प्रेरक संदेश तथा उनके स्वयं के जीवन की कहानी देश की आने वाले कई पीढ़ियों को भी सदैव प्रेरित करने का कार्य करती रहेगी। न केवल भारत के लोग बल्कि पूरी दुनिया मिसाइल मैन डा. कलाम की सादगी, धर्मनिरपेक्षता, आदर्शों, शांत व्यक्तित्व और छात्रों व युवाओं के प्रति उनके लगाव की कायल थी। डा. कलाम देश को वर्ष 2020 तक आर्थिक शक्ति बनते देखना चाहते थे। पढ़ाई-लिखाई को तरक्की का साधन बताने वाले डा. कलाम का मानना था कि केवल शिक्षा के द्वारा ही हम अपने जीवन से निर्धनता, निरक्षरता और कुपोषण जैसी समस्याओं को दूर कर सकते हैं। उनके ऐसे ही महान विचारों ने देश-विदेश के करोड़ों लोगों को प्रेरित करने और देश के लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करने का कार्य किया। उनका ज्ञान और व्यक्तित्व इतना विराट था कि उन्हें दुनियाभर के 40 विश्वविद्यालयों ने डॉक्ट्रेट की मानद उपाधि प्रदान की।
तमिलनाडु के एक छोटे से गांव में एक मध्यमवर्गीय परिवार में 15 अक्तूबर 1931 को जन्मे डा. कलाम छात्रों का मार्गदर्शन करते हुए अक्सर कहा करते थे कि छात्रों के जीवन का एक तय उद्देश्य होना चाहिए और इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए जरूरी है कि वे हरसंभव स्रोतों से ज्ञान प्राप्त करें। छात्रों की तरक्की के लिए उनके द्वारा जीवन पर्यन्त किए गए महान् कार्यों को देखते हुए ही सन् 2010 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा उनका 79वां जन्म दिवस ‘विश्व विद्यार्थी दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया और तभी से डा. कलाम के जन्मदिवस 15 अक्तूबर को ही प्रतिवर्ष ‘विश्व विद्यार्थी दिवस’ के रूप में मनाया जा रहा है।

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