Tuesday, April 22, 2025
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लेख/विचार

हिन्दुस्तान की आवश्यकता एक देश एक संविधान

26 जनवरी देश का गणतंत्र दिवस इस दिन अपने देश में अपना संविधान लागू हुआ था। इससे पूर्व हम अपनी व्यवस्थाओं को ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा स्थापित संविधान के अनुसार संचालित करते थे। जिसके लिए हमने ईस्ट इंडिया कंपनी के एक मुलाजिम माउंटबेटन को वर्षों तक किराये पर रखा हुआ था ताकि वह हमारा संविधान बनने तक हमें देश को चलाने का तरीका बताता रहे।
भारतीय संविधान को लिखने के लिए एक संविधान सभा का गठन किया गया था। भारतीय संविधान को तैयार करने में 2 वर्ष 11 महिने 18 दिन का समय लगा। जो 26 नवम्बर 1949 तक पूरा हुआ और 26 जनवरी 1950 भारत गणराज्य का यह संविधान देश में लागू हो गया।
भारतीय संविधान अन्य देशों की तुलना में दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। मूल रूप से भारतीय संविधान में कुल 395 अनुच्छेद 22 भागों में विभाजित और जिसमें 8 अनुसूचियां थी। किन्तु विभिन्न संसोधनों के परिणाम स्वरूप वर्तमान में इसमें कुल 448 अनुच्छेद 25 भागों में विभाजित है और 12 अनुसूचियां है। संविधान के तीसरे भाग में मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है।
भारतीय संविधान के कई हिस्से युनाइटेड किंगडम, अमेरिका, जर्मनी, आयरलैंड, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और जापान के संविधानों से लिए गये। भारतीय संविधान में देश के नागरिकों के मौलिक अधिकारों, कर्तव्यों, सरकार की भूमिका, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, राज्यपाल और मुख्यमंत्रीयों की शक्ति का वर्णन किया गया है। संविधान में विधानपालिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का कार्यो का उल्लेख किया गया है।
भारतीय संविधान की मूल प्रति 16 इंच चैड़ी 22 इंच लम्बे चर्मपत्र शीटों एवं 225 पृष्ठों पर लिखी गई है। संविधान की असली कॉपी प्रेम बिहारी नारायण राजजादा द्वारा हाथों से लिखी गयी। इसके प्रत्येक पन्नें को शान्ति निकेतन के कलाकारों द्वारा सजाया गया है।

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बालिकाओं की सुरक्षा है हर व्यक्ति की जिम्मेदारी

