भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश के लिए यह बहुत आवश्यक है कि उसके नागरिक स्वस्थ रहें। भारत में अनियमित जीवनशैली और खराब खान-पान के कारण अधिसंख्य नागरिक प्रतिदिन बीमार ही बने रहते हैं। भारत के प्रत्येक क्षेत्र में सर्वत्र अस्पताल बीमारों से पटे पड़े रहते हैं। देश में हर समय कोई न कोई संक्रामक रोग चलन में बना ही रहता है और करोड़ों नागरिक निरंतर संक्रामक बीमारियों और बुखार आदि से पीड़ित रहते हैं।
स्पष्ट है कि यदि हमें स्वस्थ रहना है तो अपनी जीवनशैली और खान-पान से समस्त प्रकार के प्रदूषणों को मुक्त करना होगा। भारत को इस संदर्भ में चीन, जापान और कोरिया जैसे देशों से सबक लेना चाहिए। इन देशों के नागरिक जीवनशैली और खान-पान के मामले में परंपरागत और प्राकृतिक तौर-तरीकों का ही प्रयोग करना पसंद करते हैं। भारत में पारंपरिक रूप से खाद्य पदार्थ उत्पन्न करने से लेकर भोजन पकाने तथा परोसने तक प्रकृति और स्वास्थ्य के अनुकूल बेहद अच्छी आदतें प्रचलन में रही हैं, परंतु समय बीतने के साथ भारतीयों ने इन अच्छी आदतों को त्याग दिया।
आज भारत में लगभग सभी खाद्य पदार्थ मिलावटखोरी से ग्रस्त हैं। कृषि में रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग तथा अन्य प्रदूषणों के कारण भोजन अशुद्ध एवं अस्वास्थ्यप्रद होता जा रहा है। प्रायः भोजन बनाने और खाने के बर्तन इत्यादि भी स्वास्थ्य की दृष्टि से उचित नहीं रह गए हैं। योग और व्यायाम की मात्रा भी दैनिक जीवन में प्रायः समाप्त सी ही हो गई है। भारत को पुनरू योग और पारंपरिक तौर-तरीकों को अपनाने की आवश्यकता है। इस संदर्भ में भारत में बाबा रामदेव सरीखे कतिपय योग गुरुओं ने उल्लेखनीय प्रयास किए हैं। योग उत्पादों की बिक्री के मामले में ‘पतंजलि संस्थान’ के उत्पादों ने लोकप्रियता के मामले में कई दिग्गज बहुराष्ट्रीय दवा निर्माता कंपनियों को पीछे छोड़ दिया है। स्पष्ट है कि यदि भारतीय अपनी मौलिक प्रतिभा और ज्ञान का प्रदर्शन करें, तो देश को स्वास्थ्य क्षेत्र में बहुत आगे बढ़ाया जा सकता है।
वर्तमान समय में भारत मेें लोग अपनी कमाई का 40 प्रतिशत हिस्सा महंगी दवाओं और इलाज पर खर्च कर रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अच्छा विकल्प होने के बावजूद लोगों को सस्ता इलाज नहीं मिल पा रहा है। सरकार में इच्छाशक्ति की कमी और चिकित्सकों का स्वार्थ इसमें सबसे बड़ी बाधा है। यद्यपि सरकार ने सस्ती दवाओं के लिए नीति बनाई है और चिकित्सक को मरीजों के पर्चे पर ‘जेनरिक’ दवाएं या उनका फाॅर्मूला लिखने का नियम बनाया है, किंतु सरकार अब तक इस नियम का कठोरता से पालन करा पाने में सर्वथा असमर्थ ही रही है। ऐसे में ज्यादातर चिकित्सक रोगियों को महंगी दवाएं लिखते हैं और मरीजों को मजबूरी में महंगी दवाएं ही खरीदनी पड़ती हैं। मूल घटक से ही प्रजाति विशेष की जो दवाएं तैयार की जाती हैं, उन्हें ‘जेनरिक’ कहते हैं। यह दवाएं उत्पादन के बाद सीधे बाजार में पहुंचती हैं। वहीं ‘एथिकल’ वह दवाएं कहलाती हैं, जिनको शोध आदि के बाद कंपनियां पेटेंट कराती हैं।
निर्माताओं का इन दवाओं पर एकाधिकार होता है। वह इन दवाओं पर शोध, मुनाफा, प्रचार-प्रसार, डॉक्टरों का कमीशन और मार्केटिंग चेन आदि का खर्च जोड़कर उन्हें बाजार में उतारती हैं। इस कारण यह दवाएं बहुत महंगी हो जाती हैं। अनेक बड़ी कंपनियां ‘जेनरिक’ और ‘एथिकल’ दोनों तरह की दवाएं बनाती हैं, लेकिन इनकी कीमतों में बहुत बड़ा अंतर होता है। खास बात यह है कि इनकी गुणवत्ता में कोई फर्क नहीं होता। बाजार में कई नकली और घटिया दवाएं भी मौजूद रहती हैं, इसलिए जेनरिक दवा भी अच्छी कंपनी की खरीदनी चाहिए। ‘एथिकल’ दवाओं की भांति ‘जेनरिक’ दवाओं को भी बाजार में उतारने से पहले गुणवत्ता मानक की सख्त प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। देश में एक सघन अभियान चलाकर उन चिकित्सकों पर नकेल कसी जानी चाहिए, जो नियम विरुद्ध ‘एथिकल’ दवाएं खरीदने के लिए लोगों को विवश करते हैं। यह आवश्यक है कि सरकारी अस्पतालों में अच्छी एवं गुणवत्तापरक ‘जेनरिक’ दवाएं उपलब्ध हों। आम धारणा है महंगी चीज ही अच्छी होती है, लेकिन यह सही नहीं है। कम कीमत में खरीदी गई ‘जेनरिक’ दवाएं भी मरीज को भरपूर राहत दे सकती हैं।
