Friday, September 20, 2024
Breaking News
Home » लेख/विचार » विदिशा: जहां नागपंचमी पर ताले की पूजा होती है

विदिशा: जहां नागपंचमी पर ताले की पूजा होती है

आपने देश में जगह-जगह तरह-तरह की पूजा के बारे में सुना होगा, पर मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से सटे विदिशा शहर में एक स्थान ऐसा भी है जहां नागपंचमी पर ताले की पूजा होती है और यह किसी परम्परा या मान्यता के कारण नहीं होता बल्कि यह पूजा यहां एएसआई (भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग) के आदेश के कारण होती है। दिलचस्प यह है कि यह पूजा एक ऐसे मंदिर में होती है जिसकी डिजाइन पर नई लोकसभा का निर्माण हुआ है।
मध्यप्रदेश का विदिशा शहर एक ऐतिहासिक नगरी के रूप में प्रसिद्ध है। बेतवा नदी के किनारे भगवान राम के चरण यहां जिस जगह पर पड़े वह जगह यहां चरणतीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है। भगवान राम के छोटे भाई शत्रुघ्न के पुत्र शत्रुघाती (कहीं-कहीं इनका नाम यूपकेतु और सुबाहु भी मिलता है) भी यहां के राजा रहे। स्कंद पुराण में उल्लेख है कि वाल्मीकि ऋषि भी इसी क्षेत्र के निवासी थे। सम्राट अशोक की पत्नी विदिशा भी यहां के नगर सेठ की कन्या थीं।
विजय मंदिर का इतिहास
विदिशा भारत के मध्य में स्थित है। प्राचीन काल से ही यह चारों तरफ से अनेक महत्वपूर्ण व्यापारिक एवं धार्मिक स्थानों से जुड़ा रहा। इसी कारण यह हमेशा से ही समृद्ध एवं गौरवशाली नगर रहा है। इस नगर का यह वैभवशाली इतिहास ग्यारहवीं सदी में अपना गौरव स्थापित किए हुए था। तब यहां परमार वंश के राजा कृष्ण के प्रधानमंत्री वाचस्पति ने एक बड़ी विजय के उपलक्ष्य में भव्य मंदिर का निर्माण कराया। कहा जाता है कि इस मंदिर की ऊंचाई 105 गज थी और यह लगभग आधा मील की लंबाई और चौड़ाई में फैला हुआ था। इस पर स्थापित कलश दूर से ही दिखाई देते थे। दक्षिण भारत के मंदिरों की शैली में बना यह मंदिर दूर-दूर तक प्रसिद्ध था। मंदिर की ख्याति सोमनाथ के मंदिर की तरह सर्वत्र पहुंच चुकी थी। इस मंदिर को अब विजय मंदिर के नाम से जानते हैं, लेकिन भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग और विदिशा जिला प्रशासन के रिकॉर्ड में यह बीजा मंडल मस्जिद के नाम से दर्ज है।
1024 से मन्दिर झेल रहा हमले
1024 में गजनी (अब अफगानिस्तान) के मेहमूद गजनी ने विदिशा पर आक्रमण कर दिया और इस मंदिर को लूटकर तहस-नहस कर दिया। गजनी के दरबारी अलबरूनी ने उस समय लिखा था कि यह तीन सौ साल पुराना बहुत बड़ा और भव्य मंदिर था। जहां साल भर यात्री आते रहते थे और दिन-रात पूजा आरती होती रहती थी। मेहमूद गजनी के जाने के बाद इस मंदिर का पुनः निर्माण हुआ और यह अपनी उसी भव्यता के साथ फिर उठ खड़ा हुआ लेकिन दो सौ वर्षों बाद 1233-34 में आक्रांता इल्तुतमिश ने इस मंदिर को पुनः तोड़ दिया। 1250 में यहां के राजा ने मंदिर का पुनः निर्माण कराया। मंदिर फिर भव्यता से उठ खड़ा हुआ। बाद में 1290 से 1293 के बीच अलाउद्दीन खिलजी के गुलाम मलिक काफूर ने इस मंदिर को जमकर लूटा। यहां की मूर्तियों को नष्ट कर दिया। यहां स्थापित अष्टधातु की 8 फीट की एक मूर्ति को भी वह यहां से ले गया और बदायूं की मस्जिद में जमीन में लगा दिया। मलिक काफूर के बाद, 1456 से 1460 के बीच महमूद खिलजी और 1532 में बहादुर शाह ने इस मंदिर पर आक्रमण किए। इस मंदिर की यह विशेषता रही कि हर बार आक्रांता मंदिर