देश की बालिकाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने तथा समाज में बालिकाओं के साथ होने वाले भेदभाव के बारे में बालिकाओं के साथ-साथ समस्त देशवासियों को भी जागरूक करने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 24 जनवरी को ‘राष्ट्रीय बालिका दिवस’ मनाया जाता है। परिवारों में बेटा-बेटी के बीच भेदभाव और बेटियों के साथ परिवार में प्रायः होने वाले अत्याचारों के खिलाफ समाज को जागरूक करने के लिए देश की आजादी के बाद से ही प्रयास होते रहे हैं। हालांकि एक समय ऐसा था, जब अधिसंख्य परिवारों में बेटी को परिवार पर बोझ समझा जाता था और इसीलिए बहुत सी जगहों पर तो बेटियों को जन्म लेने से पहले ही कोख में ही मार दिया जाता था। यही कारण था कि बहुत लंबे अरसे तक लिंगानुपात बुरी तरह गड़बड़ाया रहा। यदि बेटी का जन्म हो भी जाता था तो उसका बाल विवाह कराकर उसकी जिम्मेदारी से मुक्ति पाने की सोच समाज में समायी थी। आजादी के बाद से बेटियों के प्रति समाज की इस सोच को बदलने और बेटियों को आत्मनिर्भर बनाकर देश के प्रथम पायदान पर लाने के लिए अनेक योजनाएं बनाई गई और कानून लागू किए गए। उसी का नतीजा है कि अब बालिकाएं भी हर क्षेत्र में बेटों के साथ कंधे से कंधे मिलाकर राष्ट्र के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं। आज लगभग हर क्षेत्र में बालिकाओं की भी हिस्सेदारी है और अब तो वे सेना में भी अपना पराक्रम दिखा रही हैं।
बालिका शिक्षा के महत्व, उनके स्वास्थ्य तथा पोषण के बारे में जागरूकता फैलाने और बालिका अधिकारों के बारे में समाज को जागरूक बनाने के लिए वर्ष 2008 में बाल विकास मंत्रालय द्वारा हर साल 24 जनवरी को राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाए जाने का निर्णय लिया गया था और पहली बार साल 24 जनवरी 2009 को देश में राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाया गया। 24 जनवरी को ही यह दिवस मनाए जाने की शुरूआत के पीछे प्रमुख कारण यही था कि वर्ष 1966 में इसी दिन आयरन लेडी के रूप में विश्वविख्यात हुई इंदिरा गांधी भारत की पहली प्रधानमंत्री बनी थी। इस दिवस को मनाने का उद्देश्य भारत की बालिकाओं को सहायता और अवसर प्रदान करते हुए उनके सशक्तिकरण के लिए उचित प्रयास करना है। बालिकाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिए आजादी के बाद से ही सरकारों ने निरन्तर कदम उठाए हैं। समाज में लड़का-लड़की के भेदभाव को खत्म करने के उद्देश्य से ही बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, लड़कियों के लिए मुफ्त अथवा रियायती शिक्षा, कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों में महिलाओं के लिए आरक्षण जैसे अनेक अभियान और कार्यक्रम शुरू किए गए। ऐसे ही प्रयासों का नतीजा है कि आज लगभग हर क्षेत्र में बालिकाओं को बराबर का हक दिया जाता है लेकिन फिर भी समाज में उनकी सुरक्षा के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है।

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जोशीमठ : प्रकृति के साथ खिलवाड़ या प्रशासन की लापरवाही ?

जोशीमठ (उत्तराखंड) में पड़ती दरारें और बहता हुआ पानी लोगों में दहशत और लोगों का जनजीवन असामान्य बना रहा है। क्या ये मंजर लोगों द्वारा प्रकृति के साथ किये खिलवाड़ का नतीजा है या प्रशासन की लापरवाही का नतीजा है। 1976 में एक अट्ठारह सदस्यीय कमेटी ने जब इस क्षेत्र को संवेदनशील घोषित कर दिया था और निर्माण कार्यों पर प्रतिबंध, पेड़ों को काटने पर रोक और बारिश के पानी के निकासी की व्यवस्था की बात रखी थी तब इस बात को सरकार द्वारा गंभीरता से नहीं लिया गया था और आज लोग इस गल्ती का खामियाजा भुगत रहे हैं। इस कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि जोशीमठ बालू और पत्थर के ढेर पर बसा हुआ है, इस दृष्टि से यह किसी टाउनशिप के लिए उपयुक्त नहीं है। धमाकों और भारी यातायात से उत्पन्न होने वाले कंपन यहां पर प्राकृतिक असंतुलन पैदा करेंगे। भारी निर्माण कार्य की अनुमति केवल मिट्टी का भार वहन करने की क्षमता के दृष्टिगत ही दी जानी चाहिए। सड़कों की मरम्मत या अन्य किसी प्रकार के निर्माण कार्य किसी भी स्थिति में पहाड़ों को खोदकर अन्यथा विस्फोट करके नहीं किये जाने चाहिए। भूस्खलन प्रभावित इलाकों में पत्थरों और बड़े शिलाखंडों को पहाड़ी की तलहटी से नहीं हटाया जाना चाहिए क्योंकि इससे पहाड़ को मिलने वाली मजबूती खत्म होती है। 47 बरस पहले की इस रिपोर्ट को सरकार ने गंभीरता से नहीं लिया और आज जोशीमठ पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं।

