ऐसा महौल बनता सा जा रहा है कि भारतीय समाज हिंसक एवं असभ्य होता जा रहा है। सुर्खियों पर अगर विचार करें तो ऐसा महसूस हो रहा है कि एक ऐसा हिंसक समाज बन रहा है, जिसमें कुछ लोगों को दिन भर में जब तक किसी ना किसी तरह का अपराध कारित कर देते है तब तक उन्हें बेचैनी-सी रहती है। हालांकि ऐसे कृत्य कोई नये नहीं हैं। इतिहास में ऐसे कुछ विकृत दिमागी लोग हुए हैं, जिन्हें यातना देकर या परेशान करके किसी को मारने में आनंद आता था। उन्हें एक अलग तरह की अनुभूति हो थी, लेकिन आधुनिक सभ्य समाजों में ऐसी प्रवृत्ति का कायम रहना गहन चिन्ता का विषय है। यह समझना मुश्किल होता जा रहा है कि शिक्षा का स्तर आधुनिक होने के बावजूद वर्तमान के लोगों में असहिष्णुता, असहनशीलता और हिंसा की प्रवृत्ति इतनी कैसे बढ़ रही है कि जिन मामलों में उन्हें कानून की मदद लेनी चाहिए, उनका निपटारा भी वे खुद करने लगते हैं और कानून हांथ में ले रहे हैं।
ऐसा माना जाता है कि व्यक्ति का चरित्र देश का चरित्र है। जब चरित्र ही बुराइयों की सीढ़ियां चढ़ने लग जाये तो भला कौन निष्ठा के साथ देश का चरित्र गढ़ सकता है और लोक तंत्र के आदर्शों की ऊंचाइयां सुरक्षित कैसे रह सकती हैं? सवाल यह भी उठता है कि जिस देश की जीवनशैली हिंसाप्रधान होती है, उनकी दृष्टि में हिंसा ही हर समस्या का समाधान है ? अनेक उदाहरण सामने आ चुके हैं और लोगों ने मामूली बात पर या कहा-सुनी होने पर खुद इंसाफ करने की नीयत से कानून को अपने हांथ में ले लिया और किसी की हत्या करके अफसोस की बजाय कई लोग गर्व का अनुभव करते दिखे हैं। ऐसा देखने को मिला है कि मानो किसी की जान ले लेना अब खेल जैसा होता गया है।
सम्पादकीय
सेनाओं को हटाने का निर्णय
गोगरा-हॉट स्प्रिंग्स पीपी-15 के क्षेत्र में भारत और चीन का सेना हटाने का निर्णय बहुत अच्छा है। किंतु इसका ईमानदारी से पालन किया जाना चाहिए, क्योंकि चीन की ओर से ऐसा होता नहीं है। उस पर आंख बन्द करके भरोसा नहीं किया जाना चाहिये। चीन अपनी बात पर प्रायः टिकता नहीं है। वह एक जगह समस्या खत्म करता है। दूसरी जगह नया मोर्चा शुरू कर देता है। इसी लिये कहा जाता है कि चीन हमेशा अपनी कला दिखाने से बाज नहीं आता है। हालांकि सुर्खियों की मानें तो लद्दाख सीमा से अच्छी खबर है और गोगरा-हॉट स्प्रिंग्स पीपी-15 के क्षेत्र में भारतीय और चीनी सैनिकों ने समन्वित और नियोजित तरीके से पीछे हटना शुरू कर दिया है। भारत-चीन की ओर से संयुक्त बयान में ये जानकारी दी गई। रक्षा मंत्रालय ने बताया कि भारत-चीन कोर कमांडर स्तर की बैठक के 16वें दौर में बनी आम सहमति के अनुसार, गोगरा-हॉटस्प्रिंग्स के क्षेत्र में भारतीय सैनिकों और चीनी सैनिकों ने समन्वित व नियोजित तरीके से पीछे हटना शुरू कर दिया है। यह एक सुखद संकेत है और इससे सीमावर्ती क्षेत्रों में शांतिपूर्ण माहौल बनाने में सहायता मिलेगी।
