Saturday, April 20, 2024
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सम्पादकीय

कर्त्तव्य का बोध

प्रधानमंत्री मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर दिए गए राष्ट्र को उद्बोधन में नागरिक कर्तव्य का जिक्र करते हुए इसे पांचवीं प्राणशक्ति बताया गया और शासक, प्रशासक, पुलिस हो या पीपुल, सबको अपने-अपने कर्तव्य निभाने चाहिए। सही बात भी है कि सभी को अपने अपने कर्त्तव्य निभाने चाहिये, देशहित में सभी को इसके प्रति निष्ठावान भी होना चाहिये क्यों कि बगैर नागरिक कर्तव्य के कोई भी देश पूर्ण रूप से उन्नति नहीं कर सकता है। अब ऐसे में कर्तव्य निभाने का पहला और मूल सवाल तो आम नागरिकों के के सिर पर मढ़ दिया जा चुका है किन्तु इसी तरह का सवाल संसद-विधानसभाओं में कीमती वक्त और लोगों की गाढ़ी कमाई को शोर-शराबे और धरने-प्रदर्शन में बर्बाद करने पर भी प्रधानमन्त्री जी को बोलना चाहिये था जिस पर उन्होंने कुछ भी नहीं कहा। ऐसे में तो ‘ पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ वाली कहावत चरित्रार्थ हो रही है क्योंकि क्या सरकारी कार्मिक वेतन और सुविधाओं के बदले में ईमानदारी से अपनी ड्यूटी को अंजाम दे रहे हैं। इसी तरह क्या जनप्रतिनिधि भी जनता की गाढ़ी कमाई से वेतन व सुविधाएं तो ले रहे हैं लेकिन इसके ऐवज में जनप्रतिनिधि क्या अपना फर्ज अदा कर रहे हैं? इस पर प्रधानमन्त्री जी कुछ नहीं बोले क्यों ?
इसके कतई दो राय नहीं और कटु सत्य व सर्वविदित है कि जनप्रतिधियों ने सर्वाेच्च संवैधानिक संस्थाओं को पैतरेबाजी का अखाड़ा बना दिया है। देश के लोकतंत्र को शर्मसार करने की अनेक घटनाएं इसकी गवाह हैं और सदन में सत्र के दौरान कामकाज में बाधा डालने के अलावा मारपीट, कपड़े फाडऩे, एक-दूसरे पर माइक और कुर्सियों से हमला करने के मामले ज्यादा पुराने नहीं हैं और शायद हर एक को याद भी होगा।
ऐसे में यही उचित रहता कि प्रधानमन्त्री मोदी जी, आम लोगों को नसीहत देने की बजाय आम लोगों की बदौलत ऐश-आराम करने वाले नेताओं और कार्मिकों से कर्तव्य निभाने की बात करते। देश को नेता व उच्चपदों पर बैठे अधिकारी खोखला कर रहे हैं और अनेक नेताओं व अधिकारियों के बंगलों व घरों से बरामद हुई नकदी व जेवरात इसके उदाहरण हैं। खास बात यह है कि देश को लूट कर खाने वाले ऐसे नेताओं-अफसरों के खिलाफ देशद्र्रोह का मुकदमा चलाने के बजाय विरोधी दल ही एकजुट होकर उसके बचाव में उतर आते हैं। इतना ही नहीं उसी के बचाव में धरने-प्रदर्शन तक की करने में गुरेज नहीं रहता।

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आजादी की वर्षगाँठ से अमृत महोत्सव को जोड़ना कितना उचित ?

आजादी की 75वीं वर्षगाँठ पर अमृत महोत्सव पूरे जोर शोर से मनाने पर जोर दिया जा रहा है। आम हो खास हर व्यक्ति इस महोत्सव का भागीदार बनाया जा रहा है। लेकिन सवाल यह उठता है कि हम अमृत महोत्सव के बारे में कितना जानते हैं ? इस महोत्सव को क्यों मना रहे हैं ?
बताते चलें कि ‘‘अटल कायाकल्प और शहरी परिवर्तन मिशन योजना’’ AMRUT: Atal mission for rejuvenation and transformation scheme (A-Atal, M-mission, R-rejuvenation, U-urban, T-transformation ) की शुरूआत देश के शहरों व कस्बाई इलाकों के विकास के लिए केंद्र सरकार ने वर्ष 2015 में की थी। इस योजना का उद्देश्य प्रत्येक घर को पाइप लाइन द्वारा जलापूर्ति एवं सीवर कनेक्शन उपलब्ध कराना था। इसके अतिरिक्त योजनांतर्गत हरियाली विकसित करना तथा पार्कों का सौंदर्यीकरण भी शामिल था ताकि नागरिकों का स्वास्थ्य और शहर का सौंदर्यीकरण बेहतर से बेहतर हो सके।
अमृत योजना में शामिल होने पर शहरों का कायाकल्प करने की बात कही गई थी और कहा गया था कि शहरों की सड़कों का रखरखाव हो सकेगा, सीवर सिस्टम तथा सामुदायिक शौचालय पर काम किया जाएगा।
बताया गया था कि इस योजना के अंतर्गत केंद्र सरकार छोटे शहरों व कस्बों को या फिर शहरों के कुछ अनुभागों को चुनेगी और वहां पर बुनियादी सुविधाएं स्थापित करेगी। इस ड्रीम प्रोजेक्ट के लिये करोड़ों रुपए का आवंटन किया गया था।