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चिंताजनक स्तर तक बढ़ती अमीरी-गरीबी की खाई

दुनियाभर में अमीरी और गरीबी के बीच खाई निरन्तर बढ़ती जा रही है, जो कोरोना काल के बीच और तेजी से बढ़ी है। इसी बढ़ती खाई को लेकर पूरी दुनिया में एक नई बहस छिड़ी है। गरीबी उन्मूलन के लिए कार्यरत संस्था ऑक्सफैम इंटरनेशनल की वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की बैठक से ठीक पहले आई रिपोर्ट ‘सर्वाइवल ऑफ द रिचेस्ट : द इंडिया स्टोरी’ में इसे लेकर कई चौंका देने वाले खुलासे किए गए हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत के 21 सबसे अमीर अरबपतियों के पास इस समय देश के 70 करोड़ लोगों से भी ज्यादा धन-दौलत है और वर्ष 2021 में भारत की कुल संपत्ति में से 62 फीसदी हिस्से पर देश के केवल 5 प्रतिशत लोगों का ही कब्जा था जबकि भारत की निचले तबके की बहुत बड़ी आबादी का देश की केवल तीन फीसदी सम्पत्ति पर ही कब्जा रहा। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 2020 में अरबपतियों की संख्या 102 थी, जो 2022 में 166 पर पहुंच गई पिछले साल नवम्बर तक भारतीय अरबपतियों की सम्पत्ति में 121 फीसदी तक बढ़ोतरी देखी गई। एक ओर जहां आम आदमी कोरोना महामारी के दौर में पेट भरने का जुगाड़ करने के लिए संसाधन जुटाने को तरसता रहा, नौकरी संबंधी समस्याओं का सामना करता रहा, वहीं उस दौर में भी भारत के अरबपतियों की दौलत में प्रतिदिन 3608 करोड़ रुपये प्रतिदिन बढ़े।
ऑक्सफैम की इस रिपोर्ट में पिछले दस वर्षों में देश में पैदा हुई सम्पत्ति के गैर-बराबर बंटवारे के मुद्दे को भी उठाते हुए कहा गया है कि 2012 से 2021 के बीच भारत में जितनी भी संपत्ति अस्तित्व में आई, उसका 40 प्रतिशत हिस्सा देश के सबसे अमीर एक फीसदी लोगों के हाथ में गया जबकि 50 फीसदी जनता के हाथ में केवल तीन फीसदी सम्पत्ति ही आई। रिपोर्ट के अनुसार भारत के 100 सबसे अमीर लोगों की सम्पत्ति 54.12 लाख करोड़ रुपये के पार जा चुकी है, जिससे 18 महीनों तक देश का पूरा बजट चलाया जा सकता है। यही कारण है कि सरकार को सलाह दी जाती रही है कि यदि भारतीय अरबपतियों की कुल सम्पत्ति पर महज दो फीसदी टैक्स ही लगा दिया जाए तो उसी से आगामी तीन वर्षों तक कुपोषण के शिकार बच्चों की सभी जरूरतों को बहुत आसानी से पूरा किया जा सकता है। 1980 के दशक की शुरूआत में एक फीसदी धनाढ़यों का देश की कुल आय के छह फीसदी हिस्से पर ही कब्जा था लेकिन बीते वर्षों में यह लगातार बढ़ता गया है और तेजी से बढ़ी आर्थिक असमानता के कारण स्थिति बिगड़ती गई है।

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गोशालाओं में गो-पालन किया जा रहा है या गो-मारण ??