वहीं सेना के पीछे हटने के बारे में बताया कुछ भी जा रहा हो किंतु सच्चाई यह है कि चीन सेना हटाने को लेकर इसलिए सहमत हुआ क्योंकि 15-16 सितंबर को उज्बेकिस्तान में शंघाई सहयोग संगठन का वार्षिक शिखर सम्मेलन है। सम्मेलन में भारत के प्रधानमंत्री और चीनी राष्ट्रपति शामिल होंगे। शायद चीन को ऐसा महसूस हुआ होगा कि इस तनावपूर्ण माहौल में बैठक की कामयाबी की उम्मीद नही की जा सकती। वहीं यदि उज्बेकिस्तान में यह बैठक न होती तो चीन शायद कभी भी अपनी हरकत से बाज न आता। उसकी सेनाएं कतई पीछे नहीं हटायीं जातीं! क्यों ऐसा ही नजारा डोकलाम विवाद के समय हुआ था। तीन माह से भारत और चीन की सेना यहां आमने-सामने थीं। चीन यहां सड़क बनाने पर अड़ा था और भारत को इस पर कड़ी आपत्ति थी।
मदद का दुरुपयोग
पूरी दुनियां यह जानती है कि आतंकवादी गतिविधियों का सबसे बड़ा कारखाना भारत का पड़ोसी पाकिस्तान है। यह बात जानने के बावजूद अमेरिका वर्षों से पाकिस्तान को हथियार और अरबों डॉलर की मदद करता चला आ रहा है। इसमें कतई दो राय नहीं कि अमेरिका को यह सब पता नहीं। अमेरिका यह सब कुछ जानता था कि इस मदद का इस्तेमाल पाकिस्तान, भारत के खिलाफ कर रहा है फिर भी अमेरिका अपने रणनीतिक हितों की पूर्ति के लिए वह सब कुछ करता रहा जो नहीं करना चाहिये था और आतंकी देश की पहचान बना चुके पाकिस्तान को मदद देता रहा है। हालांकि पाकिस्तान की नकेल कसने की शुरुआत बराक ओबामा ने की थी लेकिन जब डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति बने तो उन्होंने सबसे बड़ा कदम उठाते हुए अमेरिकी जनता की मेहनत की कमाई को पाकिस्तान पर लुटाना बंद कर दिया था। परिणाम यह हुआ कि पाकिस्तान अब पूरी तरह चीन की गोद में बैठ गया है। चीन ने मदद भी की लेकिन अब चीन ने पाकिस्तान को झिड़कना शुरू किया तो पाकिस्तान को फिर से अमेरिका की याद आई। उसने फिर अमेरिका की शरण ले ली।
Read More »क्या भ्रष्टाचार अब रुक जायेगा?
रविवार को नोएडा स्थित ट्विन टावर माननीस सर्वाेच्च न्यायालय के आदेश पर ध्वस्त कर दिये गए। अब इन बहुमंजिला इमारतों की जगह मलबा ही बचा है। लेकिन इसी बीच एक सवाल अवश्य उठता है कि क्या भ्रष्टाचार अब रुक जायेगा ? देश की जड़ तक में समा चुका भ्रष्टाचार क्या अब नहीं किया जायेगा? सवाल यह भी उठता है कि जिस देश में संसाधनों की कमी है, क्या ऐसे में इन टावरों का अधिगृहण कर मूलभूत सुविधाओं के लिए नहीं किया जा सकता था?
