Tuesday, April 22, 2025
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लेख/विचार

बेनकाब होता चीन

पूरे विश्व को कोरोना महामारी की सौगात देने वाले चीन की काली करतूतों पर से धीरे-धीरे पर्दा उठने लगा है| पूंजीवादी संस्कृति किसी देश को नैतिक रूप से कितना दीवालिया कर सकती है, चीन इसका जीता जागता उदाहरण है| कहने को तो चीन में कम्यूनिस्ट पार्टी की सत्ता है| परन्तु उसकी संस्कृति घनघोर पूंजीवादी है| ऐसे देश के नेतृत्व की दृष्टि में न तो दूसरे देश के नागरिकों की जान का कोई मूल्य होता है और न ही अपने देश के नागरिकों के प्राणों की कोई कीमत होती है| उनकी सारी शक्ति स्वयं के पूंजी विस्तार पर ही केन्द्रित रहती है| जनवरी माह में जब चीन में मृत्यु का ताण्डव शुरू हुआ तब पूरा विश्व चीन को संवेदनशील दृष्टि से देख रहा था| उसकी मदद के लिए हर तरफ से हाँथ उठ रहे थे| लेकिन कोविड-19 नामक महामारी के पीछे छुपा चीन का कलुषित चेहरा जैसे-जैसे उजागर हो रहा है, वैसे-वैसे विश्व का प्रत्येक देश चीन को हिकारत भरी निगाहों से देखने लगा है| अमेरिका सहित विश्व के कई देश लामबन्द होकर न केवल चीन के विरुद्ध अन्तर्राष्ट्रीय अदालत का दरवाजा खटखटाने की तैयारी कर रहे हैं बल्कि दूसरे तरीकों से भी चीन को सबक सिखाने की योजना बना रहे हैं| सम्भवता इसका आभास चीन को भी हो चुका है| शायद तभी उसने गोपनीय तरीके से अपने परमाणु अस्त्रों का परीक्षण शुरू कर दिया है| उधर अमेरिकी सेनाओं ने भी चीन के विरुद्ध मोर्चा सम्भाल लिया है|

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बेनकाब होते वैश्विक संघठन

आज पूरा विश्व संकट के दौर से गुज़र रहा है। कोरोना नामक महामारी से दुनिया भर के विकसित कहे जाने वाले देशों तक में होने वाले त्राहिमाम को देखकर आशंका होती है कि कहीं ये एक युग के अंत की शुरुआत तो नहीं। क्योंकि जैसी वर्तमान स्थिति है, इसमें इस महामारी का अगर कोई एकमात्र इलाज है तो वो है स्वयं को इससे बचाना। तो जब तक लॉक डाउन है तबतक हम घरों में सुरक्षित हैं लेकिन जीवन भर न तो आप लॉक डाउन में रह सकते हैं और ना हो कोई देश। इसलिए आवश्यक हो जाता है कि हम पूरे विश्व पर आई इस विपत्ति से कुछ सबक सीखें।
अगर मानव सभ्यता के इतिहास पर नज़र डालें तो मानव ने शुरुआत से ही अनेक चुनौतियों का सामना करके अपने बाहुबल और बौद्धिक क्षमता के सहारे ही वर्तमान मुकाम को हासिल किया है। इस पूरे सफर में अगर उसका कोई सबसे बड़ा मित्र था, तो वो था उसका आत्म विश्लेषणात्मक स्वभाव जो उसे अपनी गलतियों से सीखने के लिए प्रोत्साहित करता था। भारत की सनातन संस्कृति के स्वाभानुसार यह विश्लेषणात्मक विवेचन आत्मकेंद्रित ना होकर इसमें सम्पूर्ण प्रकृति एवं मानवता का भी कुशलक्षेम शामिल होता था। और यह संभव होता था उन नैतिक मूल्यों से जो उसे सही और गलत का भेद कराते थे। किंतु समय के प्रवाह के साथ परिभाषाएं बदलीं तो नैतिक मूल्य कहीं पीछे छूटते गए।

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अब बस दवा की दरकार- संजय रोकड़े

कोरोना की महामारी के चलते आज पूरा संसार दहशत में है। आमजन को एक तरफ इससे होने वाली मौत का डऱ सता रहा है तो दूसरी तरफ भूखमरी की चिंता भी परेशान करने लगी है। इन सबके अलावा इसकी दवा न होना सबसे बड़ी परेशानी का सबब बन गई है। मतलब यह भी कह सकते है कि इसकी दवा का न होना आज विश्व के सामने बड़ी चुनौती के रूप में उभरी है। अब वक्त रहते इसके उपचार के लिए दवा और इलाज के सही तरीके खोजना बेहद जरूरी हो गया है। हालाकि कई देश इसकी दवा खोजने के काम में जुटे है।

