Wednesday, January 22, 2025
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लेख/विचार

और कब तक प्राण हरेगी गंगा…!

लखनऊ, प्रियंका वरमा माहेश्वरी। बनारस में पिछले हफ्ते गंगा के पानी में मालवाहक जहाज चलाकर प्रधानमंत्री ने देश को यह बताने की कोशिश की कि गंगा अब पूरी तरह साफ़ हो चुकी है और उसमें इतना अधिक और निर्मल जल है कि उसके जरिये नया व्यापारिक रास्ता खुल गया। प्रधानमंत्री ने इसे न्यू इण्डिया का जीता-जागता उदाहरण बताया और उनका गंगा सफाई का संकल्प पूरा होने को है जो उन्होंने चार साल पहले लिया था। उन्होंने अपनी पूर्ववर्ती सरकारों को नाकारा बताते हुए बताया कि ’हमने गंदे पानी को गंगा में गिरने से रोका। जगह-जगह ट्रीटमेंट प्लांट लगवाये। आज अकेले 400 करोड़ की परियोजना बनारस में चल रही है।’ वहीं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, मंत्रियों ने इसे काशी को क्योटो बनाने के प्रधानमंत्री के वायदे से जोड़ा। दूसरी ओर उत्तर प्रदेश सरकार प्रदेश में यमुना नदी को गंगा से जोड़कर नोएडा से आगरा, प्रयागराज से वाराणसी के जलमार्ग हल्दिया से जोड़ने की कवायद करने में लगी है। मगर सवाल उठता है कि इससे पहले जो भी बयान संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों ने दिए हैं क्या वे गलत हैं या गंगा सफाई का काम समय से पूर्व कर लिया गया। या फिर यह सारा स्टंट चुनावी है और मालवाहक जहाज उधार के पानी पर तैर रहा है?
इस सबसे अलग गंगा सफाई का काम पिछले 30 वर्षों से चला आ रहा हैए लेकिन अभी तक कोई सुखद परिणाम या सफलता हासिल नहीं हुई है।

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भोजपुरी के नाम पर अश्लीलता जिम्मेदार कौन?

भोजपुरी गीत-संगीत के नाम पर परोसी जा रही अश्लीलता से जो लोग चिंतित हैं उनमें से एक नाम प्रेम शुक्ल का है। प्रेम शुक्ल पूर्व में पत्रकार रह चुके हैं और वर्तमान में भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं। वे अब तक कई विश्व भोजपुरी सम्मेलन का भी आयोजन करवा चुके हैं। उनका कहना है कि भोजपुरी फिल्मों, गानों, आर्केस्ट्रा, म्यूजिक अलबम, आडियो वीडियो के जरिए एक ऐसा माहौल बना दिया गया है कि भोजपुरी एक ऐसी भाषा है जिसमें खूब अश्लीलता है। जो फूहड़ गानों की ही भाषा है। जबकि सच्चाई इसके विपरीत है। भोजपुरी भाषा की अपनी अलग एक सुंदर सी पहचान है। इसका एक समृद्ध साहित्य और इतिहास है। भिखारी ठाकुर जैसे महान व्यक्तित्व की भाषा भोजपूरी अश्लीलता की ही वजह से बहुत बदनाम भी हो गई है। यह भी एक कड़वी सच्चाई है।
प्रेम शुक्ल की बात सही है। यहां पर सवाल यह भी उठता है कि हम इन गानों को इतना ज्यादा क्यों बढ़ावा देते हैं, इनके कैसेट या वीडियो खरीदते क्यों हैं, किसी प्रोग्राम में अगर फूहड़ गाने पेश होने लगें तो हम वहां से उठ क्यों नहीं जाते? जिन दुकानों पर इस प्रकार के फूहड़ गानों के आडियो वीडियो मिलते हैंए हम उनका बहिष्कार क्यो नहीं करते?

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लापरवाही है या चुनावी हथकंडा ?

