मीरजापुरः संदीप कुमार श्रीवास्तव। पीतल नगरी के नाम से देश में अपनी एक अलग पहचान बिखेरने वाला उत्तर प्रदेश का जिला मीरजापुर आज अपने अस्तित्व व चमक बचाने की जंग लड़ रहा है। एक जमाना था जब कई देशों अमेरिका, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, पेरू, मलेशिया व स्विट्जरलैंड से कच्चे माल के रूप में हनिस्क्रेप, टोकन, जर्मन सिल्वर, पीतल, तांबा व जस्ता आदि मीरजापुर में जल मार्ग से आया करता था। आज से लगभग तीस वर्ष पूर्व हर घर में लोगों के पास काम होता था। एक व्यापारी के यहाँ सौ से अधिक मजदूर प्रतिदिन काम करते थे जिसमें कच्चा माल गलाना, ढालना, स्क्रेचिंग, बफिंग व पॉलिशिंग आदि करना शामिल था। उस जमाने में पीतल धातु को गरीबों का सोना भी कहा जाता था। यहाँ तक की जिस क्षेत्र में पीतल का काम सबसे अधिक होता था उसे कारीगरों ने सोनवर्षा का नाम दे दिया जिसे आज सोनवर्षा के नाम से पुकार जाता है।
मीरजापुर का बना हस्त निर्मित पीतल व गिलट का बर्तन हंडा, परात, गगरा, थाली, राजगढ़ी थाली, लोटा, कटोरा, कलशा, पतीला, कलछुल, परागी लोटा, पूर्वी परात का पड़ोस के जनपदों व प्रदेशों में बड़े पैमाने पर मांग रहती थी। सुबह के चार बजे से देर रात तक बर्तनों का शोर पूरे शहरी क्षेत्र में सुनाई पड़ता था। शादी-विवाह व त्योहारों के सीजन में मांग बढ़ जाने से उन दिनों कारीगरों व व्यापारियों के पास फुर्सत नहीं रहती थी। गैर जनपदों से कारीगर काम की तलाश में मीरजापुर आते थे।
पीतल बर्तन उद्योग सन् 1980 तक अपने चरम पर था। मीरजापुर हस्त निर्मित पीतल बर्तन उद्योग में कसेरा जाति के लोग जिन्हें ठठेरा भी कहा जाता है अधिक संख्या में जुड़े होते थे जिनका एक इलाका कसरहट्टी के नाम से जाना जाता है। वो आज भी इस उद्योग से जुड़े हुए हैं। मीरजापुर का पीतल बर्तन उद्योग यहाँ का पारंपरिक उद्योग है जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी सदियों से आज भी लोग करते आ रहे हैं।
200 वर्षों से भी पुराना पीतल बर्तन उद्योग आज उपेक्षा का दंश झेल रहा है और अपने उत्थान के लिए डूबते को तिनके का सहारा को लंबे अर्से से इंतजार है। वैसे तो मीरजापुर का पारम्परिक व्यापार लाही, चपड़ा, कालीन उद्योग व पीतल बर्तन उद्योग था लेकिन लाही चपड़ा का व्यापार तो बिलकुल ही समाप्त हो गया है वहीं कालीन उद्योग और पीतल बर्तन उद्योग अपनी पहचान बचाने की जंग आज भी लड़ रहा है।
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