चुनाव आयोग तथा विभिन्न सरकारी एवं गैरसरकारी संगठनों के लाख प्रयास के बावजूद भी मतदान का प्रतिशत सत्तर की सीमा को नहीं छू पा रहा है। क्या देश के तीस प्रतिशत से भी अधिक मतदाता लोकतान्त्रिक व्यवस्था में अपनी सहभागिता के प्रति अभी तक जागरूक नहीं हो पाये हैं या फिर इसका कारण कुछ और है? इस तीस प्रतिशत में वे मतदाता शामिल नहीं हैं जिनका नाम चुनाव कर्मियों की कृपा से मतदाता सूची में शामिल नहीं हो पाया है या फिर हटा दिया गया है। यदि इन सबको भी जोड़ लिया जाये तो पूरे देश में चालीस प्रतिशत से भी अधिक मतदाता किसी न किसी कारणवश मतदान से वंचित रहते हैं। सात चरणों में हो रहे लोकसभा चुनाव के अब तक चार चरण समाप्त हो चुके हैं। पांचवें चरण का भी चुनाव शीघ्र ही सम्पन्न हो जाएगा। बीते चार चरणों के मतदान का प्रतिशत 62 से 68 के बीच ही रहा है। जो कि 2014 के सभी नौ चरणों के औसत मतदान प्रतिशत 66.38 के आसपास ही है।
इस बार लगभग 4.5 करोड़ नये युवा मतदाता मतदान में भाग ले रहे हैं। इन नये मतदाताओं में चुनाव के प्रति पूरा उत्साह दिखाई दे रहा है। जिससे इनके शत-प्रतिशत मतदान करने की पूर्ण सम्भावना है। इसका अर्थ यह है कि मतदान न करने वालों में अधिकांशतया पुराने मतदाता ही हैं। मतदान के प्रति उदासीन रहने वाले कई तरह के लोग होते हैं। पहले वे लोग जो ‘कोउ नृप होउ हमहि का हानी’ की सोच से ग्रसित रहते हैं। उन्हें यह लगता है कि हम कल जो कर थे, आज भी वही कर रहे हैं और आगे भी वही करेंगे। चुनाव में किसी के भी जीतने हारने से हमारी जीवन शैली में कोई भी अन्तर आने वाला नहीं है। हम पहले भी अपनी समस्याओं से जूझ रह थे, आज भी जूझ रहे हैं और आगे भी जूझते रहेंगे। दूसरे वे लोग हैं जिनका लोकतान्त्रिक व्यवस्था के प्रति अब तक का अनुभव बहुत अच्छा नहीं रहा है। चुनाव लड़ने वाले नेताओं के वादों और इरादों के बीच के अन्तर को ये लोग अच्छी तरह समझ चुके हैं। इन्हें लगता है कि राजनीति करने वाले सिर्फ और सिर्फ अपना हित साधने में लगे हुए हैं। जनता की मूलभूत समस्याओं से उन्हें कुछ भी लेना देना नहीं है। तीसरे वे लोग हैं जो एक से डेढ़ किलोमीटर दूर स्थित मतदान केन्द्र तक पैदल जाने में संकोच तथा आलस्य के भाव से ग्रसित होते हैं। चैथे वे लोग भी मतदान नहीं कर पाते हैं जो अपने घर से दूर किसी अन्य शहर में नौकरी कर रहे हैं। पांचवें लोगों की श्रेणी लम्बी दूरी के ट्रक व बस चालकों की है। जो मतदान के दिन चाहकर भी अपने घर वापस नहीं आ पाते हैं। इसके अलावा पूरे देश में ऐसे मतदाताओं की संख्या भी लाखों में है जिनका नाम मतदाता सूची में शामिल तो है। परन्तु उनके नाम के आगे डेलीटेड लिखा हुआ है। ऐसे लोग मतदान करने के लिए जब मतदान केन्द्र पर पहुँचते हैं तो उन्हें वापस कर दिया जाता है। जिससे उनके अंदर चुनाव के प्रति नकारात्मक भाव उत्पन्न होना स्वाभाविक है। स्थिति तब और बिगड़ जाती है जब चुनाव अधिकारी और कर्मचारी उनका वोट कटने का कोई ठोस कारण नहीं बता पाते हैं। चुनाव