निराश्रित/आवारा गोवंश किसानों के लिये एक जटिल समस्या बन गये थे और अभी भी बने हुए हैं क्योंकि किसानों की फसलों को नष्ट कर उनकी मेहनत की कमाई पर पानी फेर रहे हैं। अनकहे दर्द से किसान परेशान हैं। ऐसी परिस्थितियों को देखते हुये उप्र की योगी सरकार ने योजना तैयार की कि निराश्रित/आवारा गोवंशों (गायों/सांड़ों) से किसानों को छुटकारा दिलवाया जाये। इसी योजना के अनुरूप हर ग्राम पंचायत स्तर पर अथवा आवश्यकता के अनुसार गोशालाओं की स्थापनायें करना शुरू की गई। सूबे के ही जनपद में अनेक गोशालायें स्थाई अथवा अस्थाई रूप से निर्मित कर दी गईं और कुछ अभी निर्माणाधीन भी हैं।
अब कहा जा रहा है कि गोशालायें बन जाने से किसानों को निराश्रित/आवारा गोवंशों (गायों/सांड़ों) से छुटकारा मिल जायेगा!
ठीक बात है किसानों का दर्द समझा तो है उप्र की योगी सरकार ने, लेकिन इसी बीच सवाल यह भी उठता है कि ‘किसानों का दर्द’ तो सरकार की समझ मेें आ गया किन्तु क्या ‘निराश्रित गोवंशों का दर्द’, योगी सरकार समझ पा रही है अथवा नहीं ?
अब आप कहेंगे कि मैं यह क्यों लिख रहा हूं कि निराश्रित गोवंश किसी अनकहे दर्द से पीड़ित हैं तो स्पष्ट कर रहा हूं कि निराश्रित गोवंशों के ‘पेट की आग’ बुझाने की जो योजना या नीति निर्धारित है वह नाकाफी साबित हो रही है अथवा यूं कहें कि बिना सोंचे-विचारे तैयार की गई है। परिणामतः गोशालाओं में रखे गये गोवंश, भूख से तड़पने पर मजबूर हैं फिर नतीजा क्या होता होगा, इसकी कल्पना हर कोई कर सकता है…????
अनेक पशु पालकों ने बताया कि एक वयस्क पशु (गाय/भैंस) को औसतन 4-6 किलोग्राम सूखा चारा एवं 1-2 किलोग्राम दाना का मिश्रण जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक है। वहीं 1 किलोग्राम दाना मिश्रण प्रति 2.5 किलोग्राम, दूध उत्पादन के लिए निर्वहन आवश्यकता के अतिरिक्त देना चाहिए।

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लेट नाइट पार्टियाँ कितनी सुरक्षित ?

माना कि ज़िंदगी जश्न है, एक-एक पल को मस्ती से जीना चाहिए। पर मस्ती कहीं ज़िंदगी के उपर भारी न पड़ जाए इसलिए एक दायरा तय करते हर कदम बढ़ाना चाहिए। बिंदास जीवन का मतलब छिछोरापन हरगिज़ नहीं।
आजकल युवा लड़के-लड़कियां ज़िंदगी के मजे लेने के मूड़ में होते है। और अब तो बड़े शहरों के साथ छोटे शहरों के लड़के-लड़कियां भी पीछे नहीं। ऐसे में लेट नाइट पार्टी का क्रेज़ बहुत देखने को मिल रहा है। पर ऐसी पार्टियां कितनी सेफ़ है ये सोचे बगैर लड़कियां अपने ब्वॉयफ्रेंड के साथ निकल पड़ती है, जिसका परिणाम कभी-कभी ज़िंदगी बर्बाद कर देता है। ऐसी कई पार्टियों में शराब, सिगरेट, चरस, गांजा भी सरेआम परोसा जाता है। और हम सुनते भी हैं पढ़ते भी हैं कि ऐसी पार्टियों में लड़कियों के साथ जबरदस्ती भी होती है। लड़कियों को किसी भी अनजान लड़के पर भरोसा करके उसके हाथ से कोई भी खाने पीने की चीज़ का सेवन नहीं करना चाहिए।
लेटनाइट पार्टियों में युवाओं को एकदूसरे से खुल कर मिलने का मौका मिलता है। ऐसे में कई बार युवाओं के बहकने का खतरा भी होता है। यह उन पर भारी भी पड़ सकता है। जवानी का शुरुर ही ऐसा नशीला होता है। खासकर लड़कियों के लिए ऐसी पार्टियां खतरे से खाली नहीं होतीं। छेड़छाड़, बलात्कार और किडनैपिंग की संभावना भी नकारी नहीं जाती।
इसलिए जरूरत इस बात की है कि लेटनाइट पार्टी में लड़कियां ब्वॉयफ्रेंड के साथ समझदारी के साथ मौजमस्ती करें। पार्टी में मौजमस्ती बुरी नहीं होती पर मौजमस्ती किसी समस्या का कारण न बन जाए इस बात का ख़याल रखना जरूरी होता है और माँ-बाप का भी फ़र्ज़ बनता है कि अगर आपकी बेटी लेट नाइट पार्टी में जा रही है तो वहाँ के माहौल की जाँच पड़ताल कर लें, जगह कौन सी है, वहाँ का स्टाफ़ कैसा है और किसके साथ जा रही है। पब्स, होटल्स या कहीं भी हो शहर से बाहर ना हो इस बात का भी ध्यान रखें।