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प्रेस की घटती आजादी

अभी हाल ही जारी किये गये प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक पर अगर नजर डालें तो भारत में पत्रकारों की आजादी दिनोंदिन घटती जा रही है। जो कि किसी भी नजरिये देश की लोकतांत्रिक प्रणाली के लिये शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता है। अनेक मामलों के दृष्टिगत ऐसा माना गया है कि भारत में पत्रकारों की आजादी लगातार घटती जा रही है और यहां उन्हें समाचार संकलन के दौरान कई बड़ों खतरों से गुजरना पड़ता है। यही कारण है मंगलवार को जारी किए गए रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स के वार्षिक विश्लेषण के अनुसार भारत को विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक-2022 में 180 देशों में से आठ स्थानों की गिरावट के साथ 150वां स्थान दिया गया है जबकि पिछले साल भारत को 142वां स्थान मिला था और उसे पत्रकारिता के लिए सबसे बुरे देशों में शामिल किया गया था। लेकिन वर्तमान में जो आंकड़ा सामने आया है वह बेहद विचारणीय और चिन्तनीय है। वहीं नार्वे की बात करें तो प्रेस की स्वतंत्रता में शीर्ष स्थान बरकरार रखा है। पत्रकारिता के लिहाज से यह देश सबसे सुरक्षित माना गया है। इसके बाद डेनमार्क को दूसरा, स्वीडन को तीसरा, इस्टोनिया को चौथा, फिनलैंड को पांचवां, आयरलैंड को छठा, पुर्तगाल को सातवां, कोस्टा रिका को आठवां, लुथियाना को नौवा और लिकटेंस्टाइन को दसवां स्थान दिया गया है। ऐसा माना जाता है कि इन देशों में पत्रकारिता करना बेहद आसान है। वहीं पत्रकारों के लिए सबसे खतरनाक देश उत्तरी कोरिया माना गया है और सूचकांक में इसे 180वां स्थान मिला है। इसके बाद पत्रकारों के लिए सबसे खतरनाक देशों में इरिट्रिया, ईरान, तुर्कमेनिस्तान, म्यांमार, चीन, वियतनाम, क्यूबा, इराक और फिर सीरिया का नंबर आता है। यहां पर स्वतंत्र पत्रकारिता करना बहुत मुश्किल व जोखिमभरा है।

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अतिक्रमण पर विराम कब?

चाहे देश की राजधानी हो या देश के अन्य राज्यों के महानगर अथवा कस्बाई क्षेत्र, यहां पर सरकारी जमीनों पर अवैध कब्जे बढ़ते चले आये हैं और नतीजा यह हुआ है कि अतिक्रमण एक राष्ट्रव्यापी समस्या बन चुका है। वहीं राजनीतिक फायदों को देखते हुए समय समय पर कई शहरों में तो सरकारी जमीनों पर कब्जे के चलते बसी अवैध बस्तियों को नियमित करने का भी सिलसिला चल निकला है। यह कहना कतई गलत नहीं कि नियमितीकरण की नीति के चलते अनेक शहरों में झुग्गी माफिया पैदा हो गये हैं, जो भ्रष्ट नेताओं और नौकरशाहों से मिलकर अवैध कब्जे करवाते रहते हैं। ऐसी परिस्थितियों के चलते यह सवाल उठना लाजिमी है आखिरकार अतिक्रमण अथवा अवैध कब्जों पर विराम कब?