लापरवाही का सियासी रंग
आलोक वर्मा पूर्व सी बी आई प्रमुख का नौकरी स्थगन, राफेल में खेल, भागैडो को शय, अम्बानी और अडानी का चक्कर और अमृतसर में ट्रेन दुर्घटना ये कुछ ऐसे वर्तमान मुद्दे है जिसमे मोदी जी और उनकी सरकार घिरती नजर आ रही। सरकार के कद्दावार नेता ऐसे मुद्दों पर बोलने से बचते दिखाई दे रहे। आखिर चुप्पी से कैसे भला होगा पार्टी का ? सबरीवाला मन्दिर का विवाद अब नेशनल विवाद बन गया ऊपर से त्योहारों में जनता की सुरक्षा का भी ध्यान नही रखा जा सका।
दशहरे का दिन उत्सव और मेले का दिन लोगों की भीड़ और भीड़ में जलता रावण। यह वर्णित दृश्य हर उस गली चैराहे कस्बे शहर और राज्य की है। जहा लोग आज भी अधर्म के प्रतिक रावण के पुतले का दहन करते है। भयंकर शोरगुल आतिशबाजी और हूटिंग की आवाजो में अन्य सभी आवाजे दब जाती है। किन्तु चीत्कार हाहाकार प्रलाप और भय की जो आवाज आज दशहरे के दिन गूंजी वो आवाज पंजाब के अमृतसर के लोगों को हर दशहरे पर याद आती रहेगी। बहुत ही दुखद घटना जिसमे रावण दहन का दृश्य देखने के चक्कर में लापरवाह जनता रेल की पटरियों तक आ खड़ी हुई और फिर एक तेज रफ्तार ट्रेन की आवाज दब गयी उस तेज हूटिंग स्वर में जो उस उल्लास से निकली और फिर चीत्कार में बदल गयी या लील गई 300 जिंदगियां वो जिंदगियां जिसे नेता वोटर लोग जनता और मीडिया दर्शक कह रही थी। कौन थे ये मारने वाले ? क्या गलती इन्ही दर्शकों की एकतरफा थी ? आइये विश्लेषण करते है नम आंखो से। और श्रद्धांजलि उन तमाम निर्दोष मृतक आत्माओं को जो प्रशाशनिक लापरवाही के भेट चढ़ गये। कितनी सस्ती है आम इंसानों की जिन्दगी ये आज अमृतसर हादसे से पता चल गया शर्म आती है। दो कौड़ी के निर्लज नेताओं पर जो अपनी सुरक्षा के लिए प्रोटोकॉल लेकर बाहर निकलते है, उसी जनता के बीच जिसने उन्हें वोट देकर सत्ता में बिठाया है।

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महिलाओं के लिए ये कैसी लड़ाई जिसे महिलाओं का ही समर्थन नहीं

मनुष्य की आस्था ही वो शक्ति होती है जो उसे विषम से विषम परिस्थितियों से लड़कर विजयश्री हासिल करने की शक्ति देती है। जब उस आस्था पर ही प्रहार करने के प्रयास किए जाते हैं, तो प्रयास्कर्ता स्वयं आग से खेल रहा होता है। क्योंकि वह यह भूल जाता है कि जिस आस्था पर वो प्रहार कर रहा है, वो शक्ति बनकर उसे ही घायल करने वाली है।
पहले शनि शिंगणापुर, अब सबरीमाला। बराबरी और संविधान में प्राप्त समानता के अधिकार के नाम पर आखिर कब तक भारत की आत्मा, उसके मर्म, उसकी आस्था पर प्रहार किया जाएगा?
आज सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठ रहा है कि संविधान के दायरे में बंधे हमारे माननीय न्यायालय क्या अपने फैसलों से भारत की आत्मा के साथ न्याय कर पाते हैं। क्या संविधान और लोकतंत्र का उपयोग आज केवल एक दूसरे की रक्षा के लिए ही हो रहा है। कहीं इनकी रक्षा की आड़ में भारत की संस्कृति के साथ अन्याय तो नहीं हो रहा?

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केवल पुरुषों को दोष देने से काम नहीं चलेगा