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लाॅकडाउन: एक लेखक की व्यथा कथा -प्रमोद दीक्षित ‘मलय’

देश में लाॅकडाउन है और मैं भी तमाम देशवासियों की तरह घर में रहने को मजबूर हूं। हालांकि लाॅकडाडन घोषित होते समय अन्दर से बहुत खुश था कि विद्यालय बंद हो जाने से इस अवधि में लेखन के शौक के चलते कुछ लिखने-पढ़ने का सार्थक काम हो जायेगा। और तदनुरूप योजना भी बना ली थी कि कम से कम तीन कहानी, चार-पांच लेख, एक दर्जन कवितएं और मन भर हाईकू तो रच ही डालूंगा। पेन, पैड, लैपटाप सब तैयार कर लिया था। अखबार कोरोना समाचार और चित्रों से भरे हैं। रेहड़ी, ठेला और पटरी पर दो जून की रोटी तलाशने वाले छोटे-मोटे व्यापारी-कामगार रोजगार बंद होने से पेट की आग में झुलस रहे हैं। कल-कारखानों से भगाये गये मजदूर डे-नाईट वाॅकिंग करते हुए किसी तरह अपने गांव-घर पहुंचे तो प्रशासन ने उन्हें घरबदर कर स्कूलों में बने आइसोलेशन वार्ड में पटक दिया है। जहां दीवारों में अंकित सद्वाक्य ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेसु कदाचन’ का अर्थ समझते उनका समय बीत रहा है। सोचा कि एक लेखक होने के नाते उनके दर्द को स्वर देना भी मेरा दायित्व है तो उन पर भी कुछ कालजयी लेखन कर डालूं। पर होनी को कुछ और ही मंजूर था। घर पर दो दिन तो आराम से कटे। समय से चाय नाश्ता, लंच-डिनर, रात को सोते समय केशर-शहद मिला दूध और साथ में एक चम्मच स्वर्णभस्म युक्त च्यवनप्रास भी। तो इतना सब खाने-पीने के बाद रचनाएं भी मक्खन की मानिन्द दिमाग में उतराने लगी थीं। पर हाय रे मुआ कोरोना, चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात, बकरे की मां कब तक खैर मनायेगी, काम का न काज का दुश्मन अनाज का जैसे मुहावरे अब वास्तविक अर्थ के साथ साक्षात थे। तीसरे दिन की सुबह से आज की सुबह है, मैं बस मुआ कोरोना को कोस रहा हूं। कोरोना मिल जाये तो बिना नमक, मिर्च-मसाले के कच्चा ही चबा जाऊं। आप पूछ रहे हैं हुआ क्या, अरे जनाब यह पूछिए कि क्या नहीं हुआ।

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विचार- सफाई कर्मचारियों का सबसे पहले सम्मान करें

इस समय विश्व के सभी देशो में कोरोना वायरस की महामारी से हर देश अपने अपने तरीके से जंग लड रहा है जिसमें हमारा देश भी इस महामारी से एक अनोखे तरीके जैसे प्रधानमंत्री के आवाहन पर पहले थाली, घंटी, शंख बजाकर एक जुट होने का हिन्दुस्तानियों ने परिचय दिया दूसरी बार प्रधानमंत्री के आवाहन के बताए हुए समय पर पूरे हिन्दुस्तान की जनता ने अपने-अपने घरों कि लाईट बन्द करके दीपक, दीया, मोमबत्ती, मोबाईल की टार्च जलाकर हिन्दुस्तान की एकता का परिचय दिया। लेकिन हमारे देश में ऐसी महामारी से हमें हमेशा बचाते चले आ रहे वहां लोग है जो सफाई कर्मचारी कहलाते है उनके विषय में सरकारो को हमारे देश की जनता को सोचना चाहिए क्योंकि हमें जब उनकी आवश्यकता होती है तो हमारे देश के प्रधानमंत्री पैर धोकर यहां संदेश देते है कि यहां लोग भी इंसान है जैसे की इस समय कोरोना वायरस महामारी को देखते हुए हर शहर, हर गांव हर कसवे में कही नोटों फूलों की माला पहनकर हर हिन्दुस्तानी सम्मान कर रहा है लेकिन सोचने की यहां बात है कि जब डरकर घबराकर मौत को सामने देखकर किसी का सम्मान किया तो क्या किया यहां वो सैनिक है जो कोरोना वायरस महामारी जैसी बिमारियों से पहले से ही हम सब लोगों की सुरक्षा करते चले आ रहे है सरकारो को हमारे देश की जनता को पहले से ही इन लोगो को सम्मान देते चले आना चाहिए था अगर यहां लोग सफाई का कार्य बन्द कर दे तो ना जाने कितनी बीमारियां फैल जायेगी और हमारा देश अन्धकार में चला जायेगा।

