संविधान लागू होने के दिन अर्थात गणतंत्र दिवस के मौके पर यह कह देना कि ‘देश से प्यार करते हैं तो भूलना सीखें’, यह एक छलावे से कम नहीं है।
जहां तक मैं समझता हूं, यह कहना सरासर नासमझी होगी कि भूल जाने की वजह से ही इटली एक राष्ट्र बना है या फ्रांस भी भूलने की वजह से ही एक राष्ट्र बना है। भूलने से कभी कोई ‘एक राष्ट्र (One Nation) नहीं बनता है।
एक राष्ट्र व उसकी एकता के लिए तो चाहिए बंधुता, समता, स्वतंत्रता, न्याय। सवाल है कि राष्ट्र की एकता व अखंडता को सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए क्या किया जाए?
इसका जवाब है कि राष्ट्र के समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराई जाए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा को बढ़ाया जाए।
स्वतंत्रता, समता व बंधुता मिलकर एक संघ का निर्माण करते हैं। इस संघ में स्वतंत्रता व समता को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। स्वतंत्रता व समता को बंधुता से अलग नहीं किया जा सकता है। बंधुता अथवा समता के बिना, स्वतंत्रता से बहुसंख्यक लोगों पर कुछ लोगों का वर्चस्व कायम हो जाएगा। स्वतंत्रता के बिना, समता से व्यक्तिगत पहल (individual initiative) खत्म हो जाएगी। यहां गौर करने वाली बात यह भी है कि हमारे भारतीय समाज में सामाजिक व आर्थिक समता पूर्ण रूप से अनुपस्थित है।
भारतीय समाज विभिन्न धर्म, जाति इत्यादि में बंटा हुआ समाज है और वर्गीकृत असमानता के सिद्धांत पर आधारित है, जहां अत्यधिक गरीब बहुसंख्यक लोगों की तुलना में, कुछ मुट्ठीभर लोगों के पास अथाह धन-संपदा है। संविधान लागू होने के बाद राजनीति में ‘एक व्यक्ति, एक वोट और एक वोट, एक मूल्य’ को अपनाया गया है। लेकिन सामाजिक व आर्थिक जीवन में ‘एक व्यक्ति, एक मूल्य’ को आज भी नकारा जाता है। यदि सामाजिक व आर्थिक समता को आगे भी नकारा जाता रहा तो हम अपनी इस राजनीतिक समता को भी खतरे में डाल देंगे और असमानता से पीड़ित लोग ही इस व्यवस्था को उखाड़ फेकेंगे।
यदि शोषक व शोषित अपने-अपने इतिहास को याद नहीं रखते हैं, तो शोषित किस आधार पर अपना हक मांगेगा और शोषक किस आधार पर शोषितों का हक छोड़ेगा?
लेख/विचार
भारत में अभी भी पकौड़े और चाय में बहुत स्कोप है साहेब
‘साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय। सार सार को गहि रहै थोथा दे उड़ाय।।’
कबीर दास जी भले ही यह कह गए हों, लेकिन आज सोशल मीडिया का जमाना है जहाँ किसी भी बात पर ट्रेन्डिंग और ट्रोलिंग का चलन है। कहने का आशय तो आप समझ ही चुके होंगे। जी हाँ, विषय है मोदी जी का वह बयान जिसमें वो ‘पकौड़े बेचने’ को रोजगार की संज्ञा दे रहे हैं। हालांकि इस पर देश भर में विभिन्न प्रतिक्रियाएँ आईं लेकिन सबसे अधिक ध्यान आकर्षित किया देश के पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम के बयान ने जिसमें वो इस क्रम में भीख माँगने को भी रोजगार कह रहे हैं। विपक्ष में होने के नाते उनसे अपनी विरोधी पार्टी के प्रधानमंत्री के बयानों का विरोध अपेक्षित भी है और स्वीकार्य भी किन्तु देश के भूतपूर्व वित्त मंत्री होने के नाते उनका विरोध तर्कयुक्त एवं युक्तिसंगत हो, इसकी भी अपेक्षा है। यह तो असंभव है कि वे रोजगार और भीख माँगने के अन्तर को न समझते हों लेकिन फिर भी इस प्रकार के स्तरहीन तर्कों से विरोध केवल राजनीति के गिरते स्तर को ही दर्शाता है।
