Sunday, November 24, 2024
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धर्म को पहना दिया गया लोकतंत्र का जामा !

जहां तक मैं देखती हूं और महसूस करती हूं कि दुनिया भर में धार्मिक कट्टरवाद हावी है और आज धर्म को ही लोकतंत्र का जामा पहना दिया गया है और लोग भी उसी की रोशनी में अंधे हो रहे हैं जबकि धर्म और राजनीति दोनों अलग – अलग बातें हैं। किसी भी परंपरा को निभाना धर्म नहीं है (टोपी, जनेऊ, चोटी, दाढ़ी) मानवता और व्यक्ति का मानसिक और चारित्रिक विकास ही धर्म है। लगभग सभी धर्म एक ईश्वरी शक्ति को मानते हैं, जिसने इस सृष्टि की रचना की है।
संत कबीर दास पाखंड का मजाक उड़ाते हुये कहते हैं, ‘‘चढ़ मुल्ला जा बांग दे क्या बहरा भयो खुदाय, ….बार बार के मूढ़ते भेड़ ना बैकुंठ जाये।’’ कबीर की परिभाषा में अजान पुकारना और सिर मुड़ाना धर्म नहीं है और ‘गीता’ में तो ‘कर्तव्य’ को ही धर्म माना गया है। जब ऐसे उदाहरण हमारे सामने हैं तब भी हम पाखंड को महत्व देते हैं। लोकतंत्र धर्म से जुदा एक अलग व्यवस्था है जो जनता के द्वारा जनता के लिए निर्धारित की जाती है।
जनता द्वारा चुना गया प्रतिनिधि देश की व्यवस्था संभालता है लेकिन आज के बदलते हुए परिदृश्य में राजनीति को और भी ज्यादा मुश्किल बना दिया गया है जिसमें वैचारिकता नगण्य होकर ओछेपन की सीमाएं लांघ रहीं है।
सत्ता में बने रहने की हवस अब भाषा की मर्यादा भी खत्म कर रही है। राजनीति में वैचारिक मतभेद हमेशा से रहे लेकिन एक दूसरे के सम्मान का ध्यान रखा जाता था साथ ही भाषा की मर्यादा का मान भी रखा जाता था। वैचारिक मतभेदों की बावजूद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमारे देश की अखंडता दिखाई देती थी। आज के इस बदले हुए माहौल में ऐसे बहुत से मुद्दे हैं जो लोगों को दिखाई भी देते हैं और समझ में भी आते हैं लेकिन मीडिया दिखाती नहीं या फिर लोग नजरअंदाज कर देते हैं।
आज इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले छात्रों के लिए चुनौतियाँ बढ़ते जा रही है। नौकरियाँ हैं नहीं या फिर कंपनियों में से कर्मचारियों की छंटनी की जा रही है। यदि आईआईटी और आईआईएम के बच्चों को नौकरी के लिये दिक्कत हो रही है तो बाकी बच्चों के बारे में क्या कहा जाये? बच्चे विदेश के लिए पलायन कर रहे हैं और सरकारी नौकरी के लिए युवा वर्ग सड़कों पर उतरा हुआ है मगर इसकी कहीं कोई खबर नहीं दिखाई जा रही?
जहाँ हम विज्ञान और नई तकनीक पर विचार विमर्श और बात करते हैं तो अब हम उससे ज्यादा धर्म की लाठी भांजते हैं। बदली हुए राजनीति का स्वरूप ऐसा हो गया है कि धर्म समाज को बांट रहा है और उसे बंटवारे में देश के साथ – साथ आम आदमी भी बंट रहा है। बड़ी बात यह है की झगड़ा धर्म से ज्यादा कट्टरवाद का और परंपराओं का है। धर्म की आड़ में मजहबी जामा पहन कर सत्ताधारी सिर्फ अपना वोट बैंक मजबूत कर रहे हैं और आज धर्म एक ऐसा विषय बन गया जिसके बिना आप राजनीति और चुनाव की कल्पना नहीं कर पा रहे।
धर्म का अंधापन इतना ज्यादा बढ़ गया है कि इस गणतंत्र दिवस पर लोगों ने तिरंगे से ज्यादा भगवा फहराया है। मुझे समझने में वक्त लगा कि क्या लोगों को अपने आजाद होने का दुख है या अपने संविधान को मानने से दिक्कत है? राम आये तो दिवाली मनाई गई तो गणतंत्र दिवस पर इतना सूनापन क्यों रहा? राम को राम ही रहने दे राजनीति का मोहरा ना बनाये।
चंडीगढ़ के मेयर के चुनाव में सुप्रीम कोर्ट को भी लोकतंत्र की हत्या नजर आ रही है तो जो व्यक्ति हत्या और दुष्कर्म जैसा संगीन आरोपों में जेल में बंद है तो चुनाव के पहले बार-बार पैरोल पर बाहर कैसे और क्यों बाहर आ जाता है? क्या यह लोकतंत्र की हत्या नहीं? लोकतंत्र की हत्या सत्ता को बनाए रखने या चुनाव में धांधली तक ही नहीं है वरन् लोगों को उनके अधिकारों से भी वंचित किया जाना लोकतंत्र की हत्या है। यह एक सवाल है कि लोग धर्म और राजनीति के प्रति कब नजरिया बदलेंगे और कब इस अंधता से बाहर आयेंगे?

प्रियंका वरमा माहेश्वरी
गुजरात।