पुरानी यादें हमेशा हसीन और खूबसूरत नहीं होती। मी टू कैम्पेन के जरिए आज जब देश में कुछ महिलाएं अपनी जिंदगी के पुराने अनुभव साझा कर रही हैं तो यह पल निश्चित ही कुछ पुरुषों के लिए उनकी नींदें उड़ाने वाले साबित हो रहे होंगे और कुछ अपनी सांसें थाम कर बैठे होंगे। इतिहास वर्तमान पर कैसे हावी हो जाता है मी टू से बेहतर उदाहरण शायद इसका कोई और नहीं हो सकता।
दरअसल इसकी शुरुआत 2006 में तराना बुरके नाम की एक 45 वर्षीय अफ्रीकन- अमेरिकन सामाजिक कार्यकर्ता ने की थी जब एक 13 साल की लड़की ने उन्हें बातचीत के दौरान बताया कि कैसे उसकी मां के एक मित्र ने उसका यौन शोषण किया। तब तराना बुरके यह समझ नहीं पा रही थीं कि वे इस बच्ची से क्या बोलें। लेकिन वो उस पल को नहीं भुला पाईं, जब वे कहना चाह रही थीं, ‘मी टू’, यानी ‘मैं भी’, लेकिन हिम्मत नहीं कर पाईं।
शायद इसीलिए उन्होंने इसी नाम से एक आंदोलन की शुरुआत की जिसके लिए वे 2017 में ‘टाइम परसन आफ द ईयर’ सम्मान से सम्मानित भी की गईं।
हालांकि मी टू की शुरुआत 12 साल पहले हुई थी लेकिन इसने सुर्खियाँ बटोरी 2017 में जब 80 से अधिक महिलाओं ने हाॅलीवुड प्रोड्यूसर हार्वे वाइंस्टीन पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया जिसके परिणामस्वरूप 25 मई 2018 को वे गिरफ्तार कर लिए गए। और अब भारत में मी टू की शुरुआत करने का श्रेय पूर्व अभिनेत्री तनुश्री दत्ता को जाता है जिन्होंने 10 साल पुरानी एक घटना के लिए नाना पाटेकर पर यौन प्रताड़ना के आरोप लगाकर उन्हें कठघड़े में खड़ा कर दिया। इसके बाद तो ‘मी टू’ के तहत रोज नए नाम सामने आने लगे। पूर्व पत्रकार और वर्तमान केंद्रीय मंत्री एम जे अकबर, अभिनेता आलोक नाथ, रजत कपूर, गायक कैलाश खेर, फिल्म प्रोड्यूसर विकास बहल, लेखक चेतन भगत, गुरसिमरन खंभा, फेहरिस्त काफी लम्बी है।
मी टू सभ्य समाज की उस पोल को खोल रहा है जहाँ एक सफल महिला, एक सफल और ताकतवर पुरुष पर आरोप लगा कर अपनी सफलता अथवा असफलता का श्रेय मी टू को दे रही है। यानी अगर वो आज सफल है तो इस ‘सफलता’ के लिए उसे ‘बहुत समझौते’ करने पड़े। और अगर वो आज असफल है, तो इसलिए क्योंकि उसने अपने संघर्ष के दिनों में ‘किसी प्रकार के समझौते’ करने से मना कर दिया था।

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रेवाड़ी भी दहला-रेप पर सख्त कानून की दरकार