सिर्फ चिदंबरम ही नहीं देश के अनेक नौजवानों ने पकौड़ों के ठेले लगाकर प्रधानमंत्री के इस बयान का विरोध किया। हार्दिक पटेल ने तो सभी हदें पार करते हुए यहां तक कहा कि इस प्रकार की सलाह तो एक चाय वाला ही दे सकता है। वैसे ‘आरक्षण की भीख’ के अधिकार के लिए लड़ने वाले एक 24 साल के नौजवान से भी शायद इससे बेहतर प्रतिक्रिया की अपेक्षा नहीं थी।
रेप स्टेट बन गया है हरियाणा
हम कभी नहीं सुधरेंगे। चाहे देश 69 वां गणतंत्र दिवस मनाए, चाहे भारतीय चाँद पर पहुंच जाएं, चाहे भारत विश्व गुरु हो जाए, चाहे प्रधानमंत्री महोदय रोज बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ नारे का जाप ही क्यों न करते रहें पर हमारे अंदर की हैवानियत कभी जाने वाली नहीं है। आजादी के इतने वर्षों बाद भी देश की आधी आबादी के खिलाफ शोषण की घटनाओं में लगातार इजाफा होता जा रहा है। निर्भया कांड के बाद से राजधानी दिल्ली पर रेप कैपिटल का दाग लग गया था। पर अब इस मामले में दिल्ली का कान उसके पड़ोसी हरियाणा ने काट लिया है। वहां 10 दिन में बलात्कार की 10 वारदातों ने पूरे देशभर को झकझोर कर रख दिया है। यह बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि देशभर में रेप की सबसे ज्यादा घटनाएं मध्यप्रदेश के बाद हरियाणा में हो रही हैं।
अनिल गुप्त की एक गजल है। ये जाल आखिर कब तना, चिड़िया बड़ी मुश्किल में है। बच पाएगी कैसे भला, चिड़िया बड़ी मुश्किल में है। आकाश में हैं बिजलियाँ, सारी धरा पर आग है, कैसे बचेगा घोंसला, चिड़िया बड़ी मुश्किल में है। मिलता नहीं दाना कहीं, कब तक उड़े कैसे उड़े, अब सामने की है हवा, चिड़िया बड़ी मुश्किल में है। कुछ कैंचियां बेताब हैं, पर काटने को अब अनिल, धूमिल है हर संभावना, चिड़िया बड़ी मुश्किल में है।
हरियाणा में इसी प्रकार के हालात हैं। वहां लड़कियां हो महिलाएं बड़ी मुश्किल में जी रही हैं। वे न तो घर में सुरक्षित हैं, न बाहर। वे आजादी का सुख नहीं भोग सकती। क्योंकि बलात्कार और गैंग रेप के मामले में हरियाणा अब काफी बदनाम हो गया है। कुछ लोग तो अब हरियाणा को रेप स्टेट कहने लगे हैं।
हरियाणा में पिछले 10 दिनों में हुई रेप की 10 बर्बर घटनाओं ने राज्य के साथ पूरे देश को शर्मसार कर दिया है। हद तो यह हो गई कि राज्य के एडीजी आरसी मिश्रा ने बेहद शर्मनाक बयान तक दे डाला। एडीजी आरसी मिश्रा ने शर्मनाक तरीके से रेप को ‘समाज का हिस्सा’ बताते हुए कहा था कि इस तरह की घटनाएं अनंतकाल से होती चली आ रही हैं।
भ्रष्टाचार एक बीमारी
भ्रष्टाचार का सामान्य अर्थ किसी व्यक्ति के द्वारा किसी प्रतिष्ठित पद पर रहते हुए अपनी ताकत का अनुचित रूप से प्रयोग है। वैसे, भ्रष्टाचार शब्द से ऐसा प्रतीत होता है कि यह शब्द एक चोरी, अनैतिक या गलत व्यवहार का आशय है। शाब्दिक रूप में भ्रष्टाचार अर्थात भ्रष्ट-आचार। भ्रष्ट यानी बुरा या बिगड़ा हुआ तथा आचार का मतलब है आचरण। अर्थात भ्रष्टाचार का शाब्दिक अर्थ है वह आचरण जो किसी भी प्रकार से अनैतिक और अनुचित हो।
जब कोई व्यक्ति न्याय व्यवस्था के मान्य नियमों के विरू( जाकर अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए गलत आचरण करने लगता है तो वह व्यक्ति भ्रष्टाचारी कहलाता है। आज भारत जैसे सोने की चिड़िया कहलाने वाले देश में भ्रष्टाचार अपनी जड़ें बहुत तेजी से फैला चुका है। जीवन के हर क्षेत्र में यह बुराई यानी बीमारी मौजूद है। यह एक ऐसी बीमारी है जिससे सभी भली भांति परिचित है। यह किसी भी व्यक्ति की मनोदशा पर हावी होकर उसे दुष्प्रभावित कर सकता है।