इन टावरों को एपेक्स और सेयेन नामक सुपरटेक बिल्डर ने बनाया था। इस दौरान आरोप लगे कि टावरों को बनाने में नियमों का उल्लंघन किया गया। बताते चलें कि ये देश में गिराई जाने वाली सबसे बड़ी बहुमंजिला इमारतें थीं और भारतीय राजधानी में स्थित सबसे ऊंचे कुतुब मीनार से भी ऊंचीं थीं। हालांकि ये टावर यूं ही नहीं ध्वस्त कर दिये गये इनको गिराने का फ़ैसला क़ानूनी लड़ाई जो कई वर्षों तक चली, उसके बाद लिया गया था। यह लड़़ाई इलाहाबाद उच्च न्यायालय से शुरू हुई थी और माननीय सुप्रीम कोर्ट में खत्म हुई।
अतीत पर अगर नजर डालें तो इन टावरों के निर्माण की कहानी वर्ष 2004 से शुरू होती है। न्यू ओखला औद्योगिक विकास प्राधिकरण ने औद्योगिक शहर बनाने की योजना के तहत एक आवासीय क्षेत्र बनाने के लिए सुपरटेक नामक कंपनी को यह जगह आवंटित की थी। वर्ष 2005 में, नोएडा बिल्डिंग कोड, दिशा निर्देश 1986 के अनुसार सुपरटेक ने प्रत्येक 10 मंजिल वाले 14 फ्लैटों की योजना तैयार की। न्यू ओखला औद्योगिक विकास प्राधिकरण ने 10 मंजिलों वाले 14 अपार्टमेंट भवनों के निर्माण की अनुमति दी, साथ ही यह भी प्रतिबंध लगाया गया था कि ऊंचाई 37 मीटर से अधिक नहीं होनी चाहिए और इस साइट पर 14 अपार्टमेंट और एक वाणिज्यिक परिसर के साथ एक गार्डन विकसित किया जाना था। वर्ष 2006 में कंपनी को निर्माण के लिए पुरानी शर्तों पर अतिरिक्त ज़मीन दी गई। सुपरटेक ने नई योजना बनाई। इसमें बिना गार्डन के दो और 10 मंजिल भवन बनाए जाने थे। अंत में वर्ष 2009 में 40 मंजिलों के साथ दो अपार्टमेंट टावर बनाने के लिए अंतिम योजना तैयार की गई। इस दौरान वर्ष 2011 में रेजिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन की ओर से इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की गई। याचिका में आरोप लगाया गया कि इन टावरों के निर्माण के दौरान उत्तर प्रदेश अपार्टमेंट मालिक अधिनियम, 2010 का उल्लंघन किया गया है। इसके मुताबिक केवल 16 मीटर की दूरी पर स्थित दो टावरों ने कानून का उल्लंघन किया था। साथ ही कहा गया कि इन टावरों को बगीचे के लिए आवंटित भूमि पर अवैध रूप से खड़ा किया गया।
कर्त्तव्य का बोध
प्रधानमंत्री मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर दिए गए राष्ट्र को उद्बोधन में नागरिक कर्तव्य का जिक्र करते हुए इसे पांचवीं प्राणशक्ति बताया गया और शासक, प्रशासक, पुलिस हो या पीपुल, सबको अपने-अपने कर्तव्य निभाने चाहिए। सही बात भी है कि सभी को अपने अपने कर्त्तव्य निभाने चाहिये, देशहित में सभी को इसके प्रति निष्ठावान भी होना चाहिये क्यों कि बगैर नागरिक कर्तव्य के कोई भी देश पूर्ण रूप से उन्नति नहीं कर सकता है। अब ऐसे में कर्तव्य निभाने का पहला और मूल सवाल तो आम नागरिकों के के सिर पर मढ़ दिया जा चुका है किन्तु इसी तरह का सवाल संसद-विधानसभाओं में कीमती वक्त और लोगों की गाढ़ी कमाई को शोर-शराबे और धरने-प्रदर्शन में बर्बाद करने पर भी प्रधानमन्त्री जी को बोलना चाहिये था जिस पर उन्होंने कुछ भी नहीं कहा। ऐसे में तो ‘ पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ वाली कहावत चरित्रार्थ हो रही है क्योंकि क्या सरकारी कार्मिक वेतन और सुविधाओं के बदले में ईमानदारी से अपनी ड्यूटी को अंजाम दे रहे हैं। इसी तरह क्या जनप्रतिनिधि भी जनता की गाढ़ी कमाई से वेतन व सुविधाएं तो ले रहे हैं लेकिन इसके ऐवज में जनप्रतिनिधि क्या अपना फर्ज अदा कर रहे हैं? इस पर प्रधानमन्त्री जी कुछ नहीं बोले क्यों ?