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कोरोना वायरस क्या प्रधानमंत्री के सामने तालाबंदी ही एकमात्र रास्ता था संजय रोकड़े

देश में कोरोना वायरस के संकट से बाहर निकलने के लिए जो तालाबंदी की गई और उसके बाद जिस तरह की दिक्कतें व परेशानियां सामने आई उसे देख कर हम जैसे तमाम भारतीयों के मन में एक सवाल उठने लगा कि- क्या इस वायरस पर विजयी पाने का एकमात्र हल तालाबंदी ही था। देश का अवाम इस समय कोरोना वायरस जैसे संकट से काफी जूझ रहा है। ऐसे समय में ये सवाल तकलीफ देह भी साबित हो सकता है लेकिन सवाल तो बनता है। और शायद इसीलिए पूछा भी जा रहा है।
हालाकि इसका जवाब बेहद सरल और आसान है – और वो है हां। हां तालाबंदी ही इस वायरस पर काबू पाने का एकमात्र विकल्प या रास्ता था।
पर तालाबंदी के कुछ दिनों बाद ही देश भर में जिस तरह से अफरा-तफरी मची, लोग दो वक्त की रोटी को महरूम हो गए उसी के चलत दिलों-दिमाग में यह सवाल खड़ा हुआ कि क्या अचानक से पूरी तरह देश भर में तालाबंदी किया जाना ही एकमात्र विकल्प था?

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कोविड-19 की महामारी और ताली थाली शंख घंटा व दिया

प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के आह्वान पर 5 अप्रैल को रात 9 बजे देश भर में जले दियों से दीपावली जैसा नजारा दिखायी दिया| प्रधानमन्त्री जी ने तो मात्र एक दिया जलाने की अपील की थी| परन्तु लोगों ने उत्साह में आकर अपनी-अपनी बालकनियों और दरवाजों को दीप मालाओं से सजा दिया| आम से लेकर खास तक, मन्त्री से लेकर सन्तरी तक, राज्यपाल से लेकर राष्ट्रपति तक हर किसी ने मोदी जी की अपील पर अमल करने का पूर्ण प्रयास किया| अनेक लोगों ने तो पटाखे भी जमकर फोड़े| लगा जैसे पूरा देश दोबारा दीवाली मना रहा हो| लेकिन दियों की जगमगाहट के बीच शायद ही किसी ने यह विचार किया हो कि देश के उन 89 परिवारों पर क्या बीत रही होगी जिनके चिराग कोविड-19 की महामारी ने बुझा दिये हैं और उन 3900 लोगों की मनः स्थिति क्या होगी जो इस महामारी की चपेट में आकर जिन्दगी और मौत के बीच झूल रहे हैं| दियों की जगमगाहट से प्रसन्न सत्ता पक्ष जहाँ अन्तर्मन से प्रधानमन्त्री की बढ़ती लोकप्रियता का दर्शन करते हुए भविष्य के परिणामों का सुखद आभास कर रहा है वहीँ बहिर्मन से इसे देश की एक जुटता का द्योतक बताते हुए नहीं थक रहा है| विपक्षी दल इसे भाजपा के स्थापना दिवस 6 अप्रैल की पूर्व सन्ध्या पर अघोषित जश्न की संज्ञा दे रहे हैं तो अन्ध भक्त और स्वयंभू विद्वान इसे सनातन धर्म के पौराणिक विज्ञान से जोड़कर कोरोना के विरुद्ध लड़ाई का एक बड़ा हथियार बता रहे हैं|

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किसने सोचा था ऐसा दौर भी आएगा

