Saturday, November 23, 2024
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वीरांगना लक्ष्मीबाई

19 नवंबर को वीरांगना लक्ष्मीबाई का जन्मदिन आता है जिसने पूरे विश्व में विश्व की मातृशक्ति का डंका बजा दिया था। भारत के ज्ञात ढाई हजार वर्षों के इतिहास में शायद ऐसी कोई नारी शक्ति नहीं जन्मी जिसने इस कौशल से व्यूह रचना की है और इतनी अतुल वीरता के साथ आत्म विसर्जन किया हो। लक्ष्मीबाई के पिता आश्रय में पाले दीन ब्राम्हण थे और मां इतने पूर्व मर गई की बालिका लक्ष्मी को कोई स्मृति भी न रही होगी। कुल 23 वर्ष का जीवन जी कर वह सारी धरती को चमका कर शून्य में विलीन हो गई। परंतु भारत ही नहीं पूरे संसार के इतिहास में वह शौर्य एवं आहुति का पुंज बनकर चमक गई। ‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी’ के सुप्रसिद्ध उनके वाक्य के कारण कई अधकचरे इतिहासकार मानते हैं कि 1857 के अन्य सामंती नायकों की तरह उन्होंने महज अपनी रियासत बचाने के वास्ते फिरंगियों से युद्ध किया। यदि ऐसा होता तो पेंशन तो उन्हें मिल ही रही थी। कम से कम हार निश्चित हो जाने पर एक बार भी उन्होंने संधि की बात क्यों नहीं की। सच्चाई यह है कि जीवन के अंतिम क्षण तक उन्होंने संधि के बारे में कभी सोचा ही नहीं उनके सामने जो भी अंग्रेज आया उसे कत्ल करके ही उन्होंने दम लिया।
संवत 1914 (सन् 1857) के राजा मर्दन सिंह को संबोधित अपने पत्र में महारानी लक्ष्मी भाई ने स्पष्ट लिखा है- ‘सूराज (स्वराज्य) मयो चाहिंजे। अंग्रेजन का शासन न चाहिंजे। भारत आपुनी ही देश है।’ क्या यह राष्ट्रीय भक्ति है या सामंतवादी संकल्प है? बहादुर शाह जफर ने दिल्ली तथा बेगम हजरत महल (लखनऊ) ने अपनी व्यावहारिक शक्ति सैनिक कौंशिल को सौंप दी थी तो क्या यह जनतांत्रिक प्रयोग नहीं था तो भी कुछ पाश्चात्यवादी इतिहासकार 1857 के प्रथम स्वतंत्रता समर को सामन्ती सत्ता लोलुपता कहकर बदनाम करते हैं, उन्हें क्या कहा जाय? सच तो यह है कि किसी क्रांतिनायक ने चाहे वे बादषाह बहादुर शाह हो अथवा अवध वंदिता बेगम हजरतमहल, नाना साहब पेशवा अहमद शाह, तात्या टोपे, नरपति सिंह, राजा बेनी माधव हो अथवा कोई हो उसने क्रांति में पदार्पण के पश्चात केवल आत्माहुति की चिंता की, अपने सामंती शासन की नहीं मगर जो इतिहास हम पढ़ते पढ़ाते हैं उसमें राष्ट्रवाद ही नहीं सत्य भी नहीं है। महाराष्ट्र में पेशवाई पर जब कुटिल अंग्रेजों ने कब्जा जमाया तो पेषवा परिवार को महाराष्ट्र छोड़ने को मजबूर कर दिया। तब पेशवा बाजीराव बिठूर कानपुर भेज दिए गए। उनके अनुज श्री चिमनाजी आय बनारस आकर रहने लगे। उन्हीं की सेवा में एक सहायक आए श्री मोरोपंत तांबे। उनके यह काशी के मदैनी मोहल्ले में अब तक की शोध के अनुसार 19 नवंबर, 1835 को एक कन्या रत्न ने जन्म लिया जिसका नाम काशी के षक्तिपीठ मणिकार्णिका जहां मृत सती केा कंधे पर लादकर विक्षिप्त शिव के घूमते समय कान की मणि गिरी थी, के नाम पर रखा गया। पुकारने का नाम था- मनु।
