Tuesday, November 26, 2024
Breaking News
Home » लेख/विचार » कोरोना वायरस क्या प्रधानमंत्री के सामने तालाबंदी ही एकमात्र रास्ता था संजय रोकड़े

कोरोना वायरस क्या प्रधानमंत्री के सामने तालाबंदी ही एकमात्र रास्ता था संजय रोकड़े

देश में कोरोना वायरस के संकट से बाहर निकलने के लिए जो तालाबंदी की गई और उसके बाद जिस तरह की दिक्कतें व परेशानियां सामने आई उसे देख कर हम जैसे तमाम भारतीयों के मन में एक सवाल उठने लगा कि- क्या इस वायरस पर विजयी पाने का एकमात्र हल तालाबंदी ही था। देश का अवाम इस समय कोरोना वायरस जैसे संकट से काफी जूझ रहा है। ऐसे समय में ये सवाल तकलीफ देह भी साबित हो सकता है लेकिन सवाल तो बनता है। और शायद इसीलिए पूछा भी जा रहा है।
हालाकि इसका जवाब बेहद सरल और आसान है – और वो है हां। हां तालाबंदी ही इस वायरस पर काबू पाने का एकमात्र विकल्प या रास्ता था।
पर तालाबंदी के कुछ दिनों बाद ही देश भर में जिस तरह से अफरा-तफरी मची, लोग दो वक्त की रोटी को महरूम हो गए उसी के चलत दिलों-दिमाग में यह सवाल खड़ा हुआ कि क्या अचानक से पूरी तरह देश भर में तालाबंदी किया जाना ही एकमात्र विकल्प था?
इस बात को लेकर मैं थोड़ा आगे बढूं इसके पहले आपको देश की भोगौलिक संरचना से अवगत करना चाहता हूं। भारत में कुल 28 राज्य और 9 केन्द्र शासित प्रदेश है। इनमें से जम्मू कश्मीर और लद्दाख अभी-अभी नए केन्द्र शासित प्रदेश बने है। इन सबको मिलाकर देश में कुल 736 जिले हैं। जितने भी जिलों में कलेक्टर है वो केन्द्र सरकार के प्रतिनिधि है। बहरहाल।
अब बात यहां ये आती है कि इन सबका इस समय जिक्र करने की आवश्कता क्या है। असल में कोई भी लोकतांत्रिक राष्ट्र अपने संघीय ढ़ाचें से जितना सरल और सहज रूप से चल सकता है उतना वह किसी एक व्यक्ति विशेष के निर्णय या फैसले से नही। बेशक। इस अवधारणा के चलते देश के वजीरे आजम ने तालाबंदी करने के पहले तमाम प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों और जिलों के कलेक्टरों से संपर्क कर अपने तालाबंदी के विचार को साझा किया होगा। हालाकि कई राज्यों में गैर भाजपाई सरकारों के चलते वे उन राज्यों के सीएम से बातचीत न कर पाए हो लेकिन जिन राज्यों में भाजपा की सरकारें थी वहां के मुख्यमंत्रियों से तो खुद या अपनी प्रशासनिक टीम के सहारे कोई संवाद स्थापित किया ही होगा, हमें विश्वास ही नही बल्कि पूर्ण भरोसा है कि, ऐसा जरूर हुआ होगा। गर ये संभव नही हो पाया होगा तो कम से कम जिलों के कलेक्टरों से तो कुछ न कुछ चर्चा जरूर हुई होगी। लेकिन यकीन मानिये ऐसा कुछ भी नही हुआ। किसी से भी कुछ भी बातचीत नही हुई।
बेशक ये पीएम की अपनी कोई मजबूरी रही होगी। किसी से कोई बात करने से ज्यादा प्राथमिकता उनने वायरस पर अंकुश लगाने की रणनीति को दी होगी। और होना भी यही चाहिए। लेकिन सवाल फिर खड़ा होता है कि क्या उनने तालाबंदी देश की यथास्थिति को जाने बगैर ही करवा दी। नही ऐसा भी नही होगा। उनका अपना एक बड़ा तंत्र होता है। उन्हें हर बात से अवगत कराने वाले अलग- अलग तरह के विषय विशेषज्ञ होते है। मेरे अनुमान से तो उनने उन सबसे सलाह मशविरा करके के ही कोई फैसला लिया गया होगा।
