पतझड़ फागुन सावन गुज़रा
ऋतुओं से भरा मौसम गुजरा
जीवन का मतलब समझा कर
एक वर्ष पुराना बन गुजरा
अज्ञात दिशा की भूमि पर
आरोहण करने काल नया
उम्मीद का नन्दनवन लेकर
आया फिर से एक साल नया
झिलमिल आशा की जुगनू से
संशय का कोहरा झांक रहा
अपनों की बस्ती में सहमा
मन अर्थ समय के आंक रहा
सागर हीं सागर फैला है
नदिया सिमटी हीं जाती है
रिश्तों के भीड़ भरे तट पर
नीरवता क्रन्दन गाती है
लहर भँवर संग बीन रहा मिल
धुप छाँव का जाल नया
आया फिर से एक साल नया
सुख दुःख की गहन सहेली है
यह जीवन अकथ पहेली है
इच्छाओं की पगडण्डी पर
कोलाहल बीच अकेली है
ऋतुपति कभी पतझड़ छाता है
धुन लय में चलकर आता है
जो जिसके हिस्से का नभ है
बढ़कर खुद उस तक जाता है
रोते हँसते रैन दिवस की
चाल पे तिरकर ताल नया
आया फिर से एक साल नया
दुनिया आकर्षक जंगल है
साँसों का उत्सव मंगल है
जो बो आए पंछी प्यारे
पक जाएँगे एक दिन सारे
प्रारब्धों के तब हर दाने का
प्रस्तुत होगा थाल नया
तारों की मर्जी होगी तो
हम तुम भी फिर से मिल लेंगे
कुछ कह लेंगे कुछ सुन लेंगे
तब एक दूजे का हाल नया
आया फिर से एक साल नया
कंचन पाठक
कवियित्री, लेखिका