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प्यार, इश्क, मोहब्बत जैसे सुंदर एहसास अब हवस मिटाने का ज़रिया बन गया है

समय के चलते स्वतंत्रता को अपना नैतिक हक समझने वाली आजकल की पीढ़ी स्वच्छंदता का अंचला ओढ़े मनमानी कर रही है। या यूँ कहे कि, माँ-बाप के बनाए हुए दायरे को तोड़ कर आज़ाद ज़िंदगी जीने की होड़ में बर्बादी के पथ पर चल पड़ी है। खासकर लड़कियाँ अपने आप को बहुत एडवांस और होशियार समझते माँ-बाप के संस्कारों को निलाम करने पर तुली है। लड़कियों को जवानी के एक पड़ाव पर ठहरकर सोचने की जरूरत है कि वह क्या चाहती है। अपना लक्ष्य तय करते करियर बनाने की उम्र में प्रेम, प्यार के चक्कर में समय बर्बाद करते कहीं की नहीं रहती। एक उम्र के बाद जायज़ है शारीरिक विकास के साथ विपरीत सेक्स के प्रति आकर्षण होना; पर उस उन्माद को प्यार का नाम देकर मनचले लड़कों के हाथों की कठपुतली बनकर खुद के साथ-साथ माँ-बाप की इज़्जत की धज्जियां उड़ाने का हक आपको हरगिज़ नहीं। दर असल पारिवारिक संस्था की व्यवस्था ही डावाँडोल होने लगी है। पहले के ज़माने में घर में पिता का एक रुतबा हुआ करता था, जो परिवार के हर सदस्यों को अनुसाशन में रखता था। दिनभर कितने भी उछल कूद कर लेते थे शाम को पिता जी के ऑफ़िस से आने का वक्त होते ही बच्चें सावधान होकर एकदम शांत होकर अपने काम में व्यस्त हो जाते थे। डर कहो, या सम्मान कहो पर पिता का वो रोबिला अंदाज़ बच्चों को अनुसाशन में जरूर रखता था। आजकल तो माँ-बाप का कुछ भी कहना बच्चों को बंदीशें लादना और शोषण लगने लगता है। माँ-बाप भी अपने आप को खुले विचारों वाले आधुनिक समझते बेटियों को कुछ ज़्यादा ही छूट देने लगे है, जिसका कुछ ना समझ लड़कियाँ गलत फ़ायदा उठाते, मनमर्ज़ी करते ऐसे रास्ते पर चल पड़ती है जहाँ से उनकी लाशें ही वापस आती है। ऐसे किस्सों में कहीं पैसों की भूख, तो कहीं शारीरिक भूख ही मुख्य कारण होती है। वेब सीरिज़ों में लड़कियाँ जिस तरह बिंदास गालियाँ बक रही है, कपड़े उतारने लगी है क्या उसके परिवार वाले वो सब नहीं देखते होंगे? या पैसों के लिए सब नज़र अंदाज़ करते होंगे? बड़ी-बड़ी शादीशुदा हीरोइनें भी पैसों की ख़ातिर अंग प्रदर्शन करने से नहीं शर्माती। वही बिंदास अंदाज़ जब आम लड़की अपनाती है तब उसको लूटने वालों की दुनिया में कोई कमी नहीं है।
ज़िंदगी में कितना कुछ करने के लिए होता है, अपने भविष्य को सुरक्षित करने हेतु पढ़ लिखकर कुछ बनकर दिखाओ। अगर आप में कोई हुनर है तो उसे विकसित करो और आगे बढ़कर अपने माँ-बाप का नाम रोशन करो। लड़कियों संभल जाओ… खाने, खेलने और करियर बनाने की उम्र में शारीरिक आकर्षण को प्यार समझकर ऐसे लड़कों के बहकावे में आकर ज़िंदगी तबाह मत करो; जिनको प्यार, इश्क, मोहब्बत की परिभाषा ही पता नहीं।