हां गर मान ले कि ये फैसला उनने अपने मंत्रिमंड़ल के तमाम नुमांइदों व विषय विशेषज्ञों से किए गए सलाह-मशविरे के बाद संतुष्ट होकर ही लिया होगा। हालाकि ऐसा था तो फिर तालाबंदी के पहले उनके जैहन में देश भर के प्रवासियों खासकर रोज कमाने- खाने वाले कामगारों का ख्याल क्यूं नही आया। चलो मान ले उनको इनका ख्याल आया फिर उनने अपनी मशनरी के सहारे स्थानीय प्रशासन और इकाईयों को कुछ दिनों पहले ही अग्रिम नोटिस भिजवाने की कोई पहल क्यूं नही की। ताकि मजदूर वक्त रहते अपनी सुविधानुसार घर-गांव पहुंच जाते और तालाबंदी के बाद मचने वाली अफरा-तफरी से बच सकते।
खैर। वक्त रहते अपनी मशनीरी के नुमांइदों के साथ संयोजन नही बन तो क्या, फिर भी उनको अपनी सरकार के उन सभी कदमों और योजनाओं के बारे में घोषणा नहीं कर देनी चाहिए थी जिसके तहत तालाबंदी के दौरान दिहाड़ी मजदूरों की रोजाना की जरूरतों को पूरा करने की दिशा में काम होता है।
बेशक यहां कोई भी ये तर्क दे सकता है कि अगर लोगों को उनके घरों तक जाने की इजाजत दी जाती तो तालाबंदी का मकसद ही खत्म हो जाता। क्योंकि ऐसा होने पर लोगों में जल्द से जल्द घर-गांव पहुंचने की होड़ मचती। हर कोई सबसे पहले अपने गांव पहुंचने को लालायित रहता। अपने घर जाने की जल्दीबाजी में वे भीड़ भरी बसों- ट्रेनों में सफर करते। लेकिन संपूर्ण तालबंदी के एलान के बाद हमने जो देखा वो क्या इससे भी बुरा नही था। लाखों-लाख गरीब अपने गांव के लिए वाहन मिलने की उम्मीद में पैदल ही चल पड़े। वाहन नही मिले तो पानी की टंकियों और दूध के वाहनों में बैठ कर दूरी तय करने लगे। जिनको ये भी नसीब न हुआ वे पैदल ही पैदल मंजिल की ओर बढ़ते रहे। अगर तालाबंदी के पहले सरकार इन प्रवासी मजदूरों के लिए शहर में ही कुछ रहने खाने की व्यवस्था कर देती तो शायद वे घर जाने को इतने लालायित और हैरान-परेशान नही होते। स्थिति भी इतनी गंभीर व खराब न होती।
सवाल फिर खड़ा होता है कि तालाबंदी के बाद इन मजदूरों व कामगारों में अपने गांव जाने की हडबडी में जो अफरा-तफरी की स्थिति बनी आखिर उसका जिम्मेदार कौन है। इस बात से कोई नकार नही सकता है कि सडक़ पर हजारों- लाखों बेघर मजदूरों की मौजूदगी से देश भर में एक असहज स्थिति पैदा हो गई। प्रशासन को भी इसे संभालने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। और इन स्थितियों को पैदा करने में अलग-अलग तरह की अफवाहों ने भी खासी भूमिका निभाई।
इसमें कोई दो राय नही है कि तालाबंदी का उदे्दश्य लोगों की जिंदगी बचना ही है। फिर भी सरकार को कम से कम इतना तो सोचना चाहिए था कि आखिर कितने मजदूर इस तालाबंदी को लेकर मानसिक रूप से तैयार होगें। आज देश में दिहाड़ी मजदूरों की भरमार है। ये ऐसे मजदूर है जो रोज कामते है और रोज चूल्हा जलाते है। इनकी आमदनी का साधन हर दिन की मजदूरी ही होती है।
एक सामाजिक संस्थान है। सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस)का अध्ययन बताता है कि आज भी बड़े शहरों में कमाने- खाने वाली आबादी में से 29 फीसदी दिहाड़ी मजदूरों की है। जबकि उपनगरीय इलाकों में इनकी आबादी 36 फीसदी है। गांवों में ये आंकड़ा 47 प्रतिशत है जिनमें ज्यादातर खेतिहर मजदूर है। दिल्ली की बात करें तो यहां की कमाने वाली आबादी में दिहाड़ी मजदूरों का आंकड़ा 27 फीसदी है। यकीन मानिये दिल्ली की दो करोड़ की आबादी में यह आंकड़ा कम नही होता है। बताते चले कि भारत में घर खर्च के बाद बचत करने की संभावना नगण्य हो जाती है। इस देश में ऐसे लोग आबादी का 15 फीसद है। जबकि 32 फीसदी भारतीय ठीक ठाक कमा कर घर का खर्च उठाने में तो समर्थ हैं लेकिन वे बचत करने में समर्थ नही।