कन्या षुरु में सुख न पा सकी शायद आजीवन संघर्ष के लिए ही उत्पन्न हुई थी। पहले माता गुजर गई फिर आश्रयदाता श्री चिमना जी आय। पिता मोरोपंत की आजीविका जाती रही। तब पेषवा ने उन्हें अपने पास बिठूर बुला लिया। अतः महलों में आते जाते नाना साहब में बाद में पेशवा हुए तथा बाला साहब तात्या आदि के साथ मनु खेलती थी। षस्त्र संचालन सीखती और वीरता के कार्य करती थी। 1842 मेंे मनु के भाग्य खुलें। झांसी के प्रौढ़ राजा गंगाधर राव से उनका विवाह हुआ। विवाह के पश्चात झांसी की कुल देवी लक्ष्मी के नाम पर उनका नाम लक्ष्मी बाई रखा गया। लक्ष्मीबाई पर्दे में रहने लगी। अंगार पर राख पड़ी मगर आग नहीं बुझी। आगे चलकर रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया परंतु कुछ दिन बाद ही उसका देहांत हो गया। राजा गंगाधर राव इस शोक को सह न सके और नवम्बर 1853 में चल बसे। तथापि देह त्याग के पूर्व उन्होंने अंग्रेज रेजिडेंट की उपस्थिति में अपने कुल के ही एक बालक को गोद लिया जिसका नाम दामोदर राव रखा गया। अंग्रेजों ने कालांतर में दामोदर राव को राजकुमार नहीं माना और झांसी की राज्य सत्ता अंग्रेजी राज में मिला लिया। उनका अंदाजा था बीस इक्कीस बरस की अबला हिंदुस्तानी हिंदू की विधवा क्या कर सकती है? इसके बाद उस शक्ति स्वरूपा अबला विधवा ने दिखाया कि वह क्या कर सकती थी जिसके बारे में उसके सर्वाधिक प्रत्यक्ष षत्रु सर हृयूरोज ने उसे ‘मखमल के दस्ताने में फौलादी उंगलियां’ (आईरन फिंगर्स इन वेलवेट ग्लोब्स) लिखा था। सचमुच यदि झांसी की रानी को जरा भी बाहरी मदद मिलती या उनकी सलाह से 1857 का युद्ध लड़ा जाता तो अंग्रेजों का बेड़ा गर्क हो गया होता। किले से निकलकर अंग्रेजों ने रानी को रानी महल में शहर में भेज दिया। यही नहीं उनके व्यक्तिगत बगीच,े जमा पूंजी तथा जागीर में भी अंग्रेज अपमानजनक दखलअंदाजी करने लगे।
5 जून अट्ठारह सौ सत्तावन को श्री गुरुबख्स सिंह के नेतृत्व में अंग्रेजों की देशी पलटन ने बगावत कर दी। रानी को उनके बारंबार आग्रह पर नेतृत्व संभालना पड़ा। फिर तो रानी ने ऐसी सुदृढ़ व्यवस्था कि दिल्ली, जहां सारे भारत के क्रांतिकारी आए थे, की फतेह अंग्रेजों ने 5 दिन में प्राप्त कर ली मगर झांसी में कोई 2 हफ्ते लग गए। मौका पाकर दतिया तथा ओरछा के राजाओं ने झांसी पर कब्जे की कोशिश की। ओरछा की सेना ने तो आक्रमण भी कर दिया मगर हार कर भागना पड़ा। वैसे तो अनेक विवरण हैं तथापि दूर से आए एक यात्री विष्णु गोडसे ने महारानी लक्ष्मीभाई तथा उनकी लड़ाई का जीवंत चित्रण पूर्ण तटस्थ भाव से लिखा है। वे कैसी थी? उनके शब्द हैं- ‘कभी-कभी पुरुष वेष धारण करती थी, पैजामा बंडी सिर पर टोपी रखकर तुर्रा बांधती थीं। कमर पर से जरी का दुपट्टा कसा हुआ, उसमें तलवार लटकती रहती थी इस प्रकार गौरवर्ण की वह ऊंचे कद की मूर्ति साक्षात गौरी के समान लगती थी। कभी जनाना वेश होता था परंतु पति के मरने के बाद उन्होंने नथ वगैरह अलंकार कभी धारण नहीं किए। केवल हाथों में सोने की चूड़ियां और गोठ, गले में मोतियों की माला और उंगली में एक हीरे की अंगूठी के सिवाय बाई साहब (रानी लक्ष्मीबाई) के अंगों पर दूसरा अलंकार मैंने कभी नहीं देखा। बालों का बड़ा सा जूड़ा कसा रहता था, स्वच्छ सफेदी चोटी और उस पर सफेद षालू ओढ़ती थी। इस तरह कभी पुरुष तो कभी स्त्री वेश में दरबार में जाती थी। ‘रानी ने कई बार सरकार से गया और काशी जाकर पति के श्राद्ध तथा बाल मुंडवाने की आज्ञा मांगी थी, परंतु अंग्रेज शुरू से षंकालु थे। उन्होंने उन्हें झांसी के बाहर कभी जाने ही नहीं दिया।
