Tuesday, November 26, 2024
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आधुनिकता के दौर में कुम्हारों के व्यवसाय कमर तोड़ते दिख रहे

शिवली/कानपुर देहात, जितेन्द्र कुमार। सौभाग्य व समृद्धि के प्रतीक लंबोदर भगवान गणेश व माँ लक्ष्मी के पूजन का पर्व अब कोई उम्मीद लेकर नहीं आता। आधुनिकता के इस दौर में मिट्टी के दीपक की परम्परा ने कुम्हारों के इस व्यवसाय ने कमर तोड़ती नजर दिख रही है। इसी कारण व्यवसाय ठप्प होता नजर आ रहा है। इस दौर में लोगों ने बड़ी बड़ी मूर्ति मां लक्ष्मी व गणेश की लेने के बजाय छोटी छोटी मूर्ति लेते है मंहगाई की मार ने कुम्हारों के इस व्यवसाय पर गहरी मार की है। ऐसा नहीं है कि यह चोट एक दो सालों से लगी हो यह एक दशक से बराबर लगी चली आ रही है। जहाँ कुम्हारों के सामने मुसीबत खड़ी हुई है। आम आदमी भी इस मंहगाई से बच नहीं पाया है वैसे महंगाई के अलावा आधुनिक तकनीक से बने सामान भी कुम्हारों के व्यवसाय के लिए मुसीबत साबित हो रहे है। आज के दौर में बिजली से बनी झालर लाइट व अन्य वस्तुओं का इस्तेमाल करने लगा एक दशक पहले लोगों को दीप मिट्टी के दीपक का इस्तेमाल करने में रुचि थी पर अब ऐसा नहीं है आधुनिक युग में कुम्हारों के मिटटी के बने बर्तन लेने के बजाय आदमी आधुनिक वस्तु लेने के लिए ज्यादा उतावला दिखता है। आधुनिक युग की मार ने कई कुम्हारों की त्योहार को फीका कर दिया है। सुरेश प्रजापति ने बताया कि कुम्हारो के व्यवसाय को चोट जरूर आधुनिक युग की वजह से लगी है। फिर भी पुरानी रीति रिवाज की वजह से लोगों को मिटटी की मूर्ति व बर्तन लेने पड़ते है। अब तो कुम्हारों के यहाँ के यहां एक दो दिनो तक बर्तन बनाने का काम चलता है पहले महीनों पहले तैयारियां करनी पड़ती थी अब कुछ दिनों में ही पूरा हो जाता है। अब बहुत कम बिक्री होती है। पहले कानपुर शहर भी माल को ले जाते थे अब ज्यादा बिक्री न होने से काम फीका होता जा रहा हैं। ऐसा कहना भी अभी सही नहीं है कि आगे समय में मिट्टी की मूर्तियों का चलन समाप्त हो जायेगा। सुरेश प्रजापति ने बताया कि अब मिट्टी केे बर्तनों की मांग कम हैै क्योकि लोग चीनी लाइटों एवं मोम बत्ती का ज्यादा इस्तेमाल करने लगा है। इस कारण मिट्टी के बर्तनों पर लोग ज्यादा गौर नहीं कर रहे है जिसके चलते पुरानी प्रथा समाप्त होते जा रही है और युवा वर्ग नजर अंदाज कर इसकी अहमयित को नहीं समझ पा रहे है।
युवा वर्ग क्यों नहीं दे रहा मिट्टी के बर्तनों की अहमियत ये सवाल हमारे संवाददाता ने नए वर्ग के युवाओं से बात की तो आशीष शुक्ल, चंदन तिवारी, अंकित मिश्र, अभिषेक शुक्ल, विपिन गुप्ता, सनी शुक्ल, दीपक ने बताया कि मिट्टी के बर्तन महंगे पड़ते है और एक बार इस्तेमाल करने के बाद फेंक दिए जाते है वही दूसरी ओर विदेशी लाईट कम दामों में बेहतर रोशनी देती है और अगले वर्ष भी काम आ जाती है। वही युवाओं ने माना कि शगुन के लिए कुछ मिट्टी के बर्तनों का लेना जरूरी माना जाता है क्योंकि बुजुर्गों के आदेश होते है। आज के नए युवा वर्ग के पास समय का अभाव और पैसा बचाना है। वो दिन दूर नहीं की लोग एक दिन मिट्टी के बर्तन इस्तेमाल करना ही बन्द कर देंगे।
बुजुर्गों से संवाददाता ने बात की तो रामपुरी, विपिन अवस्थी, सोनेशंकर आदि लोगों ने बताया कि नए वर्ग के बच्चे मिट्टी से दूर भागते है वह मिट्टी के बर्तनों के एहमियत को नहीं समझते है, उनको दिखावा में जीना पसन्द है। वह जो दौर था जिसमे किसी भी समारोह, पूजन के समय मिट्टी के बर्तन प्रयोग में लाये जाते थे। वही कुम्हार जो पुराने वर्ग के है वह इतने बुजुर्ग हो गए है कि अब मिट्टी के बर्तन बनाने में असमर्थ है। वही युवा वर्ग मिट्टी के बर्तनों को बनाना अपनी तौहीन समझते है यही कारण है कि पुरानी प्रथा समाप्त हो रही है।