इसके कतई दो राय नहीं और कटु सत्य व सर्वविदित है कि जनप्रतिधियों ने सर्वाेच्च संवैधानिक संस्थाओं को पैतरेबाजी का अखाड़ा बना दिया है। देश के लोकतंत्र को शर्मसार करने की अनेक घटनाएं इसकी गवाह हैं और सदन में सत्र के दौरान कामकाज में बाधा डालने के अलावा मारपीट, कपड़े फाडऩे, एक-दूसरे पर माइक और कुर्सियों से हमला करने के मामले ज्यादा पुराने नहीं हैं और शायद हर एक को याद भी होगा।
ऐसे में यही उचित रहता कि प्रधानमन्त्री मोदी जी, आम लोगों को नसीहत देने की बजाय आम लोगों की बदौलत ऐश-आराम करने वाले नेताओं और कार्मिकों से कर्तव्य निभाने की बात करते। देश को नेता व उच्चपदों पर बैठे अधिकारी खोखला कर रहे हैं और अनेक नेताओं व अधिकारियों के बंगलों व घरों से बरामद हुई नकदी व जेवरात इसके उदाहरण हैं। खास बात यह है कि देश को लूट कर खाने वाले ऐसे नेताओं-अफसरों के खिलाफ देशद्र्रोह का मुकदमा चलाने के बजाय विरोधी दल ही एकजुट होकर उसके बचाव में उतर आते हैं। इतना ही नहीं उसी के बचाव में धरने-प्रदर्शन तक की करने में गुरेज नहीं रहता।
आजादी की वर्षगाँठ से अमृत महोत्सव को जोड़ना कितना उचित ?
आजादी की 75वीं वर्षगाँठ पर अमृत महोत्सव पूरे जोर शोर से मनाने पर जोर दिया जा रहा है। आम हो खास हर व्यक्ति इस महोत्सव का भागीदार बनाया जा रहा है। लेकिन सवाल यह उठता है कि हम अमृत महोत्सव के बारे में कितना जानते हैं ? इस महोत्सव को क्यों मना रहे हैं ?
बताते चलें कि ‘‘अटल कायाकल्प और शहरी परिवर्तन मिशन योजना’’ AMRUT: Atal mission for rejuvenation and transformation scheme (A-Atal, M-mission, R-rejuvenation, U-urban, T-transformation ) की शुरूआत देश के शहरों व कस्बाई इलाकों के विकास के लिए केंद्र सरकार ने वर्ष 2015 में की थी। इस योजना का उद्देश्य प्रत्येक घर को पाइप लाइन द्वारा जलापूर्ति एवं सीवर कनेक्शन उपलब्ध कराना था। इसके अतिरिक्त योजनांतर्गत हरियाली विकसित करना तथा पार्कों का सौंदर्यीकरण भी शामिल था ताकि नागरिकों का स्वास्थ्य और शहर का सौंदर्यीकरण बेहतर से बेहतर हो सके।
अमृत योजना में शामिल होने पर शहरों का कायाकल्प करने की बात कही गई थी और कहा गया था कि शहरों की सड़कों का रखरखाव हो सकेगा, सीवर सिस्टम तथा सामुदायिक शौचालय पर काम किया जाएगा।
बताया गया था कि इस योजना के अंतर्गत केंद्र सरकार छोटे शहरों व कस्बों को या फिर शहरों के कुछ अनुभागों को चुनेगी और वहां पर बुनियादी सुविधाएं स्थापित करेगी। इस ड्रीम प्रोजेक्ट के लिये करोड़ों रुपए का आवंटन किया गया था।
प्रेस की घटती आजादी