भारत के संस्कृति में महिलाओं को जहाँ पूज्य माना जाता है वही लड़कियों को देवियों का स्थान प्राप्त है। हम प्रतिवर्ष दुर्गा पूजा करते है ,यह हमारे धर्म में ही नही अपितु हमारी संस्कृति से भी जुड़ा है। विकृत मानसिकता धार्मिक उन्माद और असामान्य जनजीवन ने आज के इंसान को अभिशप्त कर दिया है। इंसानी खाल में दरिंदे घूम रहे। आये दिन कही ना कही रेप और सेक्सुअल दुर्व्यवहार जैसी घटनायें मानव जीवन को हिला कर रख दे रही है।
अभी इसी हफ्ते हरियाणा के रेवाड़ी में राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित सीबीएसई टॉपर एक बेटी के साथ गैंगरेप रेप हो गया है। दरीदंगी का आलम ये है कि, लिखते हुए भी और इस खबर को साझा करते हुए भी ऐसा लग रहा है जैसे आत्मा द्रवित हो चली हो और दिमाग में भारी बोझ महसूस हो रहा है।
प्रतिदिन कही ना कही किसी मॉ बेटी बहन बहु के साथ ऐसी अमानवीय घटनाए होती रहती है जो ना सिर्फ निंदनीय है बल्कि घृणित भी है। अब इन घटनाओं मे आरोपियों के शिनाख्त बाद उन्हे चैराहे पर जनता के सामने दंडित करने का समय आ गया है। कोई सख्त कानून समय रहते नही आया तो, ऐसे दरिंदे खुले आम जनमानस की नीदें उड़ाते रहेंगे, उनकी आत्मा को कुचलते रहेंगे।
रेवाड़ी कांड मे कल ही आरोपी पहचान लिए गए हैं, कानून अपना काम कर रहा है लेकिन क्या होगा ? रेप के आरोप में फांसी आखरी बार 15 साल पहले हुई थी, आरोपी था धनन्जय चटर्जी । तब से अब तक क्या रेप के वारदात नहीं हुए ? या रेप की घटनाओं मे कमी आयी ? निर्भया तक से रेनु और अन्य कितनी बेटियो को मसलने वाले दरिंदे जिंदा हैं।रेवाड़ी मे एक और आत्मा की हत्या कर दी गई और इस जघन्य अपराध के दोषी सिर्फ वो दरिंदे ही नहीं मेरे हिसाब से इस देश की जनता और हमारा ढूलमूल न्याय व्यवस्था भी है, जहां रेप के गुनाह पर शायद ही तत्काल किसी भी आरोपी को सजा हुआ हो। आज तक शायद ही किसी बहन को न्याय मिल सका हो। रेप के आरोपी के शिनाख्त बाद भी पहले खूब राजनीति होती है, उस आरोपी के जाति धर्म मजहब को देखा जाता है ,उसे बचाने के लिए हमारे ही देश समाज और बीच के राजनेता आगे आते है। यदि आरोपी पैसा वाला हुआ तो पुलिस भी सहयोग करती है। कुछ दिन मामला गर्म होता है फिर आरोपी को लचीले न्याय प्रणाली से राहत मिल जाती है।
सख्त कानून रेप के 15 दिन के भीतर बीच चैराहे पर प्रशासन आरोपियों को टॉग दें तब शायद ऐसी वारदात करने वालों के मन में दहशत पैदा हो या वो ऐसा जुर्म करने से घबराये। ये कानून ही काफी है दरिंदों को सबक देने के लिए। जिनको लगता है हम आजाद हैं तो उनको सच दिखाने के लिए ये घटना काफी है कि हम कानून के गुलाम हैं जहां रेप के आरोपी का बाल भी बांका नहीं होता, इसकी सजा आजन्म पीड़िता को ही भुगतना है। उस पिड़ीता को समाज से भी पिड़ा ही मिलती है। बहुत से लोग कहेंगे कि पीएम ने कुछ नहीं बोला, सीएम ने भी नहीं बोला तो अच्छा ही है चुप हैं इनके बोलने से भी कुछ बदलने वाला नहीं है। भयानक दुख और त्रासदी के दौर में है भारत। पतन की राह पर अग्रसर है भारत की तानाशाही राजनीति। वो बेटी क्या सोच रही होगी इस वक्त? कल्पना करने तक की भी हिम्मत नहीं हो रही है ना! क्या चल रहा होगा दिमाग में उसके ? और जब ये ही कानून कभी सवाल दागेगा, कभी उनको जमानत देगा सबूत न मिले तो बरी भी कर देगा तब क्या सोचेगी वो बेटी? इस सवाल का जवाब है किसी के पास? नहीं है इसलिए सब चुप हैं सब भारत में कानून की मूर्छा और इंसानियत की मौत का शोक मना रहे हैं।

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आश्रय स्थल में ही आसरा नहीं तो फिर आसरा कहाँ साहेब

ये कैसी तरक्की है यह कैसा विकास है
जहाँ इंसानियत हो रही हर घड़ी शर्मसार है,?
ये कैसा दौर है ये कैसा शहर है
जहाँ बेटियों पर भी बुरी नजर है?
ये कौन सी सभ्यता है ये कौन सी संस्कृति है कि जहाँ एक पुरूष का मानव शरीर में जन्म लेना मात्र ही मानव होने की पहचान शेष है?
और एक महिला के लिए स्त्री शरीर के साथ जन्म लेने मात्र ही उसका दोष है?
जिसकी सजा कभी उसने  आठ माह की आयु में, कभी तीन साल की उम्र में झेली है तो कभी आठ साल की उम्र में माँ तक बनके और कभी अपनी जान तक गंवा कर चुकाई है?
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि आज यौन शोषण केवल बच्चियों का ही हो रहा हो।
” टिस,” यानी टाटा इंस्टीट्यूट आँफ सोशल सांइसेज की रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि बिहार के लगभग हर शेल्टर होम में बच्चों का यौन उत्पीड़न हो रहा है। इस रिपोर्ट के अनुसार मोतिहारी भागलपुर मुँगेर और गया के लड़कों के आश्रय स्थल में भी बच्चों को तरह तरह के यौन शोषण से गुजरना पड़ता था। खास बात यह है कि टिस ने यह रिपोर्ट इस साल अप्रैल में ही समाज कल्याण विभाग को सौंप दी थी लेकिन मामला तीन महीने बाद खुला।

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देश देख रहा है….