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विरोध पाखंड का हो न कि रंगों का

आजकल पठान फ़िल्म सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय बनी हुई है। खासकर दीपिका के भगवा रंग के आउटफ़ीट को लेकर बवाल मचा हुआ है। सनातन हिन्दू धर्म में भगवा रंग को पवित्र माना जाता है, जो मंदिरों की ध्वजा से लेकर साधु संतों के द्वारा पहने जाने वाले कपड़ों का रंग होता है। इसका मतलब ये तो नहीं की केसरी रंग और कोई पहन ही नहीं सकता या किसी और चीज़ों के लिए उपयोग में नहीं लिया जाना चाहिए।
मुद्दा यहाँ दीपिका ने भगवा रंग पहनकर डांस किया उसका नहीं, मुद्दा ये है कि क्या हर भगवे रंग के भीतर बैठा इंसान पवित्र है? निर्माेही है? साफ़ दिल और असल में साधू संतों वाला जीवन जी रहा होता है?
हमने पुराणों में एक कथा सुनी है कि, सीता जी जब बारह साल की बालिका थे तब शिवजी का धनुष आराम से उठाकर खेला करते थे। वही धनुष बलशाली रावण रत्ती भर हिला भी नहीं पाया था और सीता जी को वनवास के दौरान वही रावण फूल की तरह कँधे पर उठाकर ले गया था। रावण भी भगवा धारण करके साधु के भेष में आया था न? तो कहाँ उस रंग का सम्मान हुआ? इस मुद्दे पर तो आज तक कोई बहस कहीं नहीं सुनी।
हमारे यहाँ सदियों से भगवा के सामने झुकने की परंपरा चली आ रही है। जिस परंपरा को निभाने से सीता जी भी नहीं चुके और रावण की फैलाई जाल का शिकार हो गए। कहने का मतलब ये है की भगवा रंगधारी हर चीज़ हर इंसान की नीयत साफ़ नहीं होती। न हर भगवाधारी गलत या राक्षस होता है।
हमारे देश में कई भगवाधारीओं के कांड आए दिन अखबारों की सुर्खियां बनते रहते है, रंग मायने नहीं रखता इंसान की नीयत और पवित्रता पूज्य होती है। बहुत सारे संत भगवा धारण करके असल में साधु सा जीवन जीते भी है।

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जल संकटः समझनी होगी बेशकीमती पानी की महत्ता