अभी हाल ही जारी किये गये प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक पर अगर नजर डालें तो भारत में पत्रकारों की आजादी दिनोंदिन घटती जा रही है। जो कि किसी भी नजरिये देश की लोकतांत्रिक प्रणाली के लिये शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता है। अनेक मामलों के दृष्टिगत ऐसा माना गया है कि भारत में पत्रकारों की आजादी लगातार घटती जा रही है और यहां उन्हें समाचार संकलन के दौरान कई बड़ों खतरों से गुजरना पड़ता है। यही कारण है मंगलवार को जारी किए गए रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स के वार्षिक विश्लेषण के अनुसार भारत को विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक-2022 में 180 देशों में से आठ स्थानों की गिरावट के साथ 150वां स्थान दिया गया है जबकि पिछले साल भारत को 142वां स्थान मिला था और उसे पत्रकारिता के लिए सबसे बुरे देशों में शामिल किया गया था। लेकिन वर्तमान में जो आंकड़ा सामने आया है वह बेहद विचारणीय और चिन्तनीय है। वहीं नार्वे की बात करें तो प्रेस की स्वतंत्रता में शीर्ष स्थान बरकरार रखा है। पत्रकारिता के लिहाज से यह देश सबसे सुरक्षित माना गया है। इसके बाद डेनमार्क को दूसरा, स्वीडन को तीसरा, इस्टोनिया को चौथा, फिनलैंड को पांचवां, आयरलैंड को छठा, पुर्तगाल को सातवां, कोस्टा रिका को आठवां, लुथियाना को नौवा और लिकटेंस्टाइन को दसवां स्थान दिया गया है। ऐसा माना जाता है कि इन देशों में पत्रकारिता करना बेहद आसान है। वहीं पत्रकारों के लिए सबसे खतरनाक देश उत्तरी कोरिया माना गया है और सूचकांक में इसे 180वां स्थान मिला है। इसके बाद पत्रकारों के लिए सबसे खतरनाक देशों में इरिट्रिया, ईरान, तुर्कमेनिस्तान, म्यांमार, चीन, वियतनाम, क्यूबा, इराक और फिर सीरिया का नंबर आता है। यहां पर स्वतंत्र पत्रकारिता करना बहुत मुश्किल व जोखिमभरा है।
अतिक्रमण पर विराम कब?
चाहे देश की राजधानी हो या देश के अन्य राज्यों के महानगर अथवा कस्बाई क्षेत्र, यहां पर सरकारी जमीनों पर अवैध कब्जे बढ़ते चले आये हैं और नतीजा यह हुआ है कि अतिक्रमण एक राष्ट्रव्यापी समस्या बन चुका है। वहीं राजनीतिक फायदों को देखते हुए समय समय पर कई शहरों में तो सरकारी जमीनों पर कब्जे के चलते बसी अवैध बस्तियों को नियमित करने का भी सिलसिला चल निकला है। यह कहना कतई गलत नहीं कि नियमितीकरण की नीति के चलते अनेक शहरों में झुग्गी माफिया पैदा हो गये हैं, जो भ्रष्ट नेताओं और नौकरशाहों से मिलकर अवैध कब्जे करवाते रहते हैं। ऐसी परिस्थितियों के चलते यह सवाल उठना लाजिमी है आखिरकार अतिक्रमण अथवा अवैध कब्जों पर विराम कब?