जाने क्यूं मोदी सरकार ने तालाबंदी के पूर्व इतनी बड़ी बेबस आबादी और उनकी परेशानियों को नजर अंदाज कर दिया। क्यूं ये भी नही सोचा कि तालाबंदी के चलते इनको कोई तिहाड़ी मजदूरी भी नही मिलेगी और ऐसे में ज्यादातर मजदूरों की जेबें खाली हो जाएगी और वे भूखों मरने को मजबूर होगें। सबने देखा कि तालाबंदी के चलते मजदूरों के हाथ और जेबें खाली थी। ऐसे में ये मजदूर अपने घर-गांव नही जाते तो और क्या करते। कब तक शहरों में बेघर जिंदगी बसर कर भूखों मरते। वैसे भी दुख-तकलीफ के समय हर भारतीय, खासकर गरीब व मध्यमवर्गीय परिवार अपने घर-गांव को ही तवज्जों देता है। शायद इसीलिए देश भर से तमाम मजदूर अपने- अपने वतन, घर-गांव की चाह में जो जहां था जैसे था वहां से वैसे ही पैदल चल पड़ा। हालाकि उसकी बदहाली को देखते हुए तमाम राज्य सरकारों व केंद्र सरकार ने उसकी मदद की बात की लेकिन जमीनी स्तर पर उसके साथ क्या बरताव हुआ वह हम सबने अच्छे से देखा। एक तरफ जहां उसके सिर पर जिंदगी की पोटली का वजन था वहीं दूसरी तरफ सरकारों के आश्वासन और झुटे वादों का बोझ। हमने देखा कि तमाम वादों और आश्वासनों के बावजूद बड़ी संख्या में गरीब मजदूर अपने सिर पर पोटली धरे घर- गांव की उम्मीद में मंजिल की तरफ बढ़े जा रहा था। वह कहीं भी रूकना नही चाह रहा था। क्योंकि व्यवस्था और जिम्मेदारों ने उसे छलने के सिवाय कुछ और किया ही नही। इतनी भी उम्मीद नही बंधवाई की मुसीबत के क्षण हम सब उसके साथ है। घरों की ओर भागते- दौडते मजदूर के दिलों-दिमाग में तालाबंदी की अनिश्चितता को लेकर अलग तरह की ही एक शंका थी।
अब हम थोड़ा तालाबंदी के संदर्भ में जान लेते है। ये क्यूं लगाई गई और इसको लगाना कितना जरूरी था। तालाबंदी का सबसे बड़ा मकसद लोगों के बीच की दूरी को कम कर कोविड़-19 वायरस के एक-दूसरे के माध्यम से एक दूसरे में प्रवेश नही होने देना था। लेकिन प्रश्र तो ये है कि भारत के नागरिक सोशल डिस्टेंसिंग की गंभीरता के बारे में जानते कितना है। क्या सोशल डिस्टेंसिंग को लागू करने से पहले सरकार के दिमाग में यह भी नही आया कि इसकी बिना कोई शिक्षा दिए या पूर्व तैयारी किए कितना सफल होगा।
क्या वजीरे आजम को किसी अफसर ने साल 2011 की जनगणना के उन चिंताजनक आंकड़ों से भी अवगत नही कराया होगा जो हमारे घरों में रहने की भयावहता को उजागर करते है। अब मैं एक बार फिर आपको आंकड़ों की दुनिया में ले चलता हूं। साल 2011 की जनगणना के आंकड़े स्पष्ट बताते हैं कि भारत में 37 फीसदी से अधिक आबादी एक कमरे के मकान में रहने को मजबूर है जबकि 32 फीसदी भारतीय दो कमरों के घर में जिंदगी बसर करते है। हमारा असली सच यह भी नही है। हमारा सच तो यह है कि देश की एक बड़ी आबादी अब भी झुग्गी- झोपडिय़ों में ही जिंदगी तमाम कर रही है। इनमें औसतन 5-6 लोगों वाले मध्य और निम्न आय वर्ग के परिवार बसते है। ऐसे में सोशल डिस्टेंसिंग की बात कागजों में ही की जा सकती है। इसे तकनीकी रूप से व्यवहारिकता के धरातल पर उतारना संभव ही नहीं है।
साल 2011 की जनगणना के आंकड़े यह भी बताते है कि भारत में चार फीसदी लोग ऐसे भी हैं जो बेघर है। जिनके सिर पर कोई छत नही है। ऐसी स्थिति में जब लोगों से घरों के अंदर रहने को कहा जा रहा है, ऐसे में इन बेघरों के सामने एक ही सवाल है खड़ा होता है कि आखिर वे अपना सिर छूपाने के लिए एक अदनी सी छत कहां से लाए। ये कुछ ऐसे सवाल है जिनका जवाब दिया जाना इतना आसान नही है।
लेखक- द इंडियानामा पत्रिका का संपादन करते है। स्वतंत्र पत्रकार के रुप में सम-सामयिक मुद्दों पर देश भर के पत्र- पत्रिकाओं के लिए लेखन भी करते है।