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पेट्रोल, डीजल व रसोई गैस की कीमतों में लगातार वृद्धि के लिये केन्द्र सरकार ही नहीं बल्कि राज्य सरकारें भी हैं जिम्मेदार

खाने-पीने की चीजों से लेकर जिस तरह पेट्रोल, डीजल व रसोई गैस की कीमतों में बढ़ोत्तरी हो रही है, वह चिंता की एक बड़ी वजह है। इसके लिये कहीं न कहीं केंद्र और राज्य सरकारों का मुनाफाखोर आचरण पूरी तरह से जिम्मेदार है। पांच राज्यों में सम्पन्न हुए चुनावी दौरान पेट्रोल-डीजल की कीमतों में कोई बढ़ोत्तरी ना करने के पीछे मतदाताओं की नाराजगी से बचने हेतु एक मजबूरी थी और जैसे ही नतीजे आ गये, मतलब निकला तो मंशा उजागर हुई और परिणामतः पेट्रोलियम पदार्थाे में लगभग हर रोज बढ़ोत्तरी जारी है।
इसमें कतई दो राय नहीं कि पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ने का सीधा असर महंगाई पर पड़ता है और गरीब तबके व हाशिये पर मौजूद तबके के लिए ज्यादा मुश्किलें बढ़ती जातीं हैं। वर्तमान में देश में पेट्रोल, डीजल की कीमतें रोजाना बदलना व बढ़ना शुरू हो गई हैं। जो निरन्तर जारी रहने की उम्मीद है। वहीं पिछले वर्षाे की बात करें तो पूरी दुनियाँ में कोविड-19 महामारी के चलते क्रूड की कीमतें नीचे आई थीं लेकिन भारत में ईंधन के दाम कम नहीं किये गये थे।
केन्द्र सरकार एक तरफ तो बड़े उद्योगों व नौकरीपेशा के हित के लिए समय-समय पर राहत के पैकेज घोषित किया करती है लेकिन जिस पेट्रोल और डीजल की कीमतों की बढ़ोत्तरी के चलते समूची अर्थव्यवस्था प्राथमिक स्तर से ही प्रभावित होना शुरू हो जाती हैं उनके बारे में वह बेहद असंवेदनशीलता का परिचय दे रही है। इस असंवेदनशीलता का शिकार हर वर्ग हो रहा है लेकिन मध्यमवर्गीय तबका सबसे ज्यादा हुआ है और हो रहा है ?

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सतर्कता जरूरी है

कोरोना वायरस का कहर तो सभी ने देखा है और लापरवाही का नतीजा भी देखा गया, लेकिन कोरोना के बदले हुए रूप ‘ओमिक्रोन’ का खतरा भी दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। देखते ही देखते ओमिक्रोन के संक्रमण से ग्रस्त मरीजों की संख्या बढ़ती जा रही है। सुर्खियों की मानें तो ओमिक्रोन का संक्रमण 16 राज्यों तक पहुंच गया है और यह वायरस जिस तेजी से लोगों को संक्रमित कर रहा है। नेताओं की रैलियों व अन्य कार्यक्रमों पर इकट्ठी की जा रही भीड़ को देखते हुए इसकी आशंका बढ़ गई है कि आने वाले दिनों में इसके मरीजों की संख्या तेजी से बढ़ेगी। ऐसे में भारत को अन्य देशों की अपेक्षा कहीं अधिक सतर्क रहना होगा। चूंकि उप्र सहित 5 राज्यों में विधान सभा चुनाव होने हैं और राजनीतिक दलों द्वारा अपनी अपनी रैलियों में अधिक से अधिक भीड़ जुटाने का प्रयास रहेगा, लेकिन इस दौरान संक्रमण से बचाव हेतु समुचित उपाय एवं गाइडलाइन का पालन करने पर ध्यान कतई नहीं देखने को मिल रहा है, ऐसे में वायरस से संक्रमण बढ़ने का खतरा हर पल बना हुआ है।
कोरोना वायरस के बदले स्वरूप से बचाव हेतु केंद्र सरकार व सभी राज्य सरकारों को नए सिरे से सावधानी बरतने की जरूरत इसलिए भी है, क्योंकि देश के कुछ हिस्सों में कोरोना वायरस से संक्रमित मरीजों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसका कारण राजनैतिक दलों की रैलियों को ज्यादा ठहराया जा सकता है। वहीं रात्रिकालीन कर्फ्य पर जोर दिया जा रहा है जो कि नाकाफी कहा जा सकता है अगर संक्रमण से बचाव के ठोस कदम उठाने की बात कही जाये तो नेताओं की रैलियों में जुट रही भीड़ को रोकने की जरूरत है या यूं कहें कि नेताओं की रैलियों पर ही रोक लगा दी जाये। लेकिन दुर्भाग्य है कि छोटे-छोटे कार्यक्रमों के लिये नियम कायदे पालन करने पर जोर है और जहां अथाह भीड़ उमढ़ रही है वहां के लिये कोई भी ठोस नीति नहीं अपनाई जा रही है।