आयोग चाहे तो ऐसे मतदातों का मतदान करवा सकता है। क्योंकि जब उनके पास चुनाव आयोग द्वारा जारी पहचान-पत्र है, साथ ही मतदाता सूची में उनका नाम भी है। तब फिर उन्हें मतदान से वंचित रखने का औचित्य क्या रह जाता है? अगर देखा जाये तो मतदाता पहचान-पत्र और मतदाता सूची में नाम दर्ज करने की कवायद के पीछे का प्रमुख उद्देश्य फर्जी मतदान को रोकना मात्र ही है। अब यदि कोई ऐसा व्यक्ति जिसका नाम मतदाता सूची से किसी कारणवश कट गया है और वह अपना पहचान पत्र या आधार कार्ड लेकर मतदान केन्द्र पहुंचता है तो यह उसके जीवित तथा भारत का नागरिक होने का पूर्ण प्रमाण है। तब फिर भला उसे मतदान से वंचित क्यों रखा जाना चाहिए? इसके बाद नीली स्याही का निशान उसे दूसरे मतदान केन्द्र पर वोट डालने के लिए स्वतः वंचित कर देता है। इसके बावजूद भी यदि ऐसे लोगों को चुनाव से वंचित रखा जाता है तो इससे यही सिद्ध होता है कि चुनाव आयोग को न तो स्वयं के द्वारा जारी किए गए पहचान-पत्र पर भरोसा है, न आधार-कार्ड पर विश्वास है और न ही उसे नीली स्याही पर ही यकीन है। तब फिर इन सबके औचित्य पर प्रश्न-चिन्ह लगना स्वाभाविक है।
कारण कुछ भी हो परन्तु मतदान प्रतिशत का कम होना स्वस्थ्य लोकतन्त्र के लिए किसी भी दृष्टि से ठीक नहीं है। वर्ष 2014 के सभी नौ चरणों का मतदान प्रतिशत 66.38 रहा था। जिसे आम चुनाव के इतिहास में सबसे उच्चतम बतलाया गया है। परन्तु सत्ता प्राप्त करने वाले दल भाजपा को मात्र 31 प्रतिशत ही मत प्राप्त हुए थे। यदि उसके अन्य सहयोगी दलों के मत प्रतिशत को भी जोड़ दें तो राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबंधन को मिले कुल मतों का प्रतिशत 38.5 था। लोकतान्त्रिक व्यवस्था का इससे बड़ा विद्रुप और क्या होगा कि जिस दल ने पूरे पाँच वर्ष तक देश पर शासन किया, उसके समर्थन में देश के चालीस प्रतिशत से भी कम नागरिक थे। जबकि साठ प्रतिशत से भी अधिक लोग उसके विरोध में रहे। वहीं विपक्ष की भूमिका निभाने वाली कांग्रेस को भी मात्र 19.3 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे। सीटों की गणना के आधार पर आधिकारिक विपक्षी दल बनने के लिए कम से कम 54 सीटों की अवश्यकता होती है। जबकि वर्ष 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस को मात्र 44 सीटें ही प्राप्त हुई थीं। कहने का तात्पर्य यह कि सीटों के आधार पर पूर्ण बहुमत प्राप्त करने वाला राजग मतों के आधार पर अल्पमत में रहकर ही सरकार चलाता रहा तथा वांछित योग्यता के बिना ही कांग्रेस विपक्ष की भूमिका निभाती रही। इसके लिए बहुदलीय प्रणाली तथा सर्वाधिक मत प्राप्त करके जीत हासिल करने की प्रक्रिया को भी काफी हद तक दोषी माना जा सकता है। ऐसे में मतदान का प्रतिशत भले ही सौ न हो परन्तु नब्बे से अधिक होना अति आवश्यक है। तभी लोकतन्त्र की सार्थकता सिद्ध होगी। अतः मतदान के इस उच्चतम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हर स्तर पर आवश्यक तथा प्रभावी प्रयास होने ही चाहिए।