यूं तो महिला दिवस 8 मार्च को मनाया जाता है और बड़े बड़े आयोजन भी होते हैं उस दिन, लेकिन फिर भी कहीं न कहीं लोग मूल मुद्दे से भटक जाते हैं। महिला दिवस मेरी समझ से मानवीय मूल्यों, स्त्री हकों और उनके उत्थान के लिए प्रयासरत और जो आवाज उठाती हैं, जागरूकता पैदा करती हैं वो ही महिला दिवस को सार्थक करते हैं। आज एक पिछड़े तबके की ओर ध्यान ले जाना चाहूंगी जो समाज में कार्य की दृष्टि से पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य कर रहीं हैं और कहीं ज्यादा मेहनती भी हैं लेकिन उनका दर्जा दोयम से भी नीचे है। मैं बात कर रही हूं महिला किसानों की।
महिला किसान दिवस 15 अक्टूबर को मनाया जाता है। महिला किसान दिवस जिसका उद्देश्य महिलाओं में खेती किसानी में भागीदारी को बढ़ावा देना है। मेरी नजर में महिला दिवस के दिन महिला किसान की बात ना करके उनके साथ अन्याय करना होगा। महिला किसान जो बीजारोपण,रोपाई, उर्वरक वीटा, फसल कटाई और भंडारण वगैरह में पुरुषों के साथ बराबरी में काम करती है और एक बात स्पष्ट कर देना चाहूंगी कि किसान महिला खेतों में काम करने के बाद घर भी संभालती है और वहीं पुरुष अपना समय मनोरंजन में व्यतीत करता है। पुरुषों के मुकाबले में महिला किसान ज्यादा काम करती है तो उसे भेदभाव का सामना क्यों करना पड़ता है? क्यों उन्हें किसान का दर्जा नहीं मिल पाता है? किसान की पत्नी के रूप में ही क्यों पहचानी जाती हैं? सबसे बड़ा भेदभाव उनकी मजदूरी को लेकर होता है। पुरुषों के मुकाबले में उन्हें कम मजदूरी मिलती है। ज्यादातर किसान महिलाओं को नियम कानून की जानकारी नहीं होती है। पति की मृत्यु के बाद परिवार की जिम्मेदारी पत्नी पर आ जाती है लेकिन नियम कानून की जानकारी ना होने की वजह से वह अपनी जमीन पर मजदूरों की तरह काम करती है क्योंकि परिवार के पुरूष ( देवर, जेठ, भाई) महिला की जानकारी के अभाव के कारण उनका बेजा फायदा उठाते हैं। कई किसान महिलाएं कोर्ट कचहरी के चक्कर से बचने के लिए अपनी लड़ाई नहीं लड़ती हैं। सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयासों के बावजूद इनकी स्थिति में कोई सुधार नहीं आ रहा है।
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