कहते विकलांग उसे जिनका, अंग भंग हो जाता
मिलता यह दर्जा मुझको तो, क्यों मैं स्वांग रचाता
झूठ वेश खोखली ताली, दो कोठी बस खाली
जीता आया नितदिन जो मैं, जीवन है वो गाली।
घिन करता इस तन से हरपल, मन से भी लड़ता हूँ
कोई नहीं जो कहे तेरा, मैं दर्द समझता हूँ
तन-मन और सम्मान रौंदे, दुनिया बड़ा सताये
होता मेरे साथ भला क्यों, कोई जरा बताये।
अपनों ने ही त्याग दिया जब, मान गैर क्यों देते
जैसा भी है अपना है तू, गले लगाकर कहते
लिंग त्रुटि क्या दोष माँ मेरा, काहे फिर तू रूठी
फैंक दिया दलदल में लाकर, ममता तेरी झूठी।