भ्रष्टाचार के कई प्रकार होते है। यह प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से संमाज पर दुष्प्रभाव डालता हैं। खेल जगत, शिक्षा जगत, राजनीति एवं विभिन्न सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाओं में भ्रष्टाचार ने अपनी बुरी छाप को छोड़कर हित में बाधा पहुंचाई है। जैसे रिश्वत, काला- बाजारी, जान-बूझकर दाम बढ़ाना, पैसा लेकर काम करना, सस्ता सामान लाकर महंगा बेचना आदि।
आज के आधुनिक परिवेश में हर पाचँ में से कम से कम चार व्यक्ति भ्रष्टाचार में लिप्त हैं।जिससे सार्वजनिक संपत्ति की बर्बादी, व्यक्ति बिशेष का शोषण, अनैतिक आचरण अपने पांव दिन रात फैलाए जा रहा है। आज व्यक्ति पैसों के लालच में आकर अपने साथ साथ देश का भी पतन कर रहा है।
भ्रष्टाचार के कई कारण होते हैं। जैसे जब किसी को अभाव के कारण कष्ट होता है तो वह भ्रष्ट आचरण करने के लिए विवश हो जाता है। असमानता, आर्थिक, सामाजिक या सम्मान, पद -प्रतिष्ठा के कारण भी व्यक्ति अपने आपको भ्रष्ट बना लेता है। हीनता और ईर्ष्या की भावना से शिकार हुआ व्यक्ति भ्रष्टाचार को अपनाने के लिए विवश हो जाता है। साथ ही रिश्वतखोरी, भाई-भतीजावाद आदि भी भ्रष्टाचार को जन्म देते हैं।
बच्चों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करता परीक्षा बोर्ड
इस बार यू.पी. बोर्ड की लिखित परीक्षाएं 6 फरवरी से शुरू होने जा रही हैं। जबकि प्रायोगिक परीक्षाएं जनवरी माह में ही सम्पन्न हो जाएँगी। जिसके कारण कड़ाके की ठण्ड में भी हाईस्कूल तथा इण्टर के छात्र-छात्राओं को विद्यालय बुलाया जा रहा है। ऐसी भीषण सर्दी में बच्चों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करके परीक्षा बोर्ड घनघोर संवेदनहीनता का ही परिचय दे रहा है। जुलाई की जगह एक अप्रैल से नया सत्र चालू करने की प्रक्रिया को दुरुस्त करने के चक्कर में ही यह सारी कवायद की जा रही है। इसी कारण वर्ष 2016 में 18 फरवरी से 21 मार्च के बीच परीक्षाओं को सम्पन्न कराया गया था। जबकि वर्ष 2017 में विधान सभा चुनाव के कारण 16 मार्च से 18 अप्रैल के बीच परीक्षाएं करायी गयी थीं। इस वर्ष 2018 में 6 फरवरी से 10 मार्च के बीच परीक्षाएं सम्पन्न कराके बोर्ड एक अप्रैल तक परीक्षा परिणाम देना चाहता है। ताकि नया सत्र अप्रैल माह से सुचारू रूप से चलाया जा सके।
आजादी के बाद सबसे अधिक खिलवाड़ अगर किसी के साथ हुआ है तो वह शिक्षा ही है। उत्कृष्ट शिक्षा के नाम पर हो रहे नित नये प्रयोगों ने भारत की शिक्षा व्यवस्था को अन्ततोगत्वा चैपट ही किया है। शिक्षा का नया सत्र कभी जुलाई से शुरू किया गया था। जो बीते कुछ वर्षों पूर्व तक बना रहा। प्रश्न उठता है कि शिक्षा के नये सत्र की शुरुआत के लिए तब जुलाई माह को ही क्यों चुना गया था? निश्चित रूप से ऐसा मौसम की अनुकूलता के कारण ही किया गया होगा। एक जुलाई से नया सत्र शुरू होता था। उस समय प्रायः बरसात का मौसम होता है। बच्चे नयी कक्षाओं में प्रवेश लेते थे। जुलाई माह में प्रवेश प्रक्रिया सम्पन्न होती थी और अगस्त आते-आते पढ़ाई शुरू हो जाती थी। दिसम्बर माह में छमाही परीक्षाएं होती थीं। उसके बाद शीतकालीन अवकाश हो जाता था। जनवरी माह में सर्दी की न्यूनता और अधिकता के हिसाब से विद्यालय खुलते थे। जबकि फरवरी भर जम कर पढ़ाई होती थी और मार्च के प्रथम सप्ताह में प्रायोगिक परीक्षायें शुरू हो जाती थीं। 15 मार्च के आसपास वार्षिक परीक्षाएं होने लगती थीं। जो कि अप्रैल माह तक चलती थीं। उसके बाद गर्मियों की छुट्टियाँ हो जाती थीं।
कम्युनिकेशन कैसे करें…?
