Tuesday, April 22, 2025
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लेख/विचार

हिंदी के श्राद्ध पर्व पर हिंदी पत्रकारिता का पिंडदान

हिंदी दिवसः पखवारे पर गुरू स्मरण
हिन्दी और हिन्दी पत्रकारिता के कर्मकांडी श्राद्धपर्व के माहौल में हिन्दी बोलने पर जुर्माने की सजा! हिन्दी का पिण्डदान करने सरकारी अय्याशों के साथ ‘कामसूत्र’ की नई विधा तलाशने का सपना संजोए हिंदी पुत्रों के विदेश जाने का शुल्क बस पांच हजार! देश में रोमन लिपि में लिखी हुई हिंदी का पाठ करके या फेसबुक पर हिन्दी के पुरखों का तर्पण करते हुए अंग्रेजी को एक आंख दबाकर सच्चे प्रेमी होने का दावा मुफ्त में बरकरार। हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के शंकराचार्यों की पालकियां भी अपने-अपने मठों से निकल कर प्रेमचंद, निराला, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की परिक्रमा कर चंदे-धंधे जुगाड़ लेंगी और श्राद्ध पर्व का समापन हो जाएगा बगैर यह जाने, बांचे कि अरबी-फारसी, उर्दू, अंग्रेजी के मजबूत किलों को हिन्दी के किन महारथियों की कलम ने ध्वस्त किया था? हिन्दी पत्रकारिता के किस पितामह ने अपना सर्वस्व होम किया था। चंदनामों के आगे घंटा-घड़ियाल बजा उनकी आरती का सस्वर पाठ शायद रोजी-रोटी का इंतजाम कर देता हो, लेकिन नई पीढ़ी को तो अज्ञानता के प्रदूषण का शिकार बना रहा है। तभी तो ताजादम पत्रकारों की पीढ़ी ‘माधुरी’ पत्रिका का प्रकाशक ‘गंगा-पुस्तक माला’ और प्रेमचंद को ‘माधुरी’ का सम्पादन करने लखनऊ आने को लिखने की भूल कर बैठती हैं।
लखनऊ में हिन्दी पत्रकारिता के भीष्म पितामह आचार्य पं. दुलारेलाल भार्गव ने हिन्दी की कीर्ति पताका तब फहराई जब फारसी, उर्दू और अंग्रेजी आम भाषा थी। सबसे पहले उन्होंने सन् 1923 में ‘माधुरी’ का प्रकाशन अपने चाचा विष्णु नारायण भार्गव के साथ किया। इसके साथ ही लाटूश रोड स्थित अपने निवास से गंगा-पुस्तक माला प्रकाशन संस्था की शुरूआत की थी। इस संस्था में लाल बहादुर शास्त्री, निराला, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, गोपाल सिंह नेपाली, इलाचन्द्र जोशी, प्रेमचन्द, मिश्रबंधु जैसे दिग्गज भार्गव जी के सहयोगी रहे। सन् 1927 में ‘सुधा’ मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया, इसमें उनके सहयोगी थे पं0 रूप नारायण पाण्डेय, इसके सह सम्पादक रहे प्रेमचन्द। एक सौ बीस पृष्ठ की पत्रिका में तीन-चार रंगीन चित्र छपते थे।

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पुस्तकें भेंटकर स्वागत-सत्कार की पहल को सराहनीय पहल बताया

बांदा, शिव प्रसाद भारती। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी जी की तर्ज पर उ0प्र0 के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ व म0प्र0 के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने भी अपना स्वागत बुके या अन्य भेंट वस्तुओं के स्थान पर पुस्तकों से करने का निर्णय लिया है। यह अत्यन्त सराहनीय कदम है, राष्ट्रभाषा स्वाभिमान न्यास ने भारत के प्रधानमंत्री, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री व मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री का इस नये कदम का स्वागत किया है। इससे पुस्तक संस्कृति को निश्चय ही बढ़ावा मिलेगा और लोगों की पढ़ने-लिखने में रूचि बढ़ेगी।
राष्ट्रभाषा स्वाभिमान न्यास के बुन्देलखण्ड संयोजक ने कहा है कि प्रधानमंत्री जी ने जो पुस्तकें भेंटकर स्वागत-सत्कार की पहल शुरू की है। उससे समाज में एक नया सन्देश गया है। लेखक, साहित्यकार, कवि, चिन्तक, बुद्धजीवी वर्ग सोचने लगा है कि शासन के मुखिया द्वारा उनकी बात को महत्व दिया जा रहा है, इससे वे समाज से जुड़ा हुआ महसूस कर रहे हैं। अन्यथा वे अपने को अलग-थलग समझते थे। अब उनमें जीवन्तता आयेगी।