आज राजनीति केवल राज करने अथवा सत्ता हासिल करने मात्र की नीति बन कर रह गई है उसका राज्य या फिर उसके नागरिकों के उत्थान से कोई लेना देना नहीं है। यही कारण है कि आज राजनीति का एकमात्र उद्देश्य अपनी सत्ता और वोट बैंक की सुरक्षा सुनिश्चित करना रह गया है न कि राज्य और उसके नागरिकों की सुरक्षा।
कम से कम असम में एनआरसी ड्राफ्ट जारी होने के बाद कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दलों की प्रतिक्रिया तो इसी बात को सिद्ध कर रही है। चाहे तृणमूल कांग्रेस हो या सपा, जद-एस, तेलुगु देसम या फिर आम आदमी पार्टी।
“विनाश काले विपरीत बुद्धि:” शायद इसी कारण यह सभी विपक्षी दल इस बात को भी नहीं समझ पा रहे कि देश की सुरक्षा से जुड़े ऐसे गंभीर मुद्दे पर इस प्रकार अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकना भविष्य में उन्हें ही भारी पड़ने वाला है। क्योंकि वे यह नहीं समझ पा रहे कि इस प्रकार की बयानबाजी करके ये देश को केवल यह दर्शा रहे हैं कि अपने स्वार्थों को हासिल करने के लिए ये लोग देश की सुरक्षा को भी ताक में रख सकते हैं।

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दिशाहीन होता युवा

आज का युवा साधनों से संपन्न होने के बावजूद उन्नति के मार्ग पर जाने की बजाय अवन्नति की ओर जा रहा है इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि वह दिशाहीन होकर दौड़ रहा है। आप एक अच्छे निशानेबाज हो किन्तु आपके निशाने का कोई लक्ष्य नहीं है तो आपका निशाना लगाना अर्थहीन हो जायेगा उसी तरह आप जी जान से मेहनत करते हैं, स्कूल, कॉलेज इत्यादि में अच्छे अंक भी प्राप्त कर लेते हैं किन्तु इन सब के बावजूद आपको हाथ लगती है तो सिर्फ निराशा…… क्योंकि कभी आपने यह तो सोचा ही नहीं कि जो आप मेहनत कर रहे हैं वह क्यो कर रहे है? इसका परिणाम क्या मिलने की संभावना है? और इस कार्य को बेहतर कैसे बनाया जा सकता है? ऐसा आप सोचते नहीं है, अगर आपने यह सोच लिया है तो निश्चित ही आपने एक दिशा को चुन लिया है और जब इंसान एक लक्ष्य निर्धारित कर लेता है तो दुनिया की कोई भी ताकत उसे विजयश्री प्राप्त करने से नहीं रोक सकती।

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विवादित बयान इत्तेफाक या साज़िश

वैसे तो शशि थरूर और विवादों का नाता कोई नया नहीं है। अपने आचरण और बयानों से वे विवादों को लगातार आमन्त्रित करते आएँ हैं। चाहे जुलाई 2009 में भारत पाक के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और युसुफ रजा गिलानी के बीच हुई बातचीत के बाद जारी संयुक्त वक्तव्य को बस कागज का एक टुकड़ा जिसका कोई खास महत्व नहीं है, कहने वाला बयान हो। चाहे इसी साल सितंबर में उनके अपने अधिकारिक निवास की जगह एक फाइव स्टार होटल जिसका खर्च करीब 40000 रुपये प्रतिदिन होए में रहने का विवाद हो। चाहे जब दुनिया मंदी के दौर से गुजर रही हो और सरकारी खर्च में कटौती करने के उद्देश्य से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की पार्टी नेताओं से फ्लाइट की इकोनोमी कलास में सफर करने की अपील पर व्यंग्य करते हुए इसे कैटल कलास यानी भेड़ बकरियों की क्लास कहना हो। चाहे गाँधी जयंती की छुट्टी का विरोध करना हो। चाहे प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ करना हो। चाहे संसद न चलने देने के कांग्रेस के रुख़ से असहमति रखना हो। चाहे पत्नी सुनंदा पुष्कर की मौत हो। या फिर पाकिस्तानी पत्रकार मेहर तरार के साथ अफेयर की खबरें हों।

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