क्रेडिट रोल-सरश्री तेजपारखी ‘तेजज्ञान फाउंडेशन’
व्यक्तिगत जीवन हो या सामाजिक, ऑफिस हो या घर, स्वयं के साथ हो या दूसरों के साथ, सभी जगहों पर दिखनेवाली एक कॉमन समस्या है, ‘मिस कम्युनिकेशन’ यानी गलत तरीके से संवाद करना।
सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि कम्युनिकेशन का क्या मतलब है? बातचीत के दौरान एक इंसान सामनेवाले को जो संदेश देना चाहता है, वह उसे मिल जाए और उससे अपेक्षित परिणाम प्राप्त हो तो वह सही कम्युनिकेशन है। जीवन के सभी क्षेत्रों में आज सही संप्रेषण (संवाद) न करने की समस्या दिखाई देती है। साधारणतः बातचीत के दौरान लोग बताना कुछ और चाहते हैं और सुननेवाला कुछ अलग ही समझता है। इसलिए कम्युनिकेशन का पहला एवं महत्वपूर्ण पहलू है- ‘पूरा और सही सुनना, न समझ में आए तो फिर से पूछना।’
पहला पायदान- कम्युनिकेशन का पहला पायदान है, ‘सुनना’। विचारों की भीड़ में खोया हुआ इंसान सही तरह से सुन नहीं पाता। साथ ही किसी से कम्युनिकेशन करते वक्त इंसान उसकी छवि अपने मन में बनाता है और उसके अनुसार सुनता है। इसलिए वह पूरा नहीं बल्कि अपने विचारों के अनुसार जितना उसे आवश्यक लगता है, उतना ही सुनता है। सही कम्युनिकेशन न होने का यह पहला कारण है।
अपना कम्युनिकेशन सुधारने के लिए सामनेवाले की बातें वर्तमान में रहते हुए पूरी सुनें और उसमें अपने विचारों की मिलावट न करें। सही और उत्तम कम्युनिकेशन के लिए केवल बोलने की नहीं बल्कि दिल से सुनने की कला विकसित करें। वरना आधा सुनकर लोग अकसर कह देते हैं, ‘मैं समझ गया’ मगर वे नहीं समझे होते हैं। ऐसे वक्त हमें सामनेवाले से पूछ लेना चाहिए कि उसने क्या समझा। इसे कहा गया है सही और पूर्ण कम्युनिकेशन।
युद्ध स्मारकों को जातीय चश्में से न देखा जाए
नया साल हर तीन सौ पैंसठ दिनों के बाद आ जाता है लेकिन 2018 के पहले दिन को हम इस लिहाज से अलग कह सकते हैं कि इस दिन ने देश के दो युद्ध स्मारकों को भी जातीय बहस का हिस्सा बना डाला। 200 वर्ष पहले 500 महारों की ब्रिटिश सैन्य टुकड़ी ने हजारों पेशवा सैनिकों को धूल चटाकर मराठा शासन को इस देश से खत्म किया था। उन वीर लड़ाकों की याद में अंग्रेजों ने वैसा ही युद्ध स्मारक भीमा कोरेगांव में ‘जय स्तंभ’ (विक्ट्री पिलर) के नाम से बनाया जैसा देश की राजधानी दिल्ली में इंडिया गेट के नाम से बनवाया गया है। यह अंग्रेजों की परम्परा रही है। ऐसे विजय के प्रतीक देश के अन्य स्थानों पर आज भी मिल जाएंगे। दिल्ली के नजदीक नॉएडा के गाँव छलेरा में भी ऐसा ही एक युद्ध स्मारक है जिसे स्थानीय लोग ‘विजय गढ़’ कहते हैं। युद्ध में शहीद सैनिकों के गाँव के आस-आस ब्रिटिश हुकूमत ऐसे स्मारकों का निर्माण करवा दिया करती थी।
1 जनवरी 1818 को छोटी सी महार सैन्य टुकड़ी द्वारा अनुशासित, प्रशिक्षित और सुसज्जित मानी जाने वाली विशाल पेशवा सेना पर प्राप्त किए गए विजय के भारत के दलित समाज के लिए अनेक मायने हैं। 19वीं सदी के पेशवा राज में दलितों की सामाजिक स्थिति को समझे बिना, कोरेगांव विजय का दलितों के लिए महत्त्व को नहीं समझा जा सकता है भारतीय इतिहास का यह वही कलंकित दौर था जब जाति विशेष के लोगों के गले में हांडी और कमर में झाड़ू बंधा होता था। जब जाति को छिपाना अक्षम्य अपराध की श्रेणी में आता था। पेशवा शासकों द्वारा इंसानों के एक समुदाय को अछूत घोषित कर उनपर लम्बे समय से शोषण और भेदभाव किया जा रहा था।