पर आक्रमण करते, लूटपाट मचाते और 20-25 वर्षों में ही यह मंदिर पुनः अपनी भव्यता के साथ उठ खड़ा होता। अनेक हमलों को झेलकर भी यह मंदिर अपनी पहचान पुनः बना लेता था। अंततरू मुगल शासक औरंगजेब ने इस मंदिर को बुरी तरह से लूटा और जब उससे यह पूरी तरह ध्वस्त नहीं हुआ तो 1682 में इस मंदिर को ग्यारह तोपों से उड़वा दिया। मंदिर को बुरी तरह से क्षत विक्षत करके मूर्तियों को तोड़ दिया और मंदिर के मलबे से ही एक मस्जिद बना दी। बाद में 1760 में जब विदिशा में पेशवाओं का शासन प्रारंभ हुआ तो उन्होंने यहां नमाज पढ़ने पर रोक लगा दी।
पूजा की परम्परा रही कायम
इस बीच यहां के स्थानीय निवासियों ने अपनी परंपरा को कायम रखा और उस समय कुछ भी न उपलब्ध होने पर गुपचुप रुप से भाजी रोटी से ही पूजा करते रहे। यह स्थान एक टीले के रूप में था। यहां वर्ष में केवल दो बार ईद पर ही नमाज पढ़ी जाती थी लेकिन तब भी भाजी रोटी से पूजा जारी रही। भारत की स्वतंत्रता के बाद हिन्दू महासभा ने सोमनाथ के मंदिर की तरह ही इस मंदिर को मुक्त कराने का अभियान चलाया। वर्षों तक यहां ईद की नमाज और विजय मंदिर मुक्ति आंदोलन साथ-साथ चलते रहे। इस बीच इस स्थान को बीजामंडल मस्जिद का नाम मिल गया जबकि पूरे क्षेत्र में ढेरों क्षत विक्षत मूर्तियां बिखरी पड़ी थी।
और मिलने लगे मन्दिर के प्रमाण…
वर्ष 1991 में एक रात जमकर बारिश हुई जिसमें मंदिर की एक दीवार गिर गयी और इस दीवार में दबी सैकड़ों मूर्तियां बाहर आ गयी। चूंकि उसी समय अयोध्या के राम मंदिर का आंदोलन भी चरमोत्कर्ष पर था तो प्रशासन ने पुरातत्व विभाग को इस स्थान पर खुदाई करने के आदेश दे दिए। पुरातत्व विभाग के उत्खनन में यहां एक पूर्ण मंदिर होने के प्रमाण मिल गए। जिनमें दो बाहरी द्वार भी निकले जो मंदिर से 150-150 गज की दूरी पर है। मंदिर परिसर में एक बावड़ी भी है जिसके स्तम्भों पर कृष्णलीला के दृश्य उत्कीर्ण है। कुछ पत्थर भी मिले जिस पर संस्कृत में चर्चिका देवी की स्तुति है। मंदिर के दक्षिण भाग में एक दरवाजे की चौखट निकली, जिस पर शंख एवं कमल की मूर्तियां हैं। एक बेहद सुंदर नृत्यरत गणेशजी की प्रतिमा स्वयं लेखक ने 1992 के उत्खनन के दौरान देखी थी जो वहां कई वर्षों से रखी थी।इसके अलावा यहां सैकड़ों छोटी-बड़ी मूर्तियां है जो सभी खंडित हैं और अपना इतिहास स्वयं कह रही है। जनश्रुति, स्मृति, शिलालेख, इतिहास की पुस्तकोंऔर आसपास बिखरी भग्न मूर्तियों से हर तरह से प्रमाणित हो चुका है कि विदिशा का बीजा मंडल एक प्राचीन, ऐतिहासिक एवं भव्य मंदिर था। प्रतीत होता है कि प्रारंभ में यहां सूर्य मंदिर बना होगा, धीरे-धीरे विस्तारित होकर यहां चर्चिका देवी, बीजासन देवी एवं भिल्ल स्वामिनी देवी के मंडल स्थापित हुए होंगे जिससे यह स्थान बीजामंडल कहलाने लगा लेकिन आज तक सरकारी दस्तावेजों में इस स्थान का नाम बीजामंडल मस्जिद है।
अब प्रशासन की रोक
बार-बार आक्रमणों के बाद भी यह स्थल निरंतर धार्मिक आस्था का केंद्र बना रहा। भारी तनाव के दिनों में भी यहां के स्थानीय निवासी निरंतर पूजा-अर्चना करते रहे लेकिन प्रशासन उन्हें इस मंदिर के अंदर जाने की अनुमति नहीं देता। यहां के कक्ष में ताले लगे हुए हैं। काफी जद्दोजहद के बाद प्रशासन ने यहां बाहर से पूजा करने की अनुमति दी, लेकिन तब भी ताला नहीं खोला जाता। ताले के बाहर से भी पूजा करने की अनुमति अब सिर्फ नागपंचमी के दिन दी जाती है।
पवन वर्मा – विनायक फीचर्स