पिछले सप्ताह देश में जल सप्ताह का आयोजन किया गया, जिसमें जल संरक्षण, जल के उपयोग एवं जल स्रोतों को संरक्षित करने के विषय पर चर्चा के लिए विभिन्न देशों के दो हजार से भी ज्यादा प्रतिनिधि शामिल हुए। जल सप्ताह के दौरान जल शोधन तथा जल को बचाने के लिए गंभीरता से चर्चा हुई। ग्रेटर नोएडा में जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण विभाग, जल शक्ति मंत्रालय द्वारा आयोजित भारत जल सप्ताह का उद्घाटन करते हुए राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का कहना था कि आने वाली पीढ़ियों को बेहतर और सुरक्षित कल देने में सक्षम होने का एकमात्र तरीका जल संरक्षण ही है। हालांकि ऐसा नहीं है कि पानी की कमी को लेकर व्याप्त संकट अकेले भारत की ही समस्या है बल्कि जल संकट अब दुनिया के लगभग सभी देशों की विकट समस्या बन चुका है। राष्ट्रपति का भी कहना था कि पानी का मुद्दा केवल भारत के लिए ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए प्रासंगिक है। इस अवसर पर केन्द्रीय जलशक्ति मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत का कहना था कि देश में जनसंख्या और जल की उपलब्धता में विषमता पर गंभीरता से विचार होना चाहिए। देश में आज कई इलाके ऐसे हैं, जो जल संकट की भयावह स्थिति से गुजर रहे हैं। इसके अलावा कुछ राज्यों के बीच बरसों से पनप रहे जल विवाद भी समस्या को विकराल बनाते रहे हैं। इसीलिए उपराष्ट्रपति ने भारत जल सप्ताह के समापन समारोह को सम्बोधित करते हुए कहा कि राज्यों के बीच जल विवाद से कोई लाभ नहीं होगा और उन्हें जल विवादों से बचना चाहिए तथा इनका हल निकालना चाहिए। देश में जल संकट को लेकर अब जिस प्रकार की स्थितियां निर्मित होने लगी हैं, ऐसे में देश में हर साल जल सप्ताह मनाने की नहीं बल्कि पूरे साल ‘जल वर्ष’ मनाने की सख्त दरकार है।

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उफ़्फ ये स्त्रियाँ भी ना

क्या स्त्रियों के उपर हुए शारीरिक अत्याचार ही घरेलू हिंसा कहलाता है? मानसिक प्रताड़ना का क्या? जो एक होनहार महिला को अवसाद का भोग बना देता है। लगता है कुछ स्त्रियाँ प्रताड़ना सहने के लिए ही पैदा हुई होती है। ऐसी स्त्रियों को पता भी नहीं होता घरेलू हिंसा और प्रताड़ना के बहुत सारे प्रकार होते है।
शारीरिक अत्याचार को ही हिंसा समझने वाली स्त्रियों को मौखिक अत्याचार, लैंगिक अत्याचार और आर्थिक अत्याचारों के बारे में जानकारी ही नहीं होती। नां हि स्त्रियों के हक में कायदे कानून के बारे में पता होता है। कोई-कोई स्त्रीयाँ तो स्वीकार कर लेती है आधिपत्य भाव! कि पति है तो उसका हक बनता है हमारे साथ अत्याचार करने का।
साथ ही जरूरी नहीं की शादी के बाद पति जो अत्याचार करे उसे ही घरेलू हिंसा मानी जाए। पिता या बड़े भाई द्वारा लड़की को पढ़ने से रोकना, पहनावे पर रोकटोक करना, बाहर आने जाने पर रोक लगाना या उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ शादी करवा देना भी प्रताड़ना का ही हिस्सा कहलाता है। लड़की ज़ात सहने का भाव लेकर ही पैदा होती है।
पत्नी को बात-बात पर कम अक्कल कहना, ताने मारना, दोस्तों-रिश्तेदारों के सामने ज़लिल करना और बेइज़्जती के साथ लात, थप्पड़ या घूसा मारना हिंसा ही है और धमकी देना या घर से निकाल देना अत्याचार ही है।

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