“मानव ही मानव का दुश्मन बन जाएगा
किसने सोचा था ऐसा दौर भी आएगा।
जो धर्म मनुष्य को मानवता की राह दिखाता था
उसकी आड़ में ही मनुष्य को हैवान बनाया जाएगा।
इंसानियत को शर्मशार करने खुद इन्सान ही आगे आएगा
किसने सोचा था कि वक्त इतना बदल जाएगा”
शक्ति कोई भी हो दिशाहीन हो जाए तो विनाशकारी ही होती है लेकिन यदि उसे सही दिशा दी जाए तो सृजनकारी सिद्ध होती है। शायद इसीलिए प्रधानमंत्री ने 5 अप्रैलको सभी देशवासियों से एकसाथ दीपक जलाने का आह्वन किया जिसे पूरे देशवासियों का भरपूर समर्थन भी मिला। जो लोग कोरोना से भारत की लड़ाई में प्रधानमंत्री के इस कदम का वैज्ञानिक उत्तर खोजने में लगे हैं वे निराश होसकते हैं क्योंकि विज्ञान के पास आज भी अनेक प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं। हाँ लेकिन संभव है किदीपक की लौ से निकलने वाली ऊर्जा देश के 130 करोड़ लोगों की ऊर्जा को एक सकारात्मक शक्ति का वो आध्यात्मिक बल प्रदान करे जो इस वैश्विक आपदा से निकलने में भारत को संबल दे। क्योंकि संकट के इस समयभारत जैसे अपार जनसंख्या लेकिन सीमित संसाधनों वाले देश की अगर कोई सबसेबड़ी शक्ति, सबसे बड़ा हथियार है जो कोरोना जैसी महामारी से लड़ सकता है तो वो है हमारी “एकता”। और इसी एकता के दम पर हम जीत भी रहे थे। विश्व स्वास्थ्य संगठन के विशेष दूत डॉ डेविड नाबरो ने भी अपने ताज़ा बयान में कहा कि भारत में लॉक डाउन को जल्दी लागू करना एक दूरदर्शी सोच थी,साथ ही यह सरकार का एकसाहसिक फैसला था। इस फैसले से भारत को कोरोना वायरस के खिलाफ मजबूती से लड़ाई लड़ने का मौका मिला।

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बच्चों के सीखने में स्कूल की भूमिका : स्मृति चौधरी

स्कूल की इमारत में पहला कदम रखते समय प्रत्येक बच्चा अधिक चैतन्य, ज्यादा जिज्ञासु, कुछ नया सीखने को इच्छुक, उन चीजों से कम डरने वाला जिन्हें वह नहीं जानता, चीजों को जानने समझने में अधिक चतुर, रचनात्मक ऊर्जा से भरा हुआ, धैर्यवान और स्वतंत्र होता है। समाज के सभी व्यक्ति अभिभावक हैं, शिक्षक भी अभिभावक ही होता है। इसलिए मेरी बातों को शायद आसानी से समझ जाएंगे कि बिना औपचारिक स्कूली निर्देशों के सिर्फ आसपास की दुनिया को ध्यान से देखते हुए लोगों के संपर्क से हमारे बच्चे या छात्र तमाम जटिल और अमूर्त बातें सीख लेते हैं। वे बातें जो न तो स्कूल उन्हें कभी सीखा पाएगा और न ही कोई शिक्षक। बच्चे स्कूल जाने वाली उम्र में एक कुशल सीखने वाले होते हैं, चीजों को बार-बार करके देखना, गलतियां करना फिर अपनी गलतियों को सुधार कर वापस चीजों को पुनः कर करके देखना और सीखना उसकी आदत में शुमार होता है।

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गम्भीर चुनौती बनता जा रहा है कोविड-19

चीन के बुहान शहर से शरू हुई कोरोना संक्रमण की बीमारी आज वैश्विक महामारी का रूप ले चुकी है| पूरे विश्व में कोरोना वायरस से संक्रमित हुए लोगों की संख्या छै लाख के ऊपर पहुँच गई है| जबकि इस संक्रमण से मरने वालों का आंकड़ा 28 हजार के पार हो चुका है| भारत में भी यह बीमारी धीरे-धीरे अपने पांव पसार रही है| देश भर में 900 से भी अधिक लोग कोरोना के शिकार हो चुके हैं| जिनमें से डेढ़ दर्जन से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है| दुनिया भर के तमाम चिकित्सक इस विषाणु का तोड़ निकालने के लिए रात-दिन एक किये हुए हैं| परन्तु दुर्भाग्य से अभी तक इसका कोई इलाज नहीं खोजा जा सका है| ऐसे में इस संक्रमण से बचाव ही इसका सबसे बड़ा इलाज है| अतः हर किसी को स्वयं तथा अपने परिजनों का चिकित्सकों के निर्देशानुसार बचाव करना चाहिए| इस महामारी को फैलने से रोकने का सबसे कारगर तरीका सामाजिक दूरी तथा स्वच्छता को ही बताया गया है| इसी के चलते भारत सहित दुनियां के लगभग सभी देशों ने अपने यहाँ लॉकडाउन अर्थात नागरिकों की आवाजाही पर पूरी तरह से प्रतिबन्ध लगा दिया है| इसके बावजूद कोरोना के बढ़ते संक्रमण पर विराम नहीं लग पा रहा है| जिसका प्रमुख कारण लोगों द्वारा लॉकडाउन का गम्भीरता से पालन न करना ही बताया जा रहा है|

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