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देश में न्याय की उम्मीद जगाते हाल के फैसले

Untitled-1 copyअभी हाल ही में भारत में कोर्ट द्वारा जिस प्रकार से फैसले दिए जा रहे हैं वो देश में निश्चित ही एक सकारात्मक बदलाव का संकेत दे रहे हैं। 24 साल पुराने मुम्बई बम धमाकों के लिए अबु सलेम को आजीवन कारावास का फैसला हो या 16 महीने के भीतर ही बिहार के हाई प्रोफाइल गया रोडरेज केस में आरोपियों को दिया गया उम्र कैद का फैसला हो , देश भर में लाखों अनुनाईयों और राजनैतिक संरक्षण प्राप्त डेरा सच्चा सौदा के राम रहीम का केस हो या फिर देश के अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़े तीन तलाक का मुकदमा हो। इन सभी में कोर्ट द्वारा दिए गए फैसलों ने देश के लोगों के मन में न्याय की धुंधली होती तस्वीर के ऊपर चढ़ती धुंध को कुछ कम करने का काम किया है। देश के जिस आम आदमी के मन में अबतक यह धारणा बनती जा रही थी कि कोर्ट कचहरी से न्याय की आस में जूते चप्पल घिसते हुए पूरी जिंदगी निकाल कर अपनी भावी पीढ़ी को भी इसी गर्त में डालने से अच्छा है कि कोर्ट के बाहर ही कुछ ले दे कर समझौता कर लिया जाए। वो आम आदमी जो लड़ने से पहले ही अपनी हार स्वीकार करने के लिए मजबूर था आज एक बार फिर से अपने हक और न्याय की आस लगाने लगा है। जिस प्रकार आज उसके पास उम्मीद रखने के लिए कोर्ट के हाल के फैसले हैं इसी प्रकार कल उसके पास उम्मीद खोने के भी ठोस कारण थे। 

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भारत विरोध की बढ़ती प्रवृत्ति

Pankaj k singhबांग्लादेश में भारत विरोधी गतिविधियां तथा आतंकवाद की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ती जा रही है। बांग्लादेश की रैपिड एक्शन बटालियन ने पिछले कुछ समय में चटगांव के पहाड़ी क्षेत्रों से भारी मात्रा में अवैध हथियारों तथा गोला-बारूद के साथ अनेक जेहादियों तथा कट्टरपंथी आतंकियों को समय-समय पर गिरफ्तार किया है। भारत की राष्ट्रीय जांच एजेंसी ‘एनआईए’ को भी इस आशय की सूचनाएं निरंतर मिलती रही हैं कि बांग्लादेश के चटगांव स्थित पहाड़ी क्षेत्रों में कट्टर आतंकी गुटों तथा जेहादी संगठनों द्वारा आतंकी प्रशिक्षण शिविर चलाए जा रहे हैं।
‘एनआईए’ द्वारा इस प्रकार की सूचनाओं को बांग्लादेश रैपिड बटालियन के साथ साझा कर समय-समय पर आवश्यक कार्रवाई की जाती रही है। इन आतंकवाद निरोधी अभियानों में समय-समय पर भारी मात्रा में राइफल, पिस्तौल, आधुनिक आग्नेयास्त्र, विस्फोटक सामग्री तथा कारतूस इत्यादि जब्त किए जाते रहे हैं। 

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आतंकवाद के विरुद्ध आधी-अधूरी लड़ाई