आखिर 20, 21 मार्च तक भोपाल, हैदराबाद तथा मद्रासी सेना के साथ ह्यूरोज झांसी आ गया। अंग्रेजी सेना के साथ ओरछा की सेना आ गई। झांसी के पूर्व सारे रास्ते भर अंग्रेज क्रांतिकारियों को चंदेरी, बानपुर आदि में मारते आए। झांसी की रक्षा व्यवस्था को देख कर एक बार तो ह्यूरोज सहम गया। सारे दरवाजे बुर्जियों और दीवारों पर प्रत्याक्रमण की तैयारी थी। दिन में कोई भी दीवार टूटती रातों-रात उसकी मरम्मत हो जाती थी। रानी मोर्चे के हर हिस्से पर घूमती हुई सारी व्यवस्था खुद देखती थी। रानी की मदद करने तात्या अपनी फौज लेकर आया मगर अंग्रेजों ने तात्या को अपने हथकडों से भांगने पर मजबूर कर दिया। रानी ने छोटी जाति के लोगों को ही नहीं स्त्रियों, दासियों तथा नाचने वाली दरबारी महिलाओं को अस्त्र-शस्त्र संचालन की शिक्षा दे रखी थी। हफ्ते भर की लड़ाई में अंग्रेज रानी का कुछ बिगाड़ न सके तब अंग्रेजों ने घूस एवं लालच के साथ जीवन शाह चौराहे से आक्रमण आरंभ किया। रानी ने एक बार 1500 मेवातियों (विलायती-अफगानी सैनिकों को पुरस्कार देकर रोक रखा था। उन सबने रानी का जो नमक अपने खून के एक-एक बूंद से अदा किया वह विष्व में उनकी कीर्ति व उज्जवल करता है। अंत में झांसी के एक गद्दार सरदार ने घूस खाकर किले के नीचे का गेट खोल दिया। अंग्रेजी फौज षहर में घुसी। जब षहर में मारकाट होने लगी तो रानी अपनी प्रजा का आर्तनाद सह न सकी। 1500 अफगानियों के साथ वह किले के बाहर आई। शाम को जब वह लौटी तो 1200 मेवाती शत्रु से लोहा लेते मारे जा चुके थे। बाकी मेवाती रानी की रक्षा करने में वैसे ही मुस्तैद थे।
अंग्रेज पूरी रात डर के मारे कुएं में कूदे लोगों को बाहर निकाल कर मालमत्ते की खबर पूछते फिर कत्ल कर देते थे। आग के शोले आकाश में फूट रहे थे। उसी समय एक गोले से मुख्य तोपची गुलाम गौस खां तथा उसकी सहायिका मोती बाई मारी गई। उस हताशा में दोनों की कब्र एक में ही बना दी गई। रानी उनके दफन के बाद किले के सबसे ऊपरी हिस्से में गई। दीवार पर घंटों वे चुपचाप उस झांसी के लोगों के मरते वक्त चीखें, औरतों के करुण रुदन, बच्चों का आर्तनाद और अंग्रेजों द्वारा लगाई गई आग को देखती रही। फिर दोनों कान बंद करके विक्षिप्त सी नीचे आई। बालक दामोदर राव सो गया था। रानी ने उसे प्यार किया फिर हुक्म दिया- ‘मैं झांसी की बर्बादी नहीं देख सकती। मुझे तोप के मुंह पर रख कर उड़ा दिया जाए।’ रात में दरबार हुआ। बचे हुए सरदारों ने झांसी छोड़कर अन्यत्र मोर्चा जमाने को कहा। रानी तोप से उड़ाए जाने की बात कहती रही। बचे कुचे 300 वीर मेवातियों ने जिम्मा लिया कि वे रानी बच्चे और सहेलियों को सुरक्षित निकाल देंगे। किसी तरह रानी को राजी किया गया। भोर में किले के पीछे के गेट से निकलकर ओरछा के अंग्रेज मित्र सैनिकों का रूप धरकर रानी चंद्रषेखर आजाद मार्ग से माण्डेर गेट पहुंची और निकल गई। इसके बाद झलकारी ने रानी बनकर अंग्रेजों को धोखा देना चाहा। कैप्टन वाकर माण्डेर तहसील के आगे भागती हुई रानी के पास जा पहुंचा और पीछे बधे दामोदर राव को पकड़ना चाहा मगर दौड़ते घोड़े से पीछे मुड़कर उस रणचंडी रानी ने तलवार के एक वार से वाकर को घायल कर दिया। 