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अच्छी पहल

आज के युग में प्रत्येक देश, समाज एवं वर्ग विकसित होना चाहता है। जब पुरुष वर्ग की चाह है कि वह क्षेत्र में नये नये आयाम प्राप्त करे तो विकास की इस दौड़ में महिलाएं पीछे क्यों रहें? यह प्रश्न अर्थहीन कतई नहीं है। इसी नजरिये से देखा जाये तो लड़कियों के विवाह की उम्र का प्रश्न भी केवल संतुलित सामाजिक व्यवस्था तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह उनके स्वास्थ्य, सोंच, सुरक्षा, विकास से भी जुड़ा है। अतएव नारी वर्ग को अपने जीवन स्तर को ऊंचाई तक ही नहीं ले जाना है बल्कि उन्हें एक ऐसा उदाहरण पेश करना है जिसकी उपयोगिता सदैव बनी रहे। बदलते दौर में नारी वर्ग ने सुंदर कपड़े पहनना, सुन्दर व आकर्षक दिखना, सुंदर घर सजाना तक ही सीमित नहीं रखा है बल्कि ज्ञान-विज्ञान की उच्चकोटि की बातें करना भलीभांति सीख लिया है। लेकिन अब नारी वर्ग को अपने पैरों पर खड़े होकर स्वयं को निर्मित करते हुए समाज एवं राष्ट्र के विकास में भी योगदान देना है। और इस उद्देश्य में एक बड़ी बाधा मानी जाती है कच्ची उम्र में विवाह के बंधन में बंध जाना। लेकिन अब इस बाधा से मुक्ति मिलने का एक नया अध्याय शुरू करते हुए एक अच्छी पहल की गई है और वहल है वैवाहिक बन्धन में बंधने हेतु 21 वर्ष की न्यूनतम उम्र का नियत किया जाना।
हालांकि नया कानून के बन जाने पर भी नारी वर्ग परम्पराओं एवं बंधनों से मुक्त हो जायेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं दी जा सकती है। क्योंकि आज भी देश एवं दुनिया में नारी वर्ग के सम्मान एवं अधिकार के लिये बने कानूनों की धज्जियां उड़ते हुए बखूबी देखी जाती हैं। वहीं समाज का एक बड़ा तबका आज भी नारी वर्ग को दोयम दर्जा का ही मानता है। उनकी सोंच है कि लड़कों की अपेक्षा लड़कियां जल्दी परिपक्व हो जाती हैं, इसलिए दुल्हन को दूल्हे से कम उम्र की होना चाहिए। यह भी कहा जाता है कि पति के उम्र में बड़े होने पर पत्नी को उसकी बात मानने पर उसके सम्मान को ठेस नहीं पहुंचती है।

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भारत के लिये चिन्ता का विषय

तालिबान लड़ाकों से प्रभावित कंधार में अपने वाणिज्यिक दूतावास को भारत ने जिस तरह अस्थायी तौर पर बंद करने का व वहां कार्यरत कर्मचारियों को निकालने का फैसला किया है उससे चिन्ता बढ़ना स्वाभाविक है और यह आशंका है कि अफगानिस्तान में तालिबान लड़ाके अपनी बढ़त कायम करते जा रहे हैं। अगर यह सच है तो यह भारत के लिये चिन्ता का विषय है। वहीं यह भी जानकारी मिल रही है कि तालिबान लड़ाकों को आगे बढ़ने से रोकने के लिये अफगान सेना अपने स्तर से हरसंभव उपाय कर तो रही है, लेकिन वह अपने उद्देश्य में कामयाब होती नहीं दिख रही है। परिणाम यह है कि एक के बाद एक शहर को तालिबान लड़ाके अपने कब्जे में लेते चले जा रहे हैं। ऐसे में कयास लगाया जा रहा है कि यदि तालिबान लड़ाके इसी तरह आगे बढ़ते रहे तो आने वाले दिनों में अफगानिस्तान के अन्य कई बड़े शहरों के लिये खतरा बन सकते हैं और सम्भवतः वहां की राजधानी काबुल के लिए भी खतरा बन सकते हैं।
अब ऐसे में अगर तालिबान लड़ाकों के मन्सूबे अगर सफल हुये तो सवाल यह उठता है कि इसका जिम्मेदार कौन? शायद जवाब यही होगा, अमेरिका। क्योंकि अमेरिका ने सब कुछ जानते हुए अपनी सेनाओं को वहां से वापस बुलाने का फैसला लिया।
सवाल यह भी उठता है कि अमेरिकी प्रशासन व तालिबान के बीच कौन सा समझौता हुआ जो अमेरिकी सेनाएं वहां से शांति एवं स्थिरता सुनिश्चित किए बिना चलती बनी?