Pankaj k singhआतंकवाद के अनेक खौफनाक विवरणों और उनके बढ़ते दायरे की दास्तानों के बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि वे इतने सक्षम हो गए हैं कि संपूर्ण विश्व की शासन व्यवस्था को अपने हाथों में ले सकें। मुठ्ठीभर आतंकी केवल इसलिए अपनी शक्ति और दायरे को बढ़ा सके हैं, क्योंकि वैश्विक महाशक्तियों द्वारा निहित स्वार्थों के कारण उनको हथियारों से लेकर समस्त अन्य संसाधन उपलब्ध कराए गए हैं। बहरहाल अब यह सिद्ध हो गया है कि ‘अच्छे आतंकवाद और बुरे आतंकवाद’ में अंतर का सिद्धांत पूरी तरह विफल रहा है। अपनी शक्ति और सामर्थ्य बढ़ाने के बाद यह आतंकी संगठन अंततः किसी के भी नियंत्रण में नहीं रह जाते हैं और यह संपूर्ण मानव सभ्यता के लिए घातक सिद्ध होते हैं। यह उम्मीद की जानी चाहिए कि इस प्रकार के अनुभवों के बाद वैश्विक महाशक्तियों को यह ज्ञान अवश्य हो गया होगा कि इस प्रकार की घातक रणनीति अंततः उनके लिए भी विनाशकारी सिद्ध होती है। वैसे भी वैश्विक महाशक्तियों का यह दायित्व बनता है कि वह संपूर्ण विश्व और मानव सभ्यता की सुरक्षा के प्रति अपने दायित्व और जिम्मेदारियों को न केवल ठीक से समझें, वरन पूरी ईमानदारी के साथ उसका अनुसरण भी करें।

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जनता तो भगवान बनाती है साहब लेकिन शैतान आप

13 मई 2002 को एक हताश और मजबूर लड़की, डरी सहमी सी देश के प्रधानमंत्री को एक गुमनाम खत लिखती है। आखिर देश का आम आदमी उन्हीं की तरफ तो आस से देखता है जब वह हर जगह से हार जाता है। निसंदेह इस पत्र की जानकारी उनके कार्यालय में तैनात तमाम वरिष्ठ नौकरशाहों को भी निश्चित ही होगी।
साध्वी ने इस खत की कापी पंजाब और हरियाणा के मुख्यमंत्रियों और प्रदेश के आला पुलिस अधिकारियों को भी भेजी थी।
खैर मामले का संज्ञान लिया पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने जिसने 24 सितंबर 2002 को इस खत की सच्चाई जानने के लिए सीबीआई को डेरा सच्चा सौदा की जांच के आदेश दिए।
जांच 15 साल चली, चिठ्ठी में लगे तमाम इलजामात सही पाए गए और राम रहीम को दोषी करार दिया गया। इसमें जांच करने वाले अधिकारी और फैसला सुनाने वाले जज बधाई के पात्र हैं जिन्होंने दबावों को नजरअंदाज करते हुए सत्य का साथ दिया।
देश भर में आज राम रहीम और उसके भक्तों पर बात हो रही है लेकिन हमारी उस व्यवस्था पर विचार क्यों नहीं किया जा रहा जिसमें राम रहीम जैसों का ये कद बन जाता है कि सरकार भी उनके आगे घुटने टेकने के लिए मजबूर हो जाती है।

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35 ए जैसे दमनकारी कानूनों का बोझ देश क्यों उठाए ?

भारत का हर नागरिक गर्व से कहता कि कश्मीर हमारा है लेकिन फिर ऐसी क्या बात है कि आज तक हम कश्मीर के नहीं हैं?
भारत सरकार कश्मीर को सुरक्षा सहायता संरक्षण और विशेष अधिकार तक देती है लेकिन फिर भी भारत के नागरिक के कश्मीर में कोई मौलिक अधिकार भी नहीं है?
2017 में कश्मीर की ही एक बेटी चारु वलि खन्ना एवं 2014 में एक गैर सरकारी संगठन वी द सिटिजंस द्वारा सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 35ए के खिलाफ याचिका दायर की गई है जिसका फैसला दीवाली के बाद अपेक्षित है।
आज पूरे देश में 35ए पर जब बात हो रही हो और मामला कोर्ट में विचाराधीन हो तो कुछ बातें देश के आम आदमी के जहन में अतीत के साए से निकल कर आने लगती हैं।
पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के यह शब्द भी याद आते हैं कि, ‘कश्मीरियत जम्हूरियत और इंसानियत से ही कश्मीर समस्या का हल निकलेगा’।
किन्तु बेहद निराशाजनक तथ्य यह है कि यह तीनों ही चीजें आज कश्मीर में कहीं दिखाई नहीं देती।
कश्मीरियत, आज आतंकित और लहूलुहान है।
इंसानियत की कब्र आतंकवाद बहुत पहले ही खोद चुका है
और जम्हूरियत पर अलगवादियों का कब्जा है।