डूबते सूरज की विदाई नववर्ष का स्वागत कैसे
पेड़ अपनी जड़ों को खुद नहीं काटता, पतंग अपनी डोर को खुद नहीं काटती, लेकिन मनुष्य आज आधुनिकता की दौड़ में अपनी जड़ें और अपनी डोर दोनों काटता जा रहा है।
काश वो समझ पाता कि पेड़ तभी तक आजादी से मिट्टी में खड़ा है जबतक वो अपनी जड़ों से जुड़ा है और पतंग भी तभी तक आसमान में उड़ने के लिए आजाद है जबतक वो अपनी डोर से बंधी है।
आज पाश्चात्य सभ्यता का अनुसरण करते हुए जाने अनजाने हम अपनी संस्कृति की जड़ों और परम्पराओं की डोर को काट कर किस दिशा में जा रहे हैं? ये प्रश्न आज कितना प्रासंगिक लग रहा है जब हमारे समाज में महज तारीखघ् बदलने की एक प्रक्रिया को नववर्ष के रूप में मनाने की होड़ लगी हो।
जब हमारे संस्कृति में हर शुभ कार्य का आरम्भ मन्दिर या फिर घर में ही ईश्वर की उपासना एवं माता पिता के आशीर्वाद से करने का संस्कार हो,उस समाज में कथित नववर्ष माता पिता को घर में छोड़, होटलों में शराब के नशे में डूब कर मनाने की परम्परा चल निकली हो।
जहाँ की संस्कृति में एक साधारण दिन की शुरुआत भी ब्रह्ममुहूर्त में सूर्योदय के दर्शन और सूर्य नमस्कार के साथ करने की परंपरा हो वहाँ का समाज कथित नए साल के पहले सूर्योदय के स्वागत के बजाय जाते साल के डूबते सूरज को बिदाई देने में डूबना पसंद कर रहा हो।
यह तो आधुनिक विज्ञान भी सिद्ध कर चुका है कि पृथ्वी जब अपनी धुरी पर घूमती है तो यह समय 24 घंटे का होता है जिससे दिन और रात होते हैं, एक नए दिन का उदय होता है और तारीखघ् बदलती है। जबकि पृथ्वी जब सूर्य का एक चक्र पूर्ण कर लेती है तो यह समय 365 दिन का होता है और इस काल खण्ड को हम एक वर्ष कहते हैं। यानी नव वर्ष का आगमन वैज्ञानिक तौर पर पृथ्वी की सूर्य की एक परिक्रमा पूर्ण कर नई परिक्रमा के आरंभ के साथ होता है।
वो परिक्रमा जिसमें घ्तुओं का एक चक्र भी पूर्ण होता है।
सम्पूर्ण भारत में नववर्ष इसी चक्र के पूर्ण होने पर विभिन्न नामों से मनाया जाता है।
सवा लाख से एक लड़ावाँ ताँ गोविंद सिंह नाम धरावाँ
चिड़ियाँ नाल मैं बाज लड़ावाँ
गिदरां नुं मैं शेर बनावाँ
सवा लाख से एक लड़ावाँ
ताँ गोविंद सिंह नाम धरावाँ
सिखों के दसवें गुरु श्री गोविंद सिंह द्वारा 17 वीं शताब्दी में कहे गए ये शब्द आज भी सुनने या पढ़ने वाले की आत्मा को चीरते हुए उसके शरीर में एक अद्भुत शक्ति का संचार करते हैं।
ये केवल शब्द नहीं हैं, शक्ति का पुंज है, एक आग है अन्याय के विरुद्ध, अत्याचार के विरुद्ध, भय के विरुद्ध, शक्ति के दुरुपयोग के विरुद्ध, निहत्थे और बेबसों पर होने वाले जुल्म के विरुद्ध।
कल्पना कीजिए उस आत्मविश्वास की जो एक चिडिया को बाज से लड़ा सकता है, उस विश्वास की जो गीदड़ को शेर बना सकता है, उस भरोसे की जिसमें एक अकेला सवा लाख से जीत सकता है। और हम सभी जानते हैं कि उन्होंने जो कहा वो करके भी दिखाया।
मुगलों के जुल्म और अत्याचारों से टूट चुके भारत में एक नई शक्ति का संचार करने के लिए उन्होंने 1699 में बैसाखी के दिन आनन्दपुर साहिब में एक सभा का आयोजन किया। हजारों की इस सभा में हाथ में नंगी तलवार लिए भीड़ को ललकारा, इस सभा में कौन है जो मुझे अपना शीश देगा?