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चुनौतियों से निपटना जरूरी है

केंद्रीय मंत्रिपरिषद मंत्रिमंडल से किसी को बाहर निकाला गया तो किसी को शामिल किया गया और परिणामतः केंद्रीय मंत्रिपरिषद में शामिल नवनियुक्त मंत्रियों ने अपना कामकाज संभाल लिया। इस बारे में कुछ भी कहा जाये लेकिन सभी मंत्रियों के सामने चुनौतियां लगभग एक जैसी हैं और स्मरणीय यह रहे कि कम समय में ज्यादा काम करने की आवश्यकता सभी को है क्योंकि देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ-साथ देश की जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की चुनौती भी है।
देश कोरोना सहित अन्य कई समस्याओं का सामना कर रहा है ऐसे में उम्मीद की जाती है कि सभी मंत्री अपने समक्ष उपस्थित चुनौतियों का सामना बेहतर ढंग से करेंगे। कोरोना के कारण स्वास्थ्य सेवायें चरमराती दिखीं यह किसी से छुपा नहीं है। कोरोना की अगली लहर आने की सम्भावना पहले से ही जतायी जा रही है ऐसे में यह सबसे अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है कि अगली लहर में स्वास्थ्य सेवायें ठीक रहें, इस ओर स्वास्थ्य मन्त्री को कुछ बेहतर योजना तैयार करने की आवश्यता है।
वहीं इन दिनों सोशल प्लेटफाॅर्मों की मनमानी रोकने के लिये नियमावली लागू करने पर भी हो हल्ला मचा हुआ है और ट्विटर, फेसबुक जैसे डिजिटल प्लेटफाॅर्मों से निपटना भी प्रौद्यौगिकी क्षेत्र की एक गभीर चुनौती है। समय समय पर ट्विटर की हिटलरशाही भी सामने आ रही है, माननीय कोर्ट भी इस बारे में नसीहत पर नसीहत दे रहा है।

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शर्मसार होता दिखा गणतंत्र दिवस

भारत देश अपने गणतंत्र होने की 72वीं वर्षगांठ मना रहा है तो इसी मौके पर भारत का किसान अपने हक की लड़ाई लड़ता दिख रहा है। यह सदैव स्मरणीय रहना चाहिये कि भारत के संविधान निर्माताओं, ब्रिटिश हुकूमत से मोर्चा लेने वाले स्वतंत्रता सेनानियों व अनेकानेक क्रांतिकारियों ने देश के लिए जो सपने देखे थे उनकी पूर्ति करने का कार्य फलीभूत इसी दिन हुआ था, जिसमें देश के सभी वर्गो के लोगों की सुख-सुविधाओं और भावनाओं को संरक्षित करने की नीति-नियमावली बनाई गई थी। भारत को कल्याणकारी लोकतांत्रिक व्यवस्था वाला देश घोषित किया गया था। नतीजा यह हुआ कि इस अवधि में आम आदमी का जीवन स्तर ऊंचा हुआ है, सुख-सुविधा के साधन बढ़े, जीवन दर में सुधार हुआ, आम देशवासियों का जीवन स्तर सुधरा है लेकिन हमारे लिए जितनी यह गौरव की बात है उतनी ही इन दिनों चिंता की बात भी दिख रही है। क्योंकि देश का किसान इन दिनों आन्दोलनरत है और उसे इस हद तक मजबूर किया गया जिससे कि हमारा गणतंत्र दिवस इस बार शर्मसार होता दिखा है।
रातनीति के खिलाड़ियों ने देश में ऐसे हालात पनपा दिये जिसने यह सवाल करने पर मजबूर कर दिया कि इस लोकतांत्रिक प्रणाली में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाल देश के किसान क्या संतुष्ट नहीं हैं? अगर संतुष्ट नहीं हैं तो इसका कारण क्या रहा है, और इसका मुख्य कारण क्या है?

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