104 मील दौड़कर उस घोड़े ने उसी दिन रात 10 बजे रानी को कालपी पहुंचा दिया। फिर जो गिरा तो जमुना का जल पीकर दम तोड़ गया। कालपी में भी ह्यूरोज आ पहुंचा। कई लड़ाइयांे के बाद कालपी छोड़कर क्रांतिकारियों को रानी के प्रस्ताव पर ग्वालियर आ कर कब्जा जमाना पड़ा। ग्वालियर का राजा सिंधिया जो अंग्रेजों का नंबरी पिट्ठू था चुपचाप आगरा भाग गया। फिर अंग्रेजों के साथ लड़ते ही ग्वालियर लौटा।
पीछा करता ह्यूरोज ग्वालियर आ पहुंचा। उसने हर तरफ से शहर घेर लिया। 18 जून 1858 को कोटा की सराय की लड़ाई में पहले जूही नर्तकी मारी गई। अंग्रेजों से रानी घिर गई थी। केवल चार सरदार साथ थे। सहेली मुंदर निजी सेवक रामचंद्र देशमुख रघुनाथ सिंह और मेवाती प्रमुख गुल मोहम्मद। एक अंग्रेज की गोली से मुंदर मारी गई। रघुनाथ सिंह ने उस अंग्रेज का काम तमाम किया। मुंदर की दम तोड़ती लाश को घोड़े पर लादकर गुल मोहम्मद चला। एक अंग्रेज ने अपनी संगीन रानी की छाती में भोंक दी। घायल रानी ने अपनी ही तलवार से उसके दो टुकड़े कर दिए। रानी का घोड़ा सामने पड़े नाले पर अड़ गया। फिर अंग्रेजों ने घेर लिया। एक अंग्रेज ने पिस्तौल से रानी की छाती में गोली मारी। खून का फौव्वारा फूटा। मगर षिथिल पड़ती रानी ने अपने ही वार से उसे धरती पर गिरा दिया। घोड़ा अब भी अड़ा था। गुल मोहम्मद से बचकर एक अंग्रेज की तलवार की वार रानी के मस्तक पर लगा। दाहिना भाग फट गया और दाहिनी आंख निकल पड़ी। अब भी गिरती हुई रानी ने अपने हाथ के तलवार से उस अंग्रेज का कंधा काट कर फेंक दिया। गुलमुहम्मद ने उसके दो टुकडे़ कर दिए। गुलमुहम्मद रानी के निकट के बाबा गंगा दास की कुटी में ले आया। हर घाव से 23 बरस की उस वीरांगना के शरीर झरझर खून से बह रहा था। बाबा के गंगाजल की कुछ बूंदें रानी के मुंह में डाली गईं। क्षीण स्वर में हर-हर महादेव कहकर वे अचेत होने लगी। मरने की पूर्व शरीर में फिर हरकत हुई। अंतिम स्वर निकला ओम वासुदेवाय नमः गंगाजल मुंदर के मुख में भी डाला गया मगर वह मर चुकी थी। बाबा की कुटी से लकड़ी और फूस निकाल कर जल्द ही दोनों की चिताओं में आग लगा दी गई। रामचंद्र देशमुख बालक दमोदर को लेकर नागपुर चला गया। गुल मोहम्मद ने अपनी वर्दी चिता की आग में डाल दी। रघुनाथ सिंह पहरे पर बैठ गया। लंगोटी लपेटकर गुल मोहम्मद वहां लेटा रहा। चिता बुझने पर उसने वहां अपने हाथों चबूतरा बनाया और जो कोई पूछता-बोलता ‘यह मेरे पीर की मजार है’। मध्यप्रदेश शासन ने आज रानी की समाधि बनवा दी है और कई लाख से रानी की अष्वारुढ़ भव्य प्रतिमा 1958 में स्थापित की। रानी के जन्मजात शत्रु ने उन्हें विद्रोहियों में सबसे योग्य और सबसे बहादुर कह कर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की थी। हम भारतवासियों की श्रद्धांजलि का आलम यह है कि हमने उस विख्यात प्रतिमा के पीछे लगे रानी के पुत्र की प्रतिमा चोरी से उड़ा कर उसे खंडित कर देश को महिमा मंडित किया है।
डॉ. हनुमान प्रसाद उत्तम