Read More »पेट्रोल, डीजल व रसोई गैस की कीमतों में लगातार वृद्धि के लिये केन्द्र सरकार ही नहीं बल्कि राज्य सरकारें भी हैं जिम्मेदार
खाने-पीने की चीजों से लेकर जिस तरह पेट्रोल, डीजल व रसोई गैस की कीमतों में बढ़ोत्तरी हो रही है, वह चिंता की एक बड़ी वजह है। इसके लिये कहीं न कहीं केंद्र और राज्य सरकारों का मुनाफाखोर आचरण पूरी तरह से जिम्मेदार है। पांच राज्यों में सम्पन्न हुए चुनावी दौरान पेट्रोल-डीजल की कीमतों में कोई बढ़ोत्तरी ना करने के पीछे मतदाताओं की नाराजगी से बचने हेतु एक मजबूरी थी और जैसे ही नतीजे आ गये, मतलब निकला तो मंशा उजागर हुई और परिणामतः पेट्रोलियम पदार्थाे में लगभग हर रोज बढ़ोत्तरी जारी है।
इसमें कतई दो राय नहीं कि पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ने का सीधा असर महंगाई पर पड़ता है और गरीब तबके व हाशिये पर मौजूद तबके के लिए ज्यादा मुश्किलें बढ़ती जातीं हैं। वर्तमान में देश में पेट्रोल, डीजल की कीमतें रोजाना बदलना व बढ़ना शुरू हो गई हैं। जो निरन्तर जारी रहने की उम्मीद है। वहीं पिछले वर्षाे की बात करें तो पूरी दुनियाँ में कोविड-19 महामारी के चलते क्रूड की कीमतें नीचे आई थीं लेकिन भारत में ईंधन के दाम कम नहीं किये गये थे।
केन्द्र सरकार एक तरफ तो बड़े उद्योगों व नौकरीपेशा के हित के लिए समय-समय पर राहत के पैकेज घोषित किया करती है लेकिन जिस पेट्रोल और डीजल की कीमतों की बढ़ोत्तरी के चलते समूची अर्थव्यवस्था प्राथमिक स्तर से ही प्रभावित होना शुरू हो जाती हैं उनके बारे में वह बेहद असंवेदनशीलता का परिचय दे रही है। इस असंवेदनशीलता का शिकार हर वर्ग हो रहा है लेकिन मध्यमवर्गीय तबका सबसे ज्यादा हुआ है और हो रहा है ?
सतर्कता जरूरी है
कोरोना वायरस का कहर तो सभी ने देखा है और लापरवाही का नतीजा भी देखा गया, लेकिन कोरोना के बदले हुए रूप ‘ओमिक्रोन’ का खतरा भी दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। देखते ही देखते ओमिक्रोन के संक्रमण से ग्रस्त मरीजों की संख्या बढ़ती जा रही है। सुर्खियों की मानें तो ओमिक्रोन का संक्रमण 16 राज्यों तक पहुंच गया है और यह वायरस जिस तेजी से लोगों को संक्रमित कर रहा है। नेताओं की रैलियों व अन्य कार्यक्रमों पर इकट्ठी की जा रही भीड़ को देखते हुए इसकी आशंका बढ़ गई है कि आने वाले दिनों में इसके मरीजों की संख्या तेजी से बढ़ेगी। ऐसे में भारत को अन्य देशों की अपेक्षा कहीं अधिक सतर्क रहना होगा। चूंकि उप्र सहित 5 राज्यों में विधान सभा चुनाव होने हैं और राजनीतिक दलों द्वारा अपनी अपनी रैलियों में अधिक से अधिक भीड़ जुटाने का प्रयास रहेगा, लेकिन इस दौरान संक्रमण से बचाव हेतु समुचित उपाय एवं गाइडलाइन का पालन करने पर ध्यान कतई नहीं देखने को मिल रहा है, ऐसे में वायरस से संक्रमण बढ़ने का खतरा हर पल बना हुआ है।
कोरोना वायरस के बदले स्वरूप से बचाव हेतु केंद्र सरकार व सभी राज्य सरकारों को नए सिरे से सावधानी बरतने की जरूरत इसलिए भी है, क्योंकि देश के कुछ हिस्सों में कोरोना वायरस से संक्रमित मरीजों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसका कारण राजनैतिक दलों की रैलियों को ज्यादा ठहराया जा सकता है। वहीं रात्रिकालीन कर्फ्य पर जोर दिया जा रहा है जो कि नाकाफी कहा जा सकता है अगर संक्रमण से बचाव के ठोस कदम उठाने की बात कही जाये तो नेताओं की रैलियों में जुट रही भीड़ को रोकने की जरूरत है या यूं कहें कि नेताओं की रैलियों पर ही रोक लगा दी जाये। लेकिन दुर्भाग्य है कि छोटे-छोटे कार्यक्रमों के लिये नियम कायदे पालन करने पर जोर है और जहां अथाह भीड़ उमढ़ रही है वहां के लिये कोई भी ठोस नीति नहीं अपनाई जा रही है।