देश में गैर सरकारी संगठनों अथवा ‘एनजीओ’ के माध्यम से भी स्वास्थ्य क्षेत्र में भ्रष्टाचार का एक नया रूप सामने आ रहा है। देश में ऐसे ‘एनजीओ’ की आज भरमार होती चली जा रही है, जो चिकित्सा शिविरों के नाम पर सरकार से फंड लेते हैं। शिविर के लिए एक-दो चिकित्सकों को बुला लिया जाता है। शिविर में चिकित्सक, मरीजों का कैसे भी इलाज करें, इसके लिए संचालनकर्ता उनको खुली छूट दे देते हैं। फलतः तरह-तरह की दुर्घटनाएं सामने आती हैं। अब तक सामने आई विभिन्न घटनाओं में ऐसे शिविरों में चिकित्सकों की घोर लापरवाही के चलते दर्जनों मरीजों की आंखों की रोशनी जा चुकी है। सरकारें लोगों की जिंदगी में रोशनी लाने के लिए होती हैं।
यदि सरकारी तंत्र और प्रशासन की लापरवाही से जनता का अहित होगा, तो सुशासन की नीति और भावना पर इसका प्रतिकूल असर पड़ना सुनिश्चित है। यह सच है कि ज्यादातर चिकित्सकीय शिविर चैरिटेबल संस्थाओं की ओर से ही लगवाए जाते हैं, लेकिन अब यह आवश्यक हो गया है कि ऐसे शिविरों के लिए स्वास्थ्य विभाग और प्रशासन की स्वी.ति लेनी अनिवार्य कर दी जानी चाहिए। चिकित्सा शिविरों के अंदर होने वाली लापरवाही तथा दुर्घटनाएं हमारी पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था पर ही एक सवालिया निशान खड़ा कर देती हैं। देश के अधिकांश सरकारी अस्पतालों का हाल बदतर है। चूंकि गरीबों और जरूरतमंदों को वहां समुचित सुविधाएं नहीं मिल पातीं, इसीलिए उन्हें निः शुल्क कहे जाने वाले इन स्वास्थ्य शिविरों में जाना पड़ता है।
कुछ दशक पहले तक सभी बड़े नेताओं और नौकरशाहों का इलाज सरकारी अस्पतालों में ही हुआ करता था। इस वजह से वहां की सेवाओं में थोड़ा बेहतर स्तर बना रहता था, लेकिन जब से नेताओं और अफसरों के लिए निजी अस्पतालों की फाइव स्टार सेवाओं का विकल्प उपलब्ध हो गया है, तब से सरकारी अस्पताल निरंतर पिछड़ते ही चले गए हैं। भारत एक विशाल जनसंख्या वाला देश है। भारतीय नागरिकों में अपनी सरकार और प्रशासनिक तंत्र के प्रति विश्वास का भाव तभी जागृत हो सकेगा, जब एक सुयोग्य एवं सुव्यवस्थित तंत्र के द्वारा उन्हें बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराई जा सकेंगी। स्वस्थ नागरिकों से ही एक सुव्यवस्थित एवं समृद्ध परिवार, समाज और राष्ट्र की संरचना निर्मित की जा सकती है।
स्वास्थ्य क्षेत्र में भारत को अपनी मौलिक उपलब्धियों पर भी ध्यान देना चाहिए। भारतीय आयुर्वेद और योग विज्ञान आदिकाल से ही भारतीय नागरिकों के स्वास्थ्य का आधार रहे हैं। भारतीय आयुर्वेद और योग के प्रति अब विश्व समुदाय भी आकर्षित हो रहा है। विश्व के अनेक देश अब आयुर्वेद, योग और प्रा.तिक विज्ञान को स्वास्थ्य क्षेत्र में महत्व प्रदान करने लगे हैं।
भारतीय योग विज्ञान को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता देते हुए ‘‘संयुक्त राष्ट्र’’ ने ऐतिहासिक बहुमत से ‘21 जून’ की तारीख को ‘विश्व योग दिवस’ घोषित किया है। इससे पहले 2011 में विश्व के कुछ योग गुरुओं ने बेंगलुरू में हुए एक योग सम्मेलन में 21 जून को ‘योग दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय लिया था। 21 जून ही यह तिथि घोषित करने के पीछे वैज्ञानिक कारण है। 21 जून को पृथ्वी पर सूर्य की उपस्थिति सबसे लंबे समय तक रहती है। सूर्य ऊर्जा का सबसे बड़ा और अक्षय स्रोत है। पृथ्वी पर उसकी लंबी उपस्थिति इस तिथि को पृथ्वी पर सबसे अधिक ऊर्जा की मौजूदगी को सुनिश्चित करती है। स्पष्ट है कि भारत को स्वास्थ्य क्षेत्र में अपने मौलिक चिंतन और दर्शन को बनाए रखना चाहिए, क्योंकि यह नियमित भारतीय जीवनशैली के व्यवहारिक पक्ष के अनुकूल सिद्धहोती रही है।