गुरु जी के ये शब्द सुनकर पूरी सभा में से जो पांच लोग अपने भीतर हौसला लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए आगे आए इन्हें गुरु गोविंद सिंह जी ने पंज प्यारे का नाम देकर खालसा पंथ की स्थापना की और नारा दिया वाहे गुरु जी दा खालसा, वाहे गुरु जी दी फतेह।
दम तोड़ती इंसानियत का रुदन हम कब सुन पायेंगे साहब
‘‘अपना दर्द तो एक पशु भी महसूस कर लेता है लेकिन जब आँख किसी और के दर्द में भी नम होती हो, तो यह मानवता की पहचान बन जाती है।’’
मैक्स अस्पताल का लाइसेंस रद्द करने का दिल्ली सरकार का फैसला और फोर्टिस अस्पताल के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने का हरियाणा सरकार का निर्णय, देश में प्राइवेट अस्पतालों की मनमानी रोकने के लिए इस दिशा में किसी ठोस सरकारी पहल के रूप में दोनों ही कदम बहुप्रतीक्षित थे।
इससे पहले इसी साल अगस्त में सरकार ने घुटने की सर्जरी की कीमतों पर सीलिंग लगाकर उसकी कीमत 65 प्रतिशत तक कम कर दी थी।
इसी प्रकार दिल के मरीजों का इलाज में प्रयुक्त होने वाले स्टेंट की कीमतें भी सरकारी हस्तक्षेप के बाद 85 प्रतिशत तक कम हो गई थीं। एनपीपीए पर मौजूद डाटा के मुताबिक अस्पताल इन पर करीब 654 प्रतिशत तक मुनाफा कमाते थे। लेकिन अब एडमिशन चार्ज, डाक्टर चार्ज, इक्विपमेंट चार्ज, इन्वेस्टिगेशन चार्ज, मेडिकल सर्जिकल प्रोसीजर, मिसलेनियस जैसे नामों पर अब भी मरीजों से किस प्रकार और कितनी राशि वसूली जाती है, फोर्टिस अस्पताल का यह ताजा केस इसका उदाहरण मात्र है।
चिकित्सा के क्षेत्र में इस देश के आम आदमी को बीमारी की अवस्था में उसके साथ होने वाली धोखाधड़ी और ‘लापरवाही’ पर ठोस प्रहार का इंतजार आज भी है।
वैसे तो हमारे देश के सरकारी अस्पतालों की दशा किसी से छिपी नहीं है लेकिन जब भारी भरकम फीस वसूलने वाले प्राइवेट अस्पतालों से मानवता को शर्मसार करने वाली खबरें आती हैं तो मानव द्वारा तरक्की और विकास के सारे दावों का खोखलापन ही उजागर नहीं होता बल्कि बदलते सामाजिक परिवेश में कहीं दम तोड़ती इंसानियत का रुदन भी सुनाई देता है।
एक व्यक्ति जब डाक्टर बनता है तो वो मानवता की सेवा की शपथ लेता है जिसे ‘हिप्पोक्रेटिक ओथ’ कहते हैं, वो अपने ज्ञान के बल पर ‘धरती का भगवान’ कहलाने का अधिकार प्राप्त करता है, लेकिन जब वो ही मानवता की सारी हदें पार कर दे तो इसे क्या कहा जाए?