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खुशियों का फैसला

जो भावना मानवता के प्रति अपना फर्ज निभाने से रोकती हो क्या वो धार्मिक भावना हो सकती है?
जो सोच किसी औरत के संसार की बुनियाद ही हिला दे क्या वो किसी मजहब की सोच हो सकती है?
जब निकाह के लिए लड़की का कुबूलनामा जरूरी होता है तो तलाक में उसके कुबूलनामे को अहमियत क्यों नहीं दी जाती?
साहिर लुधियानवी ने क्या खूब कहा है,
‘वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन,उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा’
यहाँ लड़ाई ‘छोड़ने’ की नहीं है बल्कि ‘खूबसूरती के साथ छोड़ने’ की है। उस अधिकार की है जो एक औरत का पत्नी के रूप में होता तो है लेकिन उसे मिलता नहीं है।
गौर करने लायक बात यह भी है कि जो फैसला इजिप्ट ने 1929 में पाकिस्तान ने 1956 में बांग्लादेश ने 1971 में (पाक से अलग होते ही), ईराक ने 1959 में श्रीलंका ने 1951 में सीरिया ने 1953 में ट्यूनीशिया ने 1956 में और विश्व के 22 मुसलिम देशों ने आज से बहुत पहले ही ले लिया था वो फैसला 21 वीं सदी के आजाद भारत में 22 अगस्त 2017 को आया वो भी 3-2 के बहुमत से।

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आपकी बातः भूमाफियाओं के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं!

sanjay katiyarउत्तर प्रदेश में जब से भारतीय जनता पार्टी की सरकार सत्ता में आई है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रथम दिन से ही ऐलान किया था कि अब प्रदेश में भूमाफियाओं की खैर नहीं होगी। इसी ऐलान के तहत प्रदेश की सरकारी मशीनरी जैसे विकास प्राधिकरण, नगरनिगम, नगरपालिका और ग्राम पंचायतों आदि ने ज्यादातर जिलों में भूमाफियाओं के खिलाफ अभियान छेड़ दिया था। अभियान की सफलता और असफलता अथवा उसके औचित्य पर यदि ईमानदारी से आकलन किया जाये तो एक जो तस्वीर दिखाई देती है वह यह है कि असली भूमाफिया और उनसे जुड़े वो सरकारी कर्मचारी, अधिकारी जिनकी सरपरस्ती पर भूमि की अवैध बिक्री और अवैध कब्जे करके आमजनता के लोगों को धोखे से कूट रचित अभिलेख बनाकर बिक्री करके जनता की जीवनभर की गाढ़ी कमाई पर डाका डाला गया। उनपर कोई भी कार्यवाही नहीं होती दिखाई देती, जबकि भूमाफियों ने अधिकारियों से मिलकर जनता से करोड़ों रुपये लूटकर अपने घर तो भर लिये और अब जब सरकार भूमाफियाओं के खिलाफ अभियान चलाने की बात कर रही है तब बेचारे वो निम्न मध्यम वर्ग की जनता, गरीब जनता परेशानी में आ रही है जिसने किसी प्रकार से मेहनत की गाढ़ी कमाई से भूमि का एक टुकड़ा खरीदकर अपने सपनों का एक छोटा सा घर बनाया था।

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सरकार डाल-डाल तो करचोर पात-पात डॉ. दीपकुमार शुक्ल

deep shuklaसन 1998 में अमिताब बच्चन और गोविंदा की एक फिल्म आयी थी बड़े मियां छोटे मियां। उसमें ट्रेन में टप्पेबाजी करके यात्रियों से लूटे गये सामान के बारे में जब टिकट चेकर पूंछता है तो बड़े और छोटे मियां बताते हैं कि इस बैग्वा के अन्दर में हमारे दाँयें पाँव का मोजा है और इसमें बाएं पाँव का मोजा है। उसके अन्दर हमारे दायें पांव का जूता है। इसमें बाएं पाँव का जूता है। उसके अन्दर हमारी धोती-धोती है और इसमें हमारा कुर्ता-कुर्ता है। ये डायलाग सुनकर दर्शक मुस्कराए बिना न रहे होंगे। कर चोरी की आदत से मजबूर कपड़े और जूता-चप्पल के कुछ कारोबारियों ने देश में जी.एस.टी.लागू होने के बाद से कुछ ऐसा ही तरीका अपनाया है। गौरतलब है कि वस्तु एवं सेवा कर नियमावली के अनुसार पांच सौ रुपये तक की कीमत के जूते-चप्पल और एक हजार रुपये तक की कीमत वाले कपड़ों पर पांच प्रतिशत